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बैंक का दिवाला - प्रेमचंद की हिन्दी कहानी

बैंक का दिवाला - प्रेमचंद की हिन्दी कहानी

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          लखनऊ नेशनल बैंक के दफ्तर में लाला साईंदास आराम कुर्सी पर लेटे हुए शेयरो का भाव देख रहे थे और सोच रहे थे कि इस बार हिस्सेदारों को मुनाफ़ा कहॉं से दिया जायग। चाय, कोयला या जुट के हिस्से खरीदने, चॉदी, सोने या रूई का सट्टा करने का इरादा करते; लेकिन नुकसान के  भय से कुछ तय न कर पाते थे। नाज के व्यापार में इस बार बड़ा घाटा रहा; हिस्सेदारों के ढाढस के लिए हानि- लाभ का कल्पित ब्योरा दिखाना पड़ा ओर नफा पूँजी से देना पड़ा। इससे फिर नाज के व्यापार में हाथ डालते जी कॉपता था।
पर रूपये को बेकार डाल रखना असम्भव था। दो-एक दिन में उसे कहीं न कहीं लगाने का उचित उपाय करना जरूरी था; क्योंकि डाइरेक्टरों की  तिमाही बैठक एक ही सप्ताह में होनेवाली थी, और यदि उस समय कोई निश्चय न हुआ, तो आगे  तीन महीने तक फिर कुछ न हो सकेगा, और छमाही मुनाफे के बॅटवारे के समय फिर वही फरजी कार्रवाई करनी पड़ेगी, जिसका बार-बार सहन करना बैंक के लिए कठिन है। बहुत देर तक इस उलझन में पड़े रहने के बाद साईंदास ने घंटी बजायी। इस पर बगल के दूसरे कमरे से एक बंगाली बाबू ने सिर निकाल का झॉंका।
साईंदास – ताजा-स्टील कम्पनी को एक पत्र लिख दीजिए कि  अपना नया बैलेंस शीट भेज दें।
बाबू- उन लोगों को रुपया का गरज नहीं। चिट्ठी का जवाब नहीं देता।
साईदास – अच्छा: नागपुर की स्वदेशी मिल को लिखिए।
बाबू-उसका कारोबार अच्छा नहीं है। अभी उसके मजदूरों ने हड़ताल किया था। दो महीना तक मिल बंद रहा।
साईंदास – अजी, तो कहीं लिखों भी!  तुम्हारी समझ में सारी दुनिया
बेइमानों से भरी है।

 बाबू –बाबा, लिखने को तो हम सब जगह लिख दें;: मगर खाली लिख देने से तो कुछ लाभ नहीं होता।
लाला साईंदास अपनी कुल –प्रतिष्ठा ओर मर्यादा के कारण बैक के मैंनेजिंग डाइरेक्टर  हो गये थे पर व्यावहरिक बातों से अपरचित थे । यहीं बंगाली बाबू इनके सलाहाकर थे और बाबू साहब को किसी कारखाने या कम्पनी पर भरोसा न था। इन्हीं के अविश्वास के कारण पिछले साल बैंक का रूपया सन्दूक से बाहर न निकल सका था, ओर अब वही रंग फिर दिखायी देता था। साईंदास को इस कठिनाई से बचने का कोई उपाय न सुझता था। न इतनी हिम्मत थी कि अपने भरोसे किसी व्यापार में हाथ डालें। बैचेनी की दशा में उठकर कमरे में टहलने लगे कि दरबान ने आकर खबर दी – बरहल की महारानी की सवारी आयी है।


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लाल साईंदास चैंक पड़े। बरहल की महारानी को लखनउ आये तीन-चार दिन हुए थे ओर हर एक मे मुंह से उन्हीं की चर्चा सुनायी देती थी। कोई उनके पहनावे पर मुग्ध था, कोई उनकी सुन्दरता पर, काई उनकी स्वच्छंद वृति पर। यहॉ तक कि उनकी दासियॉ और सिपाही आदि भी लोगों की चर्चा के पात्र बने हुए थे। रायल होटल के द्वार पर दर्शको की भीड़ लगी रहती है। कितने ही शौकीन, बेफिकरे लोग, इतर-फरोश, बज़ाज या तम्बाकूगर का वेश धर का उनका दर्शन कर चुके थे। जिधर से महारानी की सवारी निकल जाती, दर्शको से ठट लग जाते थे। वाह –वाह, क्या शान! ऐसी इराकी जोड़ी लाट साहब के सिवा किसी राजा-रईस के यहॉ तो शायद ही निकले, और सजावट भी क्या खूब है! भई, ऐसा गोरे आदमी तो यहॉ भी नहीं दिखायी देते। यहॉं के रईस तो मृगांक, चंद्रोदय और ईश्वर जाने, क्या-क्या खाक-बला खाते है, पर किसी के बदन पर तेज या प्रकाश का नाम नहीं। ये लोग न जाने क्या भोजन करते और किस कुऍं का पानी पीते हैं कि जिसे देखिए, ताजा सेब बना हुआ है! यह सब जलबायु का प्रभाब है।
बरहल उतर दिशा में नैपाल के समीप, अँगरेजी–राज्य में एक रियासत थी। यद्यपि जनता उसे बहुत मालदार समझती थी; पर वास्तब में  उस रियासत की आमदनी दो लाख से अधिक न थी। हॉं, क्षेत्रफल बहुत विस्तृत था। बहुत भूमि ऊसर और उजाड़ थी। बसा हुआ  भाग भी पहाड़ी और बंजर था। जमीन बहुत सस्ती उठती थी।
लाला साईंदास न तुरनत अलगानी से रेशमी सूट उतार कर पहन लिया ओर मेज पर आकर शान से बैठ गए। मानों राजा-रानियों का यहॉ आना कोई सधारण बात है। दफ्तर के क्लर्क भी सॅभल गए। सारे बैंक में सन्नाटे की हलचल पैदा  हो गई। दरबान ने पगड़ी सॅभाली। चौकीदार ने तलवार निकाली, और अपने स्थान पर खड़ा हो गया। पंखा–कुली की मीठी नींद भी टूटी और बंगाली बाबू महारानी के स्वागत के लिए दफ्तर से बाहर निकले।
साईंदास ने बाहरी ठाट तो बना लिया,  किंतु चित आशा और भय से चंचल हो रहा था। एक रानी से व्यवहार करने का यह पहला ही अवसर था; घबराते थे कि बात करते बने या न बने। रईसों का मिजाज असमान पर होता है। मालूम नहीं, मै बात करने मे कही चूक जॉंऊं। उन्हें इस समय अपने में एक कमी मालूम हो रही थी। वह राजसी नियमों से अनभिज्ञ थे। उनका सम्मान किस प्रकार करना चाहिए, उनसे बातें करने में किन बातों का ध्यान रखना चाहिए, उसकी मर्यादा–रक्षा के लिए कितनी नम्रता उचित है, इस प्रकार के प्रश्न से वह बड़े असमंजस में पड़े हुए थे, और जी चाहता था कि किसी तरह परीक्षा से शीघ्र ही छुटकारा हो जाय। व्यापारियों, मामूली जमींदारों या रईसों से वह रूखाई ओर सफाई का बर्ताब किया करते थे और पढ़े-लिखे सज्जनों से शील और शिष्टता का। उन अवसरों पर उन्हें किसी विशेष विचार की आवश्यकतान होती थी; पर इस समय बड़ी परेशानी हो रही थी। जैसे कोई लंका–वासी तिबबत में आ गया हो, जहॉ के रस्म–रिवाज और बात-चीत का उसे ज्ञान न हो।
एकाएक उनकी दृष्टी घड़ी पर पड़ी। तीसरे पहर के चार बज चुके  थे। परन्तु घड़ी अभी दोपहर की नींद मे मग्न थी। तारीख की सुई ने दौड़ मे समय को भी मात कर दिया था। वह जल्दी से उठे कि घड़ी को ठीक कर दें, इतने में महारानी के  कमरे मे पदार्पण हुआ। साईदास ने घड़ी को छोड़ा और महारनी के निकट जा बगल मे खड़े हो गये। निश्चय न कर कर सके कि हाथ मिलायें या झुक कर सलाम करें। रानी जी ने स्वंय हाथ बढ़ा कर उन्हें इस उलझन से छुड़ाया।
जब कुर्सियों पर बैठ गए, तो रानी के प्राइवेट सेक्रेटरी ने व्यवहार की बातचीत शुरू कीं। बरहल की पुरानी गाथा सुनाने के  बाद उसने उन उन्नतियों का वर्णन किया, जो रानी साहब के प्रयत्न से हुई थीं। इस समय नहरों की एक शाखा निकालने के लिए दस लाख रूपयों की आवश्यकता थी: परन्तु उन्होंने एक हिन्दुस्तानी बैंक से ही व्यवहार करना अच्छा समझा। अब यह निर्णय नेशनल बैंक के हाथ में था कि वह इस अवसर से लाभ उठाना चाहता है या नहीं।
बंगाली बाबू-हम रुपया दे सकता है, मगर कागज-पत्तर देखे बिना कुछ नहीं कर सकता।
सेक्रेटरी-आप कोई जमानत चाहते हैं?
साईंदास उदारता से बोले- महाशय, जमानत के लिए आपकी जबान ही काफी है।
बंगाली बाबू-आपके पास रियासत का कोई हिसाब-किताब है?
लाला साईंदास को अपने हेडक्लर्क का दुनियादारी का बर्ताव अच्छा न लगता था। वह इस समय उदारता के नशे में चूर थे। महारानी की सूरत ही पक्की जमानत थी। उनके सामने कागज और हिसाब का वर्णन करना बनियापन जान पड़ता था, जिससे अविश्वास की गंध आती है।
महिलाओं के सामने हम शील और संकोच के पुतले बन जाते हैं। साईंदास बंगाली बाबू की ओर क्रूर-कठोर दृष्टि से देख का बोले-कागजों की जॉँच कोई आवश्यक बात नहीं है, केवल हमको विश्वास होना चाहिए।
बंगाली बाब- डाइरेक्टर लोग कभी न मानेगा।
साईंदास-–हमको इसकी परवाह नहीं, हम अपनी जिम्मेदारी पर रुपये दे सकते हैं।
रानी ने साईंदास की ओर कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि से देखा। उनके होठों पर हल्की मुस्कराहट दिखलायी पड़ी।


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परन्तु डाइरेक्टरों ने हिसाब किताब आय व्यय देखना आवश्यक समझा और यह काम लाला साईंदास के सुपुर्द हुआ; क्योंकि और किसी को अपने काम से फुर्सत न थी कि वह एक पूरे दफ्तर का मुआयना करता। साईंदास ने नियमपालन किया। तीन-चार तक हिसाब जॉँचते रहे। तब अपने इतमीनान के अनुकूल रिपोर्ट लिखी। मामला तय हो गया। दस्तावेज लिखा गया, रुपये दे दिए गये। नौ रुपये सैकड़े ब्याज ठहरा।
तीन साल तक बैंक के कारोबार की अच्छी उन्नति हुईं। छठे महीने बिना कहे सुने पैंतालिस हजार रुपयों की थैली दफ्तर में आ जाती थी। व्यवहारियों को पॉँच रुपये सैकड़े ब्याज दे दिया जाता था। हिस्सेदारों को सात रुपये सैकड़े लाभ था।
साईंदास से सब लोग प्रसन्न थे। सब लोग उनकी सूझ-बूझ की प्रशंसा करते। यहॉँ तक कि बंगाली बाबू भी धीरे धीरे उनके कायल होते जाते थे। साईंदास उनसे कहा करते-बाबू जी विश्वास संसार से न लुप्त हुआ है। और न होगा। सत्य पर विश्वास रखना प्रत्येक मनुष्य का धर्म हैं। जिस मनुष्य के चित्त से विश्वास जाता रहता है उसे मृतक समझना चाहिए। उसे जान पड़ता है, मैं चारों ओर शत्रुओं से घिरा हुआ हूँ। बड़े से बड़े सिद्ध महात्मा भी उसे रंगे-सियार जान पड़ते हैं। सच्चे से सच्चे देशप्रेमी उसकी दृष्टि में अपनी प्रशंसा के भूखे ही ठहरते हैं। संसार उसे धोखे और छल से परिपूर्ण दिखलाई देता है। यहॉँ तक कि उसके मन में परमात्मा पर श्रद्धा और भक्ति लुप्त हो जाती हैं। एक प्रसिद्ध फिलासफर का कथन है कि प्रत्येक मनुष्य को जब तक कि उसके विरूद्ध कोई  प्रत्यक्ष प्रमाण न पाओ भलामानस समझो। वर्तमान शासन प्रथा इसी महत्वपूर्ण सिद्धांत पर गठित है। और घृणा तो किसी से करनी ही न चाहिए। हमारी आत्माऍं पवित्र हैं। उनसे घृणा करना परमात्मा से घृणा करने के समान है। मैं यह नहीं कहता हूँ कि संसार में कपट छल है ही नहीं, है और बहुत अधिकता से है परन्तु उसका निवारण अविश्वास से नहीं मानव चरित्र के ज्ञान से होता है और यह ईश्वर दत्त गुण है। मैं यह दावा तो नहीं करता परन्तु मुझे विश्वास है कि मैं मनुष्य को देखकर उसके आंतरिक भावों तक पहुँच जाता हूँ। कोई कितना ही वेश बदले, रंग-रूप सँवारे परन्तु मेरी अंतर्दृष्टि को धोखा नहीं दे सकता। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि विश्वास से विश्वास उत्पन्न होता है। और  अविश्वास से अविश्वास। यह प्राकृतिक नियम है। जिस मनुष्य को आप शुरू से ही धूर्त, कपटी, दुर्जन, समझ लेगें, वह कभी आपसे निष्कपट व्यवहार न करेगा। वह एकाएक आपको नीचा दिखाने का यत्न करेगा। इसके विपरीत आप एक चोर पर भी भरोसा करें तो वह आपका दास हो जायगा। सारे संसार को लूटे परन्तु आपको धोखा न देगा वह कितना ही कुकर्मी अधर्मी क्यों न हो, पर आप उसके गले में विश्वास की जंजीर डालकर उसे जिस ओर चाहें ले जा सकते है। यहॉँ तक कि वह आपके हाथों पुण्यात्मा भी बन सकता है।
बंगाली बाबू के पास इन दार्शनिक तर्कों का कोई उत्तर न था।

 

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चौथे वर्ष की पहली तारिख थी। लाला साईंदास बैंक के दफ्तर में बैठ डाकिये की राह देख रहे थे। आज बरहल से पैंतालीस हजार रुपये आवेंगे। अबकी इनका इरादा था कि कुछ सजावट के सामान और मोल ले लें। अब तक बैंक में टेलीफोन नहीं था। उसका भी तखमीना मँगा लिया था। आशा की आभा चेहरे से झलक रही थी।  बंगाली बाबू से हँस कर कहते थे-इस तारीख को मेरे हाथों में अदबदा के खुजली होने लगती है। आज भी हथेली खुजला रही है। कभी दफ्तरी से कहते-अरे मियॉँ शराफत, जरा सगुन तो विचारों; सिर्फ सूद ही सूद आ रही है, या दफ्तर वालों के लिए नजराना शुकराना भी। आशा का प्रभाव कदाचित स्थान पर भी होता है। बैंक भी आज खुला हुआ दिखायी पड़ता था।
डाकिया ठीक समय पर आया। साईंदास ने लापरवाही से उसकी ओर देखा। उसने अपनी थैली से कई रजिस्टरी लिफाफे निकाले। साईंदास ने लिफाफे को उड़ती निगाह से देखा। बहरल का कोई लिफाफा न था। न बीमा, न मुहर, न वह लिखावट। कुछ निराशा-सी हुई। जी में आया, डाकिए से पूछें, कोई रजिस्टरी रह तो नहीं गयी पर रुक गए; दफ्तर के क्लर्कों के सामने इतना अधैर्य अनुचित था। किंतु जब डाकिया चलने लगा तब उनसे न रह गया? पूछ ही बैठे-अरे भाई, कोई बीमा का लिफाफा रह तो नहीं गया? आज उसे आना चाहिए था। डाकिये ने कहा—सरकार भला ऐसी बात हो सकती है! और कहीं भूल-चूक चाहे हो भी जाय पर आपके काम में कही भूल हो सकती है?
साईंदास का चेहरा उतर गया, जैसे कच्चे रंग पर पानी पड़ जाय। डाकिया चला गया, तो बंगाली बाबू से बोले-यह देर क्यों हुई ? और तो कभी ऐसा न होता था।
बंगाली बाबू ने निष्ठुर भाव से उत्तर दिया-किसी कारण से देर हो गया होगा। घबराने की कोई बात नहीं।
निराशा असम्भव को सम्भव बना देती है। साईंदास को इस समय यह ख्याल हुआ कि कदाचित् पार्सल से रुपये आते हों। हो सकता है तीन हजार अशर्फियों का पार्सल करा दिया हो। यद्यपि इस विचार को औरों पर प्रकट करने का उन्हें साहस न हुआ, पर उन्हें यह आशा उस समय तक बनी रही जब तक पार्सलवाला डाकिया वापस नहीं गया। अंत में संध्या को वह बेचैनी की दशा में उठ कर चले गये। अब खत या तार का इंतजार था। दो-तीन बार झुंझला कर उठे, डॉँट कर पत्र लिखूँ और साफ साफ कह दूँ कि लेन देन के मामले मे वादा पूरा न करना विश्वासघात है। एक दिन की देर भी बैंक के लिए घातक हो सकती है। इससे यह होगा कि फिर कभी ऐसी शिकायत करने का अवसर न मिलेगा; परंतु फिर कुछ सोचकर न लिखा।
शाम हो गयी थी, कई मित्र आ गये। गपशप होने लगी। इतने में पोस्टमैन ने शाम की डाक दी। यों वह पहले अखबारों को खोला करते पर आज चिटिठ्यॉँ खोलीं किन्तु बरहल का कोई खत न था। तब बेदम हो एक अँगरेजी अखबार खोला। पहले ही तार का  शीर्षक देखकर उनका खून सर्द हो गया। लिखा था-
‘कल शाम को बरहल की महारानी जी का तीन दिन की बीमारी के बाद देहांत हो गया।’
इसके आगे एक संक्षिप्त नोट में यह लिखा हुआ था—‘बरहल की महारानी की अकाल मृत्यु केवल इस रियासत के लिए ही नहीं किन्तु समस्त प्रांत के लिए शोक जनक घटना है। बड़े-बड़े भिषगाचार्य (वैद्यराज) अभी रोग की परख भी न कर पाये थे कि मृत्यु ने काम तमाम कर दिया। रानी जी को सदैव अपनी रियासत की उन्नति का ध्यान रहता था। उनके थोड़े से राज्यकाल में ही उनसे रियासत को जो लाभ हुए हैं, वे चिरकाल तक स्मरण रहेंगे। यद्यपि यह मानी हुई बात थी कि राज्य उनके बाद दूसरे के हाथ जायेगा, तथापि यह विचार कभी रानी साहब के कर्त्तव्य पालन में बाधक नहीं बना। शास्त्रानुसार उन्हें रियासत की जमानत पर ऋण लेने का अधिकार न था, परंतु प्रजा की भलाई के विचार से उन्हें कई बार इस नियम का उल्लंघन करना पड़ा। हमें विश्वास है कि यदि वह कुछ दिन और जीवित रहतीं तो रियासत को ऋण से मुक्त कर देती। उन्हें रात-दिन इसका ध्यान रहता था। परंतु इस असामयिक मृत्यु ने अब यह फैसला दूसरों के अधीन कर दिया। देखना चाहिए, इन ऋणों का क्या परिणाम होता है। हमें विश्वस्त रीति से यह मालूम हुआ है कि नये महाराज ने, जो आजकल लखनऊ में विराजमान हैं, अपने वकीलों की सम्मति के अनुसार मृतक महारानी के ऋण संबंधी हिसाबों को चुकाने से इन्कार कर दिया है। हमें भय है कि इस निश्चय से महाजनी टोले में बड़ी हलचल पैदा होगी और लखनऊ के कितने ही धन सम्पति के स्वामियों को यह शिक्षा मिल जायगी कि ब्याज का लोभ कितना अनिष्टकारी होता है।
लाला साईंदास ने अखबार मेज पर रख दिया और आकाश की ओर देखा, जो निराशा का अंतिम आश्रय है। अन्य मित्रों ने भी यह समाचार पढ़ा। इस प्रश्न पर वाद-विवाद होने लगा। साईंदास पर चारों ओर से बौछार पड़ने लगी। सारा दोष उन्हीं के सिर पर मढ़ा गया और उनकी चिरकाल की कार्यकुशलता और परिणाम-दर्शिता मिट्टी मे मिल गयी। बैंक इतना बड़ा घाटा सहने में असमर्थ था। अब यह विचार उपस्थित हुआ कि कैसे उसके प्राणों की रक्षा की जाय।


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शहर में यह खबर फैलते ही लोग अपने रुपये वापस लेने के लिए आतुर हो गये। सुबह शाम तक लेनदारों का तांता लगा रहता था। जिन लोगों का धन चालू हिसाब में जमा था, उन्होंने तुरंत निकाल लिया, कोई उज्र न सुना। यह उसी पत्र के लेख का फल था कि नेशनल बैंक की साख उठ गयी। धीरज से काम लेते तो बैंक सँभल जाता। परंतु ऑंधी और तूफान में कौन नौका स्थिर रह सकती है? अन्त में खजांची ने टाट उलट दिया। बैंक की नसों से इतनी रक्तधाराऍं निकलीं कि वह प्राण-रहित हो गया।
तीन दिन बीत चुके थे। बैंक घर के सामने सहस्त्रों आदमी एकत्र थे। बैंक के द्वार पर सशस्त्र सिपाहियों का पहरा था। नाना प्रकार की अफवाहें उड़ रहीं थीं। कभी खबर उड़ती, लाला साईंदास ने विष-पान कर लिया। कोई उनके पकड़े जाने की सूचना लाता था। कोई कहता था-डाइरेक्टर हवालात के भीतर हो गये।
एकाएक सड़क पर से एक मोटर निकली और बैंक के सामने आ कर रुक गयी। किसी ने कहा-बरहल के महाराज की मोटर है। इतना सुनते ही सैकड़ों मनुष्य मोटर की ओर घबराये हुए दौड़े और उन लोगों ने मोटर को घेर लिया।
कुँवर जगदीशसिंह महारानी की मृत्यु के बाद वकीलों से सलाह लेने लखनऊ आये थे। बहुत कुछ सामान भी खरीदना था। वे इच्छाऍं जो चिरकाल से ऐसे सुअवसर की प्रतीक्षा में बँधी थी, पानी की भॉँति राह पा कर उबली पड़ती थीं। यह मोटर आज ही ली गयी थी। नगर में एक कोठी लेने की बातचीत हो रही थी। बहुमूल्य विलास-वस्तुओं से लदी एक गाड़ी बरहल के लिए चल चुकी थी। यहॉँ भीड़ देखी, तो सोचा कोई नवीन नाटक होने वाला है, मोटर रोक दी। इतने में सैकड़ों की भीड़ लग गयी।
कुँवर साहब ने पूछा-यहॉँ आप लोग क्यों जमा हैं? कोई तमाशा होने वाला है क्या?

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