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बैंक का दिवाला - प्रेमचंद की हिन्दी कहानी

बैंक का दिवाला - प्रेमचंद की हिन्दी कहानी

पेज 3

जायदाद मुझे न मिली होती तो मैं सहस्रों दीन भाइयों की भॉँति आज जीविकोपार्जन में लगा रहता। मैं क्यों न भूल जाऊँ कि में इस राज्य का स्वामी हूँ। ऐसे ही अवसरों पर मनुष्य की परख होती है। मैंने वर्षो पुस्तकावलोकन किया, वर्षो परोपकार के सिद्धान्तों का अनुनायी रहा। यदि इस समय उन सिद्धांतो को भूल जाऊँ, स्वार्थ को मनुष्यता और सदाचार से बढ़ने दूं तो, वस्तुत: यह मेरी अत्यन्त कायरता और स्वार्थपरता होगी। भला स्वार्थसाधन की शिक्षा के लिए गीता, मिल एमर्सन और अरस्तू का शिष्य बनने की क्या आवश्यकता थी? यह पाठ तो मुझे अपने दूसरे भाइयों से यों ही मिल जाता। प्रचलित प्रथा से बढ़ कर और कौन गुरु था? साधारण लोगों की भॉँति क्या मैं भी स्वार्थ के सामने सिर झुका दूँ। तो फिर विशेषता क्या रही? नहीं, मैं नानशंस (विवेक-बुद्धि) का ख्रून न करुँगा। जहां पुण्य कर सकता हूँ, पाप न करूँगा। परमात्मन्, तुम मेरी सहायता करो तुमने मुझे राजपूत-घर में जन्म दिया है। मेरे कर्म से इस महान् जाति को लज्जित न करो। नहीं, कदापि नहीं। यह गर्दन स्वार्थ के सम्मुख न झुकेगी। मैं राम, भीष्म और प्रताप का वंशज हूँ। शरीर-सेवक न बनूँगा।
कुँवर जगदीश सिंह को इस समय ऐसा ज्ञात हुआ, मानो वह किसी ऊँचे मीनार पर चड़ गये हैं। चित्त अभिमान से पूरित हो गया। ऑंखे प्रकाशमान हो गयीं। परन्तु एक ही क्षण में इस उमंग का उतार होने लगा, ऊँचे मानार के नीचे की ओर ऑंखे गयीं। सारा शरीर कॉँप उठा। उस मनुष्य की-सी दशा हो गयी, जो किसी नदी के तट पर बैठा उसमें कूदने का विचार कर रहा हो।
उन्होंने सोचा, क्या मेरे घर के लोग मुझसे सहमत होंगे? यदि मेरे कारण वे सहमत भी हो जायँ, तो क्या मुझे अधिकार हैं कि अपने साथ उनकी इच्छाओं का भी बलिदान करुँ? और-तो-और, माताजी कभी न मानेंगी, और कदाचित भाई लोग भी अस्वीकार करें। रियासत की हैसियत को देखते हुए वे कम हजार सालाना के हिस्सेदार हैं। और उनके भाग में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं कर सकता। मैं केवल अपना मालिक हूँ, परन्तु में भी तो अकेला नहीं हूँ। सावित्री स्वयं चाहे मेरे साथ आग में कूदने को तैयार हो, किंतु पने प्यारे पुत्र को इस ऑच के समीप कदापि न आने देगी।

कुँवर महाशय और अधिक न सोच सके । वह एक विकल दशा में पलंग पर से उठ बैठे और कमरे में टहलने लगे। थोड़ी देर बाद उन्होंने जँगले के बाहर की ओर झॉँका और किवाड़ खोलकर बाहर चले गये। चारों ओर अँधेरा था। उनकी चिंताओं की भॉँति सामने अपार और भंयकर गोमी नदी बह रही थी। वह धीरे-धीरे नदी के तट पर चले गये और देर तक वहॉँ टहलते रहे। आकुल हृदय को जल-तरंगों से प्रेम होता है। शायद इसलिए कि लहरें व्याकुल हैं। उन्होंने उपने चंचल को फिर एकाग्र किया। यदि रियासत की आमदनी से ये सब वृत्तियॉँ दी जायँगी, तो ऋण का सूद निकलना भी कठिन होगा। मूल का तो कहना ही क्या ! क्या आय में वृद्धि नहीं हो सकती? अभी अस्तबल में बीस घोड़े हैं। मेरे लिए एक काफी हैं। नौकरों की संख्या सौ से कम न होगी। मेरे लिए दो भी अधिक हैं। यह अनुचित हैं कि अपने ही भाइयों से नीचे सेवाएँ करायी जायँ। उन मनुष्यों को मैं अपने सीर की जमीन दे दूँगा। सुख से खेती करेंगे और मुझे आशीर्वाद देंगे। बगीचों के फल अब तक डालियों की भेंट हो जाते थे। अब उन्हें बेचूँगा, और सबसे बड़ी आमदनी तो बयाई  की है। केवल महेशगंज के बाजार के दस हजार रुपये आते है। यह सब आमदनी महंत जी उड़ा जाते हैं। उनके लिए एक हजार रुपये साल होना चाहिए। अबकी इस बाजार का ठेका दूँगा। आठ हजार से कम न मिलेंगे। इन भदों से पचीस हजार रुपये की वार्षिक आय होगी। सावित्री और लल्ला (लड़के) के लिए एक हजार रुपये काफी हैं। मैं सावित्री से स्पष्ट कह दूँगा कि या तो एक हजार रुपये मासिक लो और मेरे साथ रहो या रियासत की आधी आमदनी ले लो, ओर मुझे छोड़ दो। रानी बनने की इच्छा हो, तो खुशी से बनो, परंतु मैं राजा न बनूँगा।
अचानक कुँवर साहब के कानों में आवाज आयी--राम नाम सत्य है। उन्होंने पीछे मुड़कर देखा। कई मनुष्य एक लाश लिए आते थे। उन लोगों ने नदी किनारे चिता बनायी और उसमें आग लगा दी। दो स्त्रियॉँ चिंग्धार कर रो रही थीं। इस विलाप का कुँवर साहब के चित्त पर कुछ प्रभाव न पड़ा। वह चित्त में लज्जित हो रहे थे कि मैं कितना पाषण-हृदय हूँ ! एक दीन मनुष्य की लाश जल रही हैं, स्त्रियाँ रो रही हैं और मेरा हृदय तनिक भी नहीं पसीजता ! पत्थर की मूर्ति की भॉँति खड़ा हूँ । एकबारगी स्त्री ने रोते हुए कहा- ‘हाय मेरे राजा ! तुम्हें विष कैसे मीठा लगा? यह हृदय-विदारक विलाप सुनते ही कुँवर साहब के चित्त में एक घाव-सा लग गया। करुण सजग हो गयी और नेत्र अश्रुपूर्ण हो गये। कदाचित इसने विष-पान करके प्राण दिये हैं। हाय ! उसे विष कैसे मीठा लगा ! इसमें कितनी करुणा हैं, कितना दु:ख, कितना आश्चर्य ! विष तो कड़वा पदार्थ है। क्योंकर मीठा हो गया। कटु, विष के बदले जिसने अपने मधुर प्राण दे दिये उस पर कोई कड़ी मुसीबत पड़ी होगी। ऐसी ही दशा में विष मधुर हो सकता है। कुँवर साहब तड़प गये। कारुणिक शब्द बार-बार उनके हृदय में गूंजते थे। अब उनसे वहॉँ न खड़ा रहा गया। वह उन आदमियों के पास आये, एक मनुष्य से पूछा--क्या बहुत दिनों से बीमार थे? इस मनुष्य ने कुँवर साहब की और आँसू-भरे नेत्रों से देखकर कहा--नहीं साहब, कहॉँ की बीमारी ! अभी आज संध्या तक भली-भांति बातें कर रहे थे। मालूम नहीं, संध्या को क्या खा लिया की खून की कै होने लगी। जब तक वैद्य-राज के यहॉँ जायॅ, तब तक ऑंखे उलट गयीं। नाड़ी छूट गयी। वैद्यराज ने आकर देखा, तो कहा--अब क्या हो सकता हैं.? अभी कुल बाईस-तेईस वर्ष की अवस्था थी। ऐसा पट्ठा सारे लखनऊ में नहीं था।
कुँवर--कुछ मालूम हुआ, विष क्यों खाया?
उस मनुष्य ने संदेह-दृष्टि से देखकर कहा--महाशय, और तो कोई
बात नहीं हुई । जब से यह बड़ा बैंक टूटा है, बहुत उदास रहते थे। कोई हजार रुपये बैंक में जमा किये थे। घी-दूध-मलाई की बड़ी दूकान थी। बिरादरी में मान था। वह सारी पूँजी डूब गयी। हम लोग राकते रहे कि बैंक में रुपये मत जमा करो ; किन्तु होनहार यह थी। किसी की नहीं सुनी। आज सबेरे स्त्री से गहने मॉँगते थे कि गिरवी रखकर अहीरों के दूध के दाम दे दें। उससे बातों-बातों में झगड़ा हो गया। बस न जाने क्या खा लिया।
कुँवर साहब हृदय कांप उठा। तुरन्त ध्यान आया--शिवदास तो नहीं है। पूछा इनका नाम शिवदास तो नहीं था। उस मनुष्य ने विस्मय से देख कर कहा-- हॉँ, यही नाम था। क्या आपसे जान-पहचान थी?
कुँवर--हॉँ, हम और यह बहुत दिनों तक बरहल में साथ-साथ खेले थे। आज शाम को वह हमसे बैंक में मिले थे। यदि उन्होंने मुझसे तनिक भी चर्चा की होती, तो मैं यथाशक्ति उनकी सहायता करता। शोक?
उस मनुष्य ने तब ध्यानपूर्वक कुँवर साहब को देखा, और जाकर स्त्रियों से कहा--चुप हो जाओ, बरहल के महाराज आये है। इतना सुनते ही शिवदास की माता जोर-जोर से सिर पटकती और रोती हुई आकर कुँवर साहब के पैरों पर गिर पड़ी। उसके मुख से केवल ये शब्द निकले--‘बेटा, बचपन से जिसे तुम भैया कहा करते थे--और गला रुँध गया।
कुँवर महाशय की ऑंखों से भी अश्रुपात हो रहा था। शिवदास की मूर्ति उनके सामने खड़ी यह कहती देख पड़ती थी कि तुमने मित्र होकर मेरे प्राण लिए।


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भोर हो गया; परन्तु कुँवर साहब को नींद न आयी। जब से वह तीर से लौटे थे, उनके चित्त पर एक वैराग्य-सा छाया हुआ था। वह कारुणिक दृश्य उपने स्वार्थ के तर्को को छिन्न-भिन्न किये देता था। सावित्री के विरोध, लल्ला के निराशा-युक्त हठ और माता के कुशब्दों का अब उन्हें लेशमात्र भी भय न था। सावित्री कुढ़ेगी कुढ़े, लल्ला को भी संग्राम के क्षेत्र में कूदना पड़ेगा, कोई चिंता नहीं ! माता प्राण देने पर तत्पर होगी, क्या हर्ज है। मैं अपनर स्त्री-पुत्र तथा हित-मित्रादि के लिए सहस्रों परिवारो की हत्या न करुँगा। हाय ! शिवदास को जीवित रखने के लिए मैं ऐसी कितनी रियासतें छोड़ सकता हूँ। सावित्री को भूखों रहना पड़े, लल्ला को मजदूरी करनी पड़े, मुझे द्वार-द्वार भीख मॉँगनी पड़े तब भी दूसरों का गला न दबाऊँगा। अब विलम्ब का अवसर नहीं। न जाने आगे यह दिवाला और क्या-क्या आपत्तियॉँ खड़ी करे। मुझे इतना आगा-पीछा क्यों हा रहा है? यह केवल आत्म-निर्बलता हैं वरना यह कोई ऐसा बड़ा काम नहीं, जो किसी ने न किया हो। आये दिन लोग रुपये दान-पुण्य करते है। मुझे अपने कर्तव्य का ज्ञान है। उससे क्यों मुँह मोडूँ। जो कुछ हो, जो चाहे सिर पड़े, इसकी क्या चिन्ता। कुँवर ने घंटी बजायी। एक क्षण में अरदली ऑंखे मलता हुआ आया।
कुँवर साहब बोले--अभी जेकब बारिस्टर के पास जाकर मेरा सलाम दो। जाग गये होंगे। कहना, जरुरी काम है। नहीं, यह पत्र लेते जाओ। मोटर तैयार करा लो।


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मिस्टर जेकब ने कुँवर साहब को बहुत समझाया कि आप इस दलदल में न फँसें, नहीं तो निकलना कठिन होगा। मालूम नहीं, अभी कितनी ऐसी रकमें हैं जिनका आपको पता नहीं है, परन्तु चित्त में दृढ़ हो जानेवाला निश्चय चूने का फर्श है, जिसको आपति के थपेड़े और भी पुष्ट कर देते हैं, कुँवर साहब अपने निश्चय पर दृढ़ रहे। दूसरे दिन समाचार-पत्रों में छपवा दिया कि मृत महारानी पर जितना कर्ज हैं वह सकारते हैं और नियत समय के भीतर चुका देगे।
इस विज्ञापन के छपते ही लखनऊ में खलबली पड़ गयी। बुद्धिमानों की सम्मति में यह कुँवर महाशय की नितांत भूल थी, और जो लोग कानून से अनभिज्ञ थे, उन्होंने सोचा कि इसमें अवश्य कोई भेद है। ऐसे बहुत कम मनुष्य थे, जिन्हें कुँवर साहब की नीयत की सचाई पर विश्वास आया हो परन्तु कुँवर साहब का बखान चाहे न हुआ हो, आशीर्वाद की कमी न थी। बैंक के हजारों गरीब लेनदार सच्चे हृदय से उन्हे आशीर्वाद दे रहे थे।
एक सप्ताह तक कुँवर साहब को सिर उठाने का अवकाश न मिला। मिस्टर जेकब का विचार सत्य सिद्ध हुआ। देना प्रतिदिन बढ़ता जाता था। कितने ही प्रोनोट ऐसे मिले, जिनका उन्हें कुछ भी पता न था। जौहरियों और अन्य बड़े-बड़े दूकानदारों का लेना भी कम न था। अन्दाजन तेरह- चौदह लाख का था। मीजान बीस लाख तक पहुँचा। कुँवर साहब घबराये। शंका हुई--ऐसा न हो कि उन्हें भाइयों का गुजारा भी बन्द करना पड़े, जिसका उन्हें कोई अधिकर नहीं था। यहॉँ तक कि सातवें दिन उन्होंने कई साहूकारों को बुरा-भला कहकर सामने से दूर किया। जहॉँ ब्याज का दर अधिक थी, उस कम कराया और जिन रकमों की मीयादें बीत चुकी थी, उनसे इनकार कर दिया।
उन्हें साहूकारों की कठोराता पर क्रोध आता था। उनके विचार से महाजनों को डूबते धन का एक भाग पा कर ही सन्तोष कर लेना चाहिए था। इतनी खींचतान करने पर भी कुल उन्नीस लाख से कम न हुआ।
कुँवर साहब इन कामों से अवकाश पाकर एक दिन नेशनल बैंक की ओर जा निकले। बैंक खुला था। मृतक शरीर में प्राण आ गये थे। लेनदारों की भीड़ लगी हुई थी। लोग प्रसन्नचित्त लौटे जा रहे थे। कुँवर साहब को देखते ही सैकड़ो मनुष्य बड़े प्रेम से उनकी ओर दौड़े। किसी ने रोकर, किसी ने पैरों पर गिर कर और किसी ने सभ्यतापूर्वक अपनी कृतज्ञता प्रकट की। वह बैंक के कार्यकर्ताओं से भी मिले। लोगों ने कहा--इस विज्ञापन ने बैंक को जीवित कर दिया। बंगाली बाबू ने लाला साईंदास की आलोचना की--वह समझता था संसार में सब मनुष्य भलामानस है। हमको उपदेश करता था। अब उसकी ऑंख खुल गई है। अकेला घर में बैठा रहता है ! किसी को मुँह नहीं दिखाता हम सुनता है, वह यहॉँ से भाग जाना चाहता था। परन्तु बड़ा साहब बोला, भागेगा तो तुम्हारा ऊपर वारंट जारी कर देगा। अब साईंदास की जगह बंगाली बाबू मैंनेजर हो गये थे।
इसके बाद कुँवर साहब बरहल आये। भाइयों ने यह वृत्तांत सुना, तो बिगड़े, अदालत की धमकी दी। माताजी को ऐसा धक्का पहुँचा कि वह उसी दिन बीमार होकर एक ही सप्ताह में इस संसार से विदा हो गयीं। सावित्री को भी चोट लगी; पर उसने केवल सन्तोष ही नहीं किया, पति की उदारता और त्याग की प्रंशसा भी की ! रह गये लाल साहब। उन्होंने जब देखा कि अस्तवल से घोड़े निकले जाते हैं, हाथी मकनपुर के मेले में बिकने के लिए भेज दिये गये हैं और कहार विदा किये जा रहे हैं, तो व्याकुल हो पिता से बोले--बाबूजी, यह सब नौकर, घोड़े, हाथी कहॉँ जा रहे हैं?
कुँवर--एक राजा साहब के उत्सव में।
लालजी--कौन से राजा?
कुँवर—उनका नाम राजा दीनसिंह है।
लालजी—कहॉँ रहते हैं?
कुँवर—दरिद्रपुर।
लालजी—तो हम भी जायेंगे।
कुँवर—तुम्हें भी ले चलेंगे; परंतु इस बारात में पैदल चलने वालों का सम्मान सवारों से अधिक होगा।
लालजी—तो हम भी पैदल चलेंगे।
कुँवर--वहॉँ परिश्रमी मनुष्य की प्रशंसा होती हैं।
लालजी—तो हम सबसे ज्यादा परिश्रम करेंगे।
कुँवर साहब के दोनों भाई पॉँच-पॉच हजार रुपये गुजारा लेकर अलग हो गये। कुँवर साहब अपने और परिवार के लिए कठिनाई से एक हजार सालाना का प्रबन्ध कर सके, पर यह आमदनी एक रईस के लिए किसी तरह पर्याप्त नहीं थी। अतिथि-अभ्यागत प्रतिदिन टिके ही रहते थे। उन सब का भी सत्कार करना पड़ता था। बड़ी कठिनाई से निर्वाह होता था। इधर एक वर्ष से शिवदास के कुटुम्ब का भार भी सिर पर पड़ा, परन्तु कुँवार साहब कभी अपने निश्चय पर शोक नहीं करते। उन्हें कभी किसी ने चिंतित नहीं देखा। उनका मुख-मंडल धैर्य और सच्चे अभियान से सदैव प्रकाशित रहता है। साहित्य-प्रेम पहले से था। अब बागवानी से प्रेम हो गया है। अपने बाग में प्रात:काल से शाम तक पौदों की देख-रेख किया करते हैं और लाल साहब तो पक्के कृषक होते दिखाई देते है। अभी नव-दास वर्ष से अधिक अवस्था नहीं है, लेकिन अँधेरे मुँह खेत पहुँच जाते हैं। खाने-पीने की भी सुध नहीं रहती।
उनका घोड़ा मौजूद हैं; परन्तु महीनों उस पर नहीं चढ़ते। उनकी यह धुन देखकर कुँवर साहब प्रसन्न होते हैं और कहा करते हैं—रियासत के भविष्य की ओर से निश्चित हूँ। लाल साहब कभी इस पाठ को न भूलेंगे। घर में सम्पत्ति होती, तो सुख-भोग, शिकार, दुराचार से सिवा और क्या सूझता ! सम्पत्ति बेचकर हमने परिश्रम और संतोष खरीदा, और यह सौदा बुरा नहीं। सावित्री इतनी संतोषी नहीं। वह कुँवर साहब के रोकने पर भी असामियां से छोटी-माटी भेंट ले लिया करती है और कुल-प्रथा नहीं तोड़ना चाहती।

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