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Shravasti District Uttar Pradesh

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History of Shravasti, Uttar Pradesh

Shravasti is situated in the north Indian state of Uttar Pradesh around 176 km off Lucknow.It is one of the main site for Buddhist pilgrimage as well and Jain Pilgrimage. History of Shravasti teerth begins with the formation of Janpad's by Yugadidev Shri Adishwar Prabhu. This place was the capitol city of North Kaushal Janpad. Many Jain Kings such as King Jitari, the father of third Teerthankar Shri Sambhavnath Bhagwan and others past here after Bhagwan Adinath. King Prasanjeet ruled this place at the time of Bhagwan Mahaveer. He was a loyal follower of Prabhu Veer. The main listener of Prabhu Veer King of Magadh Samrat Shrenik has wedded the sister of King Parasanjeet. This was also called by the names of Kunal Nagari and Chandrikapuri in the old days. Many Jain temples and Stoops (pillars) were present in this city. It is specified in history that greater king Samrat Ashok and his grand son King Samprati also constructed many temples and Stoops at this holy place. This teerth place is also descripting in "Brihatkalp". Chinese traveler Fahiyan has also described this holy place in his memories of traveling India during 5th century BC. One more Chinese traveler during 7th century BC, Hun-Yen-Sang, has described this place as Jet van Monastery. Later this was called as Manikapuri. This was ruled by King Mayurdhwaj during 900 AD, by King Hansdhwaj during 925 AD, by King Makardhwaj during 950 AD, by King Sudhavadhwaj during 975 AD and by King Suhridhwaj during 100 AD. All of them were Jain Kings belonging to Bhar Vansh. Dr. Bennet and Dr. Vincent Smith have also specified them as Jain Kings. Work done by King Suhridhwaj for strengthening religion and defending the temples in his empires from Muslim attack will always taken as a great reminder of history. He also defeated Mohamed Gazanavi. Acharya Jinprabh Surishwarji has specified this teerth as Mahith in his granth "Vividh Teerth Kalp" in 14th century of VS. During those days many Jin-home having big boundary walls, idols and Dev kulika's were present in this city. Doors of the temple use to shut down automatically at the time of Sunset and opens in the morning. This was said to affect of Shri Manibhadra Yaksha. A Lion use to visit the temple on the occasion of annual gathering and would go only after the completion of Aarti. Allaudin Khilji and his soldiers damaged this temple. Pandit Vijaysagarji and Shri Soubhagya Vijayji have described this teerth in 18th century. Number of ancient idols and inscription were recovered after digging Sahet Mahet area near Shravasti village. These are kept in museums at Lucknow and Mathura. Archeological Department has acquired an ancient temple present near the Mahet Fort. This place is described as the birthplace of Bhagwan Sri Sambhavnath. The damaged remaining at Sahet Mahet reminds the ancient ness of this place. At present this is the only temple present at this teerth place.

श्रावस्ती का इतिहास
आदिकालीन श्रावस्ती
श्रावस्ती के प्रागैतिहासिक काल का कोई प्रमाण नहीं मिला है | शिवालिक पर्वत श्रृखला की तराई में स्थित यह क्षेत्र सधन वन व ओषधियों वनस्पतियो से आच्छादित था | शीशम के कोमल पत्तों कचनार के रक्ताभ पुष्प व सेमल के लाल प्रसून की बासंती आभा से आपूरित यह वन खंड प्राक्रतिक शोभा से परिपूर्ण रहता था | यह भूमि पहाडी नालों के जल प्रवाह की कल-कल ध्वनि व पछियों के कलरव से निनादित वन्य-प्राणियों की उतम शरण स्थली रही है | आदिम मानव इन सुरम्य जंगलों में पुर्णतः प्राक्रतिक रूप से जीवनयापन करता था | सभ्यता के विकास के क्रम में इस क्षेत्र में मानवी समाज विकसित हुआ था | आदिम संस्कृति उत्तरोत्तर क्रमशः आर्य संस्कृति में परिवर्धित होती गयी |
अर्वाचीन श्रावस्ती
काल प्रवाह में लगभग ६००० वर्ष बुद्ध पूर्व एक महान प्रतापी राजा मनु हुए थे | राजा मनु ने सम्पूर्ण आर्यावर्त पर एक छत्र शासन स्थापित किया था | सरजू नदी के तट पर एक भब्य नगर का निर्माण रजा मनु ने करवाया था | इसी नगर का नाम अयोध्या हुआ था | राजा मनु ने अयोध्या को राजधानी बनाया | राजा मनु के नौ पुत्र थे –१ इक्षवाक २ नृग ३ धृष्ट ४ शर्याति ५ नारियत ६ प्रांशु ७ नाभानेदिष्ट ८ करुष ओंर ९ पृणध | यही वंश सूर्यवंशी कहलाए | समय आने पर राजा मनु ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य को अपने सभी पुत्रों में विभाजित कर दिया | ज्येष्ठ पुत्र इक्षवाुक को उत्तर –मध्य (काशी-कोसल) का विशाल क्षेत्र शासन हेतु दे दिया था | महाराजा इक्षवाुक से लेकर इसी वंशवली में हुए (भगवान) रामचन्द्र जी तक कोशल राज्य की राजधानी अयोध्यापुरी थी | इक्षवाुक के वंशजो में महाप्रतापी राजा पृथु हुए | समाट पृथु के पश्चात् क्रमशः विश्व्गाश्व ,आर्द्द्व युवनाश्व और श्रावस्त कोसल के हुए | समाट युवनाश्व के पुत्र श्रावस्त ने हिमालय की तलहटी में अचिर्व्ती नदी के तट पर एक सुन्दर नगर का निर्माण कराया था | उन्ही के नाम पर इस नगर का नाम श्रावस्ती पडा | पूर्व काल खण्ड में ऋषि सावस्थ की तपोभूमि होने के अर्थ में भी इस नगर का नाम श्रावस्ती पडा | इस नगर की भव्यतम परिपूर्णता श्रावस्त के पुत्र राजा वंशक के शासन काल सुंदर नगर का निर्माण कराया था | उन्ही के नाम पर इस नगर का श्रावस्ती पडा | पूर्व काल खंड मे ॠषि सावसथ कि तपोभुमि होने के अरथ gS A सम्राट श्रावस्त के प्रपोत्र कुवलयाश्व के धुंधु नामक असुर का अन्त कर प्रजा का रजन किया । इसी वंश क्रम में महा प्रतापी सम्राट मान्धाता हुए । ये धर्मानुसार प्रजापालक, सप्तद्वीपक चक्रवर्ती सम्राट हुए । सम्राट मान्धाता ने गोदान की प्रथा डाली । इनके दिव्य शासनकाल में मांस भक्षण पूर्ण निषिद्ध था । क्रमशः इसी राजवंश में राजा सत्यव्रत के पुत्र महादानी सत्यव्रती राजा हरिश्चन्द्र हुए । इसी राजवंश से महाराज सगर उनके पुत्र अंशुमान क्रमशः महाराजा दिलीप महाराजा रघु व महाराजा भागीरथ ने अपने शौर्य-पुरूषार्थ से स्वर्णिम इतिहास रच डाला । इसी पीढ़ी में राजा अश्मक राजा मूलक व राजा अज के पुत्र राजा दशरथ ने कोसल-(अवध) पर शासन किया ।

प्राचीन श्रावस्ती
आधुनिकतम शोधों में भी यह स्पष्ट है कि वैदिक संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है। इस संस्कृति का विकास अरण्यों में बनी कुटियों, पर्णशालाओं व आश्रमों में हुआ था । हिमालय की कन्दराओं व गुफाओं में मानवी चेतना का महान परिष्कार व उत्थान हुआ था । युगों-युगों से जहाॅ ऋषियों-मुनियों ने अन्तर्नुसन्धान की अलख जगाई थी। उन्हीं के महान प्रताप-पुरूषार्थ से मानवी सभ्यता को महान गौरव-सौन्दर्य, सुख, शान्ति व परिपूर्णता हस्तगत हुई थी। सघन वन से आच्छादित, नदी निर्झरों से परिपूर्ण, प्राकृतिक सुषमा से सुआच्छादित यह पवित्रतम श्रावस्ती क्षेत्र आदिकाल से ही तप-ध्यान व अन्र्नुसन्धान के लिये सर्वथा अति उपयुक्त भूमि रही है। इस प्राकृतिक सुलभता से ही इस क्षेत्र में ऋषियों-महर्षियों का संवास रहा है। महाभारत काल में महर्षि अग्निवेष (आमोद) का आश्रम इसी हिमवत प्रदेश में था । आचार्य धौम्य व उनके शिष्य उपमन्यु का आश्रम भी यहीं था । श्वेतकेतु व महर्षि अष्यवक्र की तपोभूमि यह पवित्र शिवालिक-अरण्य रहा था । योग ऋषि पातंजलि, बाल्यऋषि नचिकेता, ऋषि च्यवन, ऋषि पाराशर व महर्षि वाल्मीकि इत्यादि की मनोरम तपोभूमि श्रावस्ती ही रही है।
पौराणिक काल से भारत वर्ष को महा जनपदों, प्रदेशों, प्रान्तों अथवा अन्तः प्रक्षेत्रों के रूप में, समयानुसार प्रशासनिक व राजनैतिक विभाजन अनेक बार हुआ है। प्राकृतिक धरातल की विषमता के अनुसार उदीप्य व दाक्षिणात्य मुख्य विभाजन है। उदीप्य भारत को आर्यावर्त के नाम से जाना जाता है। पूर्व-पश्चिम समुद्र से उत्तर हिमालय से व दक्षिणी विंध्य पर्वत श्रंृखला से पिरा सम्पूर्ण भू-भाग आर्यावर्त है। सम्पूर्ण आर्यावर्त निम्न पाॅच भागों में विभक्त था- (1) मध्य प्रदेश (2) उत्तरांचल (3) प्राच्य (4) दक्षिणावत (5) उपरांत (पश्चिमी भारत)। फाह्यान (चीनी यात्री) ने इसी को पंच भारत (थ्पअम प्दकपं) कहा है। मध्य देश भारत का हृदय-प्रदेश रहा है। आर्यो एवं बौद्धों के पुरूषार्थ का क्षेत्र मुख्यतः यही क्षेत्र था।
इतिहासकारों ने वायु पुराण को प्रमाणिक-प्राचीनतम ग्रन्थ माना है। इस पुराण में पंचभारत के विभिन्न प्रदेशों के जनपदों का भी परिगणन हुआ है। जिसके अनुसार काशी-कोशल महा जनपद पंचभारत के मध्य देश में स्थित था । जैसा कि उल्लेख है कि-
वत्साःकिसष्णाः र्कुन्वाश्च कुन्तलाः काशि-कोशलाः ।
मध्यदेशा जनपदा प्रायशोअमी प्रर्कीर्तिताः ।।" (वायु पु.प्.अ45)
महाराजा रामचन्द्र के द्वितीय पुत्र लव की राजधानी श्रावस्ती उत्तर-प्रदेश में स्थित थी।
उत्तरकोसला राज्यं लवस्य च महात्मनः ।
श्रावस्ती लोक विख्याता ............................ ।।"(वायु पु0 उत्त.अ-26-199)
अर्थात कोसल श्रावस्ती की प्राचीनता असंदिग्ध है। हिमालाय से गंगा-सरजू और गण्डकी नदी के मध्य स्थिल भू-भाग का प्राचीनतम नाम कोसल ही है। हिम-नद से पोषित अति-उर्बर सघन वन से युक्त यह विशाल उपत्य का क्षेत्र प्राकृतिक सुरक्षा व उत्तम पर्यावरण से परिपूर्ण विश्व में सर्वोच्चतम प्रदेश है। आचार्य पणिनि की अष्टाध्यायी में भी कोसल का विवरण है। पुराणों तथा बौद्ध ग्रन्थों में प्राचीन भारत के सोलह महा राज्यों में कोशल का स्थान प्रमुखता में वर्णित है। अंगुत्तर निकाय तथा विष्णु-पुराण के अनुसार प्राचीन काल में सम्पूर्ण भारत में निम्न सोलह महाजनपद थे-
1. कुरू ((मेरठ-दिल्ली-थानेश्वर) राजधानी-इंद्रप्रस्थ।
2. पांचाल (बरेली-बदायुं-फर्रूखाबाद) रा0-अहच्छत्र (फर्रूखाबाद)
3. शूरसेन (मथुरा का क्षेत्र/रा.-मथुरा।
4. वत्स (इलाहाबाद का क्षेत्र) रा.-कौशाम्बी-कोसम।
5. कोसल (सम्पूर्ण अवध क्षेत्र) रा.-श्रावस्ती/अयोध्या।
6. मल्ल (देवरिया का क्षेत्र ) रा.-कुशीनगर (कसय)।
7. काशी (वाराणसी क्षेत्र ) रा.-वाराणसी।
8. चेदि (बुंदेलखण्ड) रा.-शुक्तिमती (बाॅदा)।
9. मगध (दक्षिणी बिहार) रा.-गिरिब्रज (राजगिरि)
10. वज्जि (दरभंगा-मुजफ्फरपुर क्षेत्र) रा.-वैशाली
11. अंग (भागलपुर क्षेत्र) रा.-चंपा।
12. मत्स्य (जयपुर क्षेत्र) रा.-विराट नगर।
13. अश्मक (गोदावती-घाटी) रा.-पाण्ड्य।
14. अवंती (पश्चिमोत्तर भारत ) रा.-तक्षशिला ।
15. कर्बोज (कर्बोज क्षेत्र) रा.- राजापुर।
हिमालय की तराई से गंगा व विन्ध्य पर्वत की विशाल सीमा क्षेत्र में स्थित कोशल देश सूर्यवंशी सम्राटों के शौर्य से श्री-समृद्धि के उत्कर्ष को प्राप्त था । सम्पूर्ण काशी-कोशल राज्य, शासन सुविधा के लिये उत्तर-दिशा में विभाजित हुआ । उत्तरी भाग श्रावस्ती से व दक्षिणी भाग अयोध्या से शासित होता था । आचार्य पातंजलि की जन्म भूमि भी इसी क्षेत्र में थी । महाराजा रघु से लेकर श्री रामचन्द्र जी के शासन काल तक अयोध्या को प्रधान राजधानी व श्रावस्ती को द्वितीय राजधानी का गौरव प्राप्त था ।दशरथ पुत्र राजा राम इक्ष्वांक वंश में सर्वश्रेष्ठ युग प्रसिद्ध सम्राट हुए । महाराज रघु द्वारा गोवंश की वृद्धि विपुलता के लिये आरक्षित क्षेत्र गोनर्द (गोण्डा) तक, वन सम्पदा से परिपूर्ण विशाल भू-भाग राजाओं की रमणीक आखेट स्थली रही है। जब श्री रामचन्द्र जी के पुत्र लव उत्तर कोशल के राजा हुए तो उन्होंने श्रावस्ती को मुख्य राजधानी के रूप में विकसित किया । परवर्ती कालों में इसे चन्द्रिकापुरी अथवा चम्पकपुरी के नामों से भी अभिहित किया गया था ।
कोश से लालित अर्थात धन-धान्य से परिपूर्ण समृद्धि से इसका कोशल नाम सार्थक है। कोशल की जनभाषा कोसली या देसी, कही गयी । काल प्रवाह में साहित्यिक सौंदर्य से पूरित पालि-अवधी के नाम से गौरवान्वित हुइ।

बुद्धकालीन श्रावस्ती

प्रसेनजित
महाराजा लव के वंशज महाराज बृहदबल महाभारत संग्राम में मारे गये थे । पीछे इन्हीं सूर्यवंशी राजाओं की 27वीं पीढ़ी में राजा अरिनेमि ब्रहमादत्त के पुत्र प्रसेनजित, कोशल देश के राज्य सिंहासन पर बैठे । प्रसेनजित ब्राहमण धर्म के कट्टर अनुयायी थे । आश्रमों, गुरूकुलों की सेवा में उसेने सैकड़ों ग्राम लगा रखे थे । एक साला, इच्छानांगल, नगरविंद, मनसाहक, वेनागपुर, दंडकप्पक एवं वेणुद्धार विशुद्ध ब्राहमण ग्राम थे । जनुस्सोणि, तोदेटय, तारूक्ख, पोक्खरसादि, लोहिच्य एवं चकी सिद्ध-प्रसिद्ध आचार्य थे । भगवान बुद्ध के भव्य अध्यात्मिक प्रताप में क्रमशः सभी ब्राहमण बुद्ध की परम शरण मंे परम तृप्त हुए । राजा प्रसेनजित व तत्कालीन गणी-मानी ब्राहमणों-आचायों की लोकनाथ बुद्ध के प्रति अगाध श्रद्धा-भक्ति के अनुग्रह पूर्ण श्रद्धा-सुमन सम्पूर्ण त्रिपिटक में सुवासित है। कोसलाधीश प्रसेनजित की अग्रमहिषी महारानी मल्लिका देवी की भगवान बुद्ध के श्री चरणों में अनुराक्ति महान है। सुमंगल विलासिनी, व धम्मपय की अट्ठकथा के एक प्रसंग के अनुसार भिक्षु संघ को अत्याधिक राजकीय संरक्षण सुविधा व दान से, काल नामक एक मन्त्री अहमत था । इसे राजा प्रसेनजित ने मंत्री पद से हटा दिया था । महाराज प्रसेनजित त्रिरत्नों में अगाध श्रद्धा का यह एक प्रमाण है।
कुमार जेत प्रसेनजित की क्षत्रिय महारानी वर्णिका के पुत्र थे । शाक्यों की दासी पुत्री वासभ खतिया प्रसेनजित की पटरानी हुई । इससे उत्पन्न पुत्र विरूड्ढ़क ने युवराज कुमार जेत की हत्या कर दी । क्योंकि कुमार जेत विरूड्ढ़क द्वारा शाक्यों के विनाश की मंशा के विरूद्ध थे । प्रसेनजित ने विरूड्ढ़क को युवराज घोषित किया । एक दिन 80 वर्षीय वृद्ध राजा प्रसेनजित, शाक्य राज्य-मेदलुपं नामक स्थान पर ठहरे भगवान बुद्ध से मिलने हुए । पूर्व की भाॅति बुद्ध के सम्मान में अपना राजचिन्ह राज मुकुटवखड्ग महासेनापति दीर्घकारायण को सौंप दिया । दीर्घकारायण राजचिन्ह व सेना लेकर युवराज विरूड्ढ़क के पास चला गया । ये दोंनों राजा के प्रति बदले की भावना से ग्रस्थ थे । सेनापति के विरूड्ढ़क को राजा बना दिया । बुद्ध से मिलकर प्रसेनजित जब बाहर आये तो वस्तुस्थित समझकर मगध नरेश (भान्जा) अजात शत्रु के पास जाने के लिये पैदल चले । रास्ते में प्रतिकूल आहार से उल्टी-दस्त से पीडि़त हो गये । थके-हारे जब राजगृह पहुॅचे तो नगर द्वार बन्द हो चुका था । बाहर एक सराय में ठहरे, परन्तु रात्रि में ही उनकी मृत्यु हो गयी । प्रातः राजा अजात शत्रु ने सब समाचार जानकर, प्रसेनजित की राजकीय सम्मान के साथ अन्तिम-क्रिया व श्राद्ध तपर्ण किया । उधर विरूड्ढ़क चमत्कारिक (आकस्मिक बाढ़ के) जल-प्रवाह में मारा गया ।

कोषल साम्राज्य
प्रसेनजित के राज्यकाल में कोशल राज्य उत्तरी पहाडि़यों से लेकर दक्षिण में गंगा तट तक तथा पूर्व में गंडक नदी तक फैला हुआ था । श्रावस्ती का सम्पूर्ण विस्तार 300 योजन था । अट्ठकथाचार्य बुद्धघोष के अनुसार 80 हजार गाॅवों में बसे 57 हजार परिवारों से श्रावस्ती की जनसंख्या 18 करोड़ थी । कोशल साम्राज्य में निम्न गणराज्य थे-
1. कपिलवस्तु
यह शाक्यातें का देश था, इसमें सिद्धार्थ नगर, महराजगंज जिले से सटा नेपाल का तराई का लगा हुआ क्षेत्र था । ये शाक्य इक्ष्वाकु वंशी क्षत्रियों की एक शाखा में से थे । शाल वन को साफ कर बसने के कारण प्राकृतिक सुषमा से सुआच्छादित यह पवित्रतम श्रावस्ती क्षेत्र आदिकाल से ही तप-ध्यान व अन्तर्नुसन्धान के लिये सर्वथा अति उपयुक्त भूमि रही है। इस प्राकृतिक सुलभता से ही इस क्षेत्र में ऋषियों-महर्षियों का संवास रहा है। महाभारत काल में महर्षि अग्निवेष (आमोद) का आश्रम इसी हिमव्रत प्रदेश में था । आचार्य धौम्य व उनके शिष्य उपमन्यु का आश्रम भी यही था । श्वेतकेतु व महिर्ष अष्टावक्र की तपोभूमि यह पवित्र शिवालिक-अरण्य रहा था। योग ऋषि पातन्जलि बाल्यऋषि नचिकेता, ऋषि च्यवन, ऋषि पाराशर व महिर्ष बाल्मीकि इत्यादि की मनोरम तपोभूमि श्रावस्ती ही रही है।
पौराणिक काल से भारत वर्ष को महा जनपदों, प्रदेशों, प्रान्तों अथवा अन्तः प्रक्षेत्रों के रूप में, समयाुनसार प्रशासनिक व राजनैतिक विभाजन अनेक बार हुआ है। प्राकृतिक धरातल की विषमता के अनुसार उदीप्य व दाक्षिणात्य मुख्य विभाजन है। उदीप्य भारत को आर्यावर्त के नाम से जाना जाता है । पूर्व-पश्चिम समुद्र से उत्तर हिमालय से व दक्षिणी विंध्य पर्वत श्रंृखला से घिरा सम्पूर्ण भू-भाग आर्यावर्त है। सम्पूर्ण आर्यावर्त निम्न पाॅच भागों में विभक्त था- (1) मध्य प्रदेश (2) उत्तरांचल (3) प्राच्य (4) दक्षिणापथ (5) उपरांत (पश्चिमी भारत) । फाह्यान (चीनी यात्री) ने इसी को पन्च भारत (थ्पअम प्दकपं)कहा है। मध्य प्रदेश भारत का हृदय-प्रदेश रहा है। आर्यो एवं बौद्धों के पुरूषार्थ का क्षेत्र मुख्यतः यही क्षेत्र था ।
इतिहासकारों ने वायु पुराण को प्रमाणिक-प्राचीनतम ग्र्रन्थ माना है। इस पुराण में पंचभारत के विभिन्न प्रदेशों के जनपदों का भी परिगणन हुआ है। जिसके अनुसार काशी-कोशल महा जनपद पंचभारत के मध्य देश में स्थित था। जैसा कि उल्लेख है कि-
वत्साःकिसष्णाः र्कुन्वाश्च कुन्तलाः काशि-कोशलाः ।
मध्यदेशा जनपदा प्रायशोअमी प्रर्कीर्तिताः ।।" (वायु पु.प्.अ45)
महाराजा रामचन्द्र के द्वितीय पुत्र लव की राजधानी श्रावस्ती उत्तर-प्रदेश में स्थित थी ।
उत्तरकोसला राज्यं लवस्य च महात्मनः ।
श्रावस्ती लोक विख्याता ............................ ।।"(वायु पु0 उत्त.अ-26-199)
शाक्तय कहलाए। उस समय शुद्धोदन शाक्य कपिलवस्तु के राजा व सिद्धार्थ गौतम के पिता थे । पुरातत्व अन्वेषण में जिला सिद्धार्थ नगर से 25 किमी0 उत्तर दिशा में प्राचीन कपिलवस्तु की पहचान हो चुकी है। पुरातत्व विद डब्लू0सी0पेप्पे ने 1897-98 में यहीं स्तूप से अतिशय महत्वपूर्ण (बुद्ध) धातु मंजूषा प्राप्त की थी । सुत्र निपात में भगवान बुद्ध ने स्वयं को आदित्य वंशीय कोसलीय कहा है। ये शाक्य कोसल साम्राज्य के अधीन थे ।

2. कोलिय
यह राम ग्राम के कोलियों का गणराज्य शाक्य राज्य के दक्षिण पूर्व से सरजू नदी के तट तक फैला था । कोलिय मात्रपक्ष से नागवंशी क्षत्रिय व पितृपक्ष से शाक्य (सूर्यवंशी) क्षत्रिय थे । इनकी राजधानी राम ग्राम (रामगढ़ ताल-गोरखपुर) थी । कोल (कंकोल) वन को साफ कर बसने के कारण कोलिय कहलायें । शाक्यों-कोलियों में वंश शुद्धि के हेतु में उभय सम्बन्ध थे। रोहिणी नदी क ेजल उपभोग को लेकर युद्धोन्मत शाक्यों-कोलियों को बुद्ध भगवान ने स्वयं शान्त कराया था ।

3. मौर्य या मोरिय
ये शाक्य क्षत्रियों की शाखा थे । इनका राज्य कोलिय राजा के पूर्व में स्थित था । राजधानी पिप्पली वन (जिला महराजगंज में राजधानी नाम गाॅव) थी । यह क्षेत्र मोरों से भरा था । मांस खाने के लिये ये मोरों को पालते थे । इसी कारण ये सूर्यवंशी क्षत्रि मौर्य कहलायें।

4. मल्ल
ये लक्ष्मण के पुत्र चंद्रकेतु मल्ल के वंशज थे । मत्स्य भेद में प्रवीण होने से चन्द्रकेतु को मल्ल, की उपाधि श्री राम चन्द्र ने दी थी । मल्लों के दों गणराज्य थे। एक की राजधानी चन्द्रिकापुर (कुशीनगर) थी दूसरे की राजधानी पावा (अपापा नगरी) थी।

शिषु नागवंष का शासन
राजा प्रसेनजित के अवसान के बाद कोशल राज्य के बागडोर मगध नरेश अजातशत्रु (प्रसेनजित के भान्जे व राजा बिंबिसार के पुत्र) के हाथों चली गयी । 422 ई0 पूर्व तक यहाॅ का शासन मगध से, शिशुनाग वंशी राजा अजातशत्रु के वंशजों द्वारा चलता रहा ।
इस काल में श्रावस्ती अपने महान उत्कर्ष के शीर्ष पर थी । बौद्ध, जैन एवं ब्राहमण धर्मो का विकास समन्वित रूप से हुआ था । भारतीय दर्शन के सभी मों, वादों के पल्लवन का यही काल था ।
भगवान बुद्ध के श्रावस्ती पधारने के पूर्व जैनियों के अंतिम तीर्थकर भगवान महावीर के बहुत से मठ यहाॅ स्थापित हो चुके थे । जैन धर्म से कोषल नरेष प्रसेनजित भी प्रभावित थे। जैन ग्रन्थों में प्रसेनजित का नाम जितषत्रु नाम से वर्णित है। मज्झिम निकाय की एक अट्ठकथा के अनुसार लोगों द्वार यह पूछने पर कि 'किंभण्डं अत्थि, (क्या उपलब्ध है) तो उत्तर मिलता था कि 'सब्बं अत्थि, (सब कुछ मिलता है)। कला, साहित्य, षिल्प, षिक्षा, व्यापार, ज्ञान-विज्ञान के परम सौन्दर्य व पूर्ण वैभव को प्राप्त श्रावस्ती भगवान बुद्ध के प्रवास से धन्य हो गयी थी । यहाॅ से धर्म-अध्यात्म का सार्वभौमिक शाष्वत प्रवाह, दिगदिंगत को आलोकित कर रहा था।
महाऋद्धिमान भन्ते सीवली, मृदभाषी ऋद्धमान भन्ते लंकुट भद्दिय, अरण्य वासी भन्ते सुभूति कंुडधान, कविराज भन्ते वंगीस, देवप्रिय भन्ते पिलिन्द वात्स्य आदि महान भिक्षुवों की जन्म भूमि श्रावस्ती थी । दान षिरोमणि अनाथ पिण्डक, नालक पिता आदि की जन्म भूमि व मिगार माता विषाखा, सुप्रवासा, कृषा गौतमी, पटाचारा आदि की कर्म भूमि श्रावस्ती ही थी । इसके अतिरिक्त चारों दिषाओं से आने वाली जनता की भव-भयतारिणी, दुख-ताप विमोचनी श्री सद्धर्म रूपी गोमुख-गंगोत्री का स्रोत यह परम धाम श्रावस्ती, अपने दिव्यतम गौरव में प्रतिष्ठित हुआ ।
श्रावस्ती की सुव्यवस्थत राजकीय व्यापारिक महाविथियाॅ(राजपथ) उस समय के सभी जनपदों के महानगरों को जोड़तती थी । श्रावस्ती की भौतिक समृद्धि का रहस्य इसके अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में था । पाली साहित्य में श्रावस्ती से भी नगरों की दूरी दी गयी है । जिसमें श्रावस्ती से तक्षषिला 192 योजना, मच्छिकासंड-30योजन, उग्गनगर-12 योजन, चन्द्र भाग (चिनाब) नदी-120 योजन, साकेत-7 योजन, सकिंषा-30 योजन, राजगृह-45 योजन दूर थे । (एक योजन त्र 8 मील त्र4 कोस त्र14 कि0मी0 होता है)
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र बनी श्रावस्ती अब विष्वब्रहमाण्ड के लिये अमृत-लाभ का परम आश्रय बन गयी थी । चारों दिषाओं से आने वाले धर्म मुमुक्षुवों को आदित्यनाथ बुद्ध की शरण में परमषान्ति का सुलाभ सहज हो गया था । जहाॅ दिन में भगवान बुद्ध के साथ तत्वार्थियों का समागम होता था, वहीं रात्रि में देवतागण व ब्रहमलोक से ब्रम्हाजी भी देवातिदेव लोक गुरू तथागत बुद्ध के पास धर्म-लाभ व समागम के लिये आते थे । भगवान बुद्ध को श्रावस्ती बहुत प्रिय थी । यह तथ्य इसी स्पष्ट होता है कि जीवन के उत्तरार्ध के 25 वर्षावास(चार्तुमास) भगवान ने श्रावस्ती में ही पूर्ण किये थे । बुद्ध वाणी संग्रह त्रिपिटिक के अन्तर्गत 871 सुत्रों (धर्म-उपदेषों) को, भगवान बुद्ध ने श्रावस्ती प्रवास में ही दिये थे, जिसमें 844 उपदेषों को जेतवन-अनाथपिण्डक महाबिहार में व 23 सूत्रों को मिगार माता धर्म-प्रासाद-पूर्वाराम में उपदेषित किया था । शेष 4 सुत्र समीप के अन्य स्थानों पर दिये थे । महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन के अनुसार मज्झिन निकास के 150 सुत्रों में से 65 तथा संयुक्त व अंगुत्तर निकास के 3/4 से अधिक सुत्र जेतवन में भगवान द्वारा कहे गये थे । भिक्षुवों के अधिकांष षिक्षापदों का उपदेष जेतवन-पूर्वाराम में दिए गए थे । श्रावस्ती प्रवास में भगवान श्रावस्ती के समीपस्थ निम्न स्थानों पर जाया करते थे, जैस-इच्छानांगल, उवकट्ठा, उग्गनगर, उजुव्वा, ओपसाद, चंडलकप्प, दंडकप्प, नगरक, नगरविंद, नलकपान, पकंधा, मनसाकर, बेनागपुर, सललागारक सालवती, साला, वेणुद्वार, सूकरखेत, उत्तर नगर, तोदेय्य आदिप्रमुख ग्राम-नगर है। भगवान बुद्ध के महान आध्यात्मिक गौरव का केन्द्र बनी श्रावस्ती का सांस्कृतिक प्रवाह काल-प्रवाह में भयानक विध्वंसों के बाद वर्तमान में भी यथावत है।
नासौ मुनिर्यस्य मतं न भिन्नम्" अर्थात् जीवन-जगत के यथार्थ को जानने में लगे ऋषि, मुनि, योगी, ध्यानी, चिंतक अथवा दार्षनिक कभी एक मत नहीं को सके । इस मत भिन्नता को बुद्ध जैसा महान ज्ञानी भी नहीं समाप्त कर सका। इस प्रकार बुद्ध के समय भी नाना मतवाद लाक में श्रद्धा व मान्यता को प्राप्त थे। इसका प्रमाण बुद्ध-वाणी त्रिपिटक में बहुलता से है। जैसे कि-पूरण कास्यप, मक्खलि गोसाल,, अजित केसकबलं, पकुध कच्चायन, संजय बेलट्ठपुत्र, और निगठं नात पुत्र आदि प्रमुख धर्माचाय थे । कुछ ब्राहमण महासाल भी लोक श्रद्धा लाभी व प्रसिद्ध थे । जैसे कि 1- गणसाध्क के जानुस्सााि और तोदेय्य। 2- सालवती के लोहिच्च, 3- ओपसाद के चंकी, 4- श्रावस्ती के राज पुरोहित बावरी, 5- सेतव्या के राजन्य पायासि, 6- उक्कट्ठ के पोक्खरसादि आदि।
श्रावस्ती में जन्मे ब्राहमण कुलों में उत्पन्न प्रमुख भिक्षुवों में-वीर, पुण्णमास, बेलट्ठिसीस, सिंगाल पिता, कुण्डल, अजित, निग्रोध, सुगन्ध, हारित, अत्रिय, गहरतिय, पोसिय, सानु, माणव, समिति गुत्र, कस्सप, नीत, विजय, अभय, बेलट्ठकनि, तेल कनि, खित्तक, अधिमुक्त, महानाम, वल्लिय, सब्वमित्र, उपधान, उत्तरपाल, ध्म्मिक, सप्यक, कातियान, पासपरिय एवं आंगुलिमान (अहिंसक) आदि प्रमुख स्थविर ने बुद्ध शरणं में अपना परम पुरूषार्थ सिद्ध कर श्रावस्ती मात्रभूमि को गौरवान्वित किया था।
श्रावस्ती के श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न होकर प्रवज्जया लेने वालों में रामणेयक, सुदत्त, एरक, चक्खुपाल, सिरिम, संघरक्षित, एकुयानीय, आतुम, अज्जुन, चंदन, महाकाल, मुदित, गोदत्त, राजदत्त, मालुक्य पुत्र, मिगजात, जेत व ब्रम्हदत्त के नाम प्रमुख है इसी क्रम में हीन कुल से हस्तिपालक, विजयसेन, यषोज, सोपाक, सुप्पिय एवं कय्यर करू आदि ने बुद्ध शरणं में साधना करके परमपद अहत्र्व को प्राप्त किया था । अग्र श्राविकाओं में माता विषाखा, पटाचारा, उप्पलवर्णा, सोणा, नकुल माता, सुप्रवासा, किषागोतमी व सकुला आदि प्रमुख है।

मध्यकालीन श्रावस्ती

नंदवंष का शासन
अजात शत्रु का पुत्र एवं युवराज उदयभद्र ने अपने पिता को मारकर मगध के राज सिंहासन पर बैठा। उदय ने अपने राजधानी पाटलिपुत्र को बनाया । सिंहल ग्रन्थों के अनुसार उदय भद्र ने 16 वर्षो तक शासन किया ।
इनके वंषज अनुरूद्ध, मुड व नागदासक ने 32 वर्षो (443-411 ई0पू0) तक शासन किया । महावंस, नाम सिंहल ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि इस राज वंष में नागदासक तक सभी राजा पितृ हंता थे। अंततः प्रजा व अमात्यों ने मिल कर इस राजवंष का अन्त कर दिया । अमात्य षिषुनाग उस समय वाराणसी का शासक नियुक्त था। इस राज्य-विप्लव के परिणाम यही षिषुनाग मध की गद्दी पर बैठे । षिषु नाग वैषाली की नगर-षोभिनी (गणिका) से उत्पन्न एक लिच्क्षवी (क्षत्रिय राज्य) का पुत्र था। इसने अवंति के प्रद्योत वंष का नाष करके उत्तर भारत में मगध साम्राज्य का विस्तार किया । षिषुनाग ने 18 वर्षो (411-393 ई0पू0) तक शासन किया । इनके वंषज कालीषोक ने 28 वर्ष (365 दिन) तक शासन किया । इस वंष के अंतिम शासक नंदिवर्धन 347 ई0पी0 तक मगध के शासक रहे।
भारत के राजनीति पटल पर नंदावतरण, एक युगांतरी घटना है। आदिकाल से राजसत्ता का एकाधिकार अभिजात्य क्षत्रियों तक सीमित था । चैथी सदी ई0पी0 के मध्य में नामित कुमार (नाईपुत्र) उग्रसेन उपनाम महापद्यनंद ने षड़यन्त्र जनित राज्य-क्रान्ति द्वारा मगध के राज्य सिंहासन को हस्तगत कर लिया । इस प्रकार हीन कुलों के लिये राज-सत्ता का द्वार खुल गया ।
षिषुनाग वंष के पतन के बाद नन्दवंष ने मगध की गद्दी सम्भाली थी। इस वंष की आंठवी पीढ़ी में उत्पन्न राजा महापदमानन्द-धतनंद को आचार्य चाणक्य ने (322 ई0पू0) मरवाकर चन्द्रगुप्त मौर्य को मगध के राज्य सिंहासन पर बैठाया ।

मौर्य वंष का शासन
मोरों की बहुलता वाले पिप्पलिवन प्रदेष में निवास के कारण सूर्यवंषी इक्ष्वाकुओं की ही एक शाखा मोरिय अथवा मौर्य कहलायी । ये र्मार्य कोषलीय थे । इसी कुल से चन्द्रगुप्त मौर्य थे । इनके पुत्र बिन्दुसार 273 ई0पी0 तक शासक रहे तदन्तर इनके पुत्र सम्राट अषोक मगध के शासक हुए । बुद्ध धर्म में सुप्रतिष्ठित होकर चंड अषोक, देवानंप्रिय प्रियदर्षी सम्राट अषोक कहलाये। अपने धर्म पुरूषार्थ से अषोक ने भगवान बुद्ध की महान षिक्षाओं-सद्धर्म को चिरस्थाई करने के लिये बड़ा ही महान कार्य किया । युवराज कुणाल कामातुर रानी सौतेली माता तिष्यरक्षिता की कुटिलता का षिकार होकर अपनी सुंदर आंखे स्वयं फोड़ ली । अषोक ने अपने इस धार्मिष्ठ पुत्र को तब भी युवराज घोषित किया । साथ में श्रावस्ती का प्रांतमति (षासक) बनाया । सद्धर्म में अनुरक्त कुणाल पित्र आज्ञा से निर्लिप्त भाव से अपने सुयोग्य पुत्र संप्रति के द्वारा शासन चलाते रहे । सम्राट अषोक की मृत्यु के पश्चात् जलौक विद्रोह कर कष्मीर प्रदेष का स्वतन्त्र शाक बन बैठा । संप्रति विद्रोही के दमन हेतु उद्यत हुए परन्तु क्षमाषील पिता कुणाल ने इसकी अनुमति नहीं दी । कुणाल की सहिष्णुता से शक्तिषाली मगध साम्राज्य के विखंडन का यह दुखद प्रारम्भ था । आगे हसी वंष से सम्प्रति, दषरथ, शतधन्वा तथा वृहद्रथ मगध के शासक हुए । मौर्य वंष का कुल शासनकाल (182 ई0पू0 तक) 137 वर्षो का रहा । मगध से शासित श्रावस्ती की समृद्धि इस काल में सुविस्तारित हुई थी।

शुंग शासन
मौर्य वंष के अन्तिम सम्राट बृहद्रथ को (182 ई0पू0) सेनापति शुंगवंषी पुष्यमित्र ने मरवा कर स्वयं मगध का शासक बना । पुष्यमित्र ने मगध से हटकर अयोध्या को अपनी राजधानी बनायी थी ।
पुष्य मित्र शुंग ने 36 वर्ष (184 ई0पू0 से 148 ई0पू0) तक शासन किया । महा भाष्यकार पातंजलि व सम्राट मिनांडर (मिलिन्द) पुष्य मित्र के समकालीन थे । बौद्ध ग्रन्थों में पुष्यमित्र व पातंजलि को बौद्धों का द्रोही कहा गया है । दिव्यावदान के अनुसार उसने बौद्धों के बहुत सारे स्तूप ध्वस्त करा दिये थे । श्रमणों के एक सिर की कीमत 100 अषर्फियां लगा रखी थी, परन्तु सूक्ष्म विष्लेषण में पुण्यमित्र कीक धार्मिक नाीति सहिष्णु प्रतीत होती है। प्रसिद्ध भरहुत, सांची आदि स्तूपों का विस्तार शुंगकाल में ही हुआ था। पुष्यमित्र की आठ संताने एक साथ आठ प्रांतों का शासन करती थी । इनके वंषज अग्निमित्र, वसुज्येष्ठ, वसुमित्र, भद्रक, भद्घोष, बज्रमित्र, भागवत और देवभूमि हुए । इस वंष ने 112 वर्षो (184-72 ई0पू0) तक कोसल श्रावस्ती सहित उत्तर भारत पर शासन किया । अंतिम इनके वंषज अनुरूद्ध, मंुह व नागदासक ने 32 वर्षो (443-411 ई0पू0) तक शासन किया । महावंस, नामक सिंहल ग्रन्थ से ज्ञात होता है कि इस राजवंष में नागदासक तक सभी राजा पितृ हंता थे । अंततः प्रजा व अमात्यों ने मिल कर इस राजवंष का अन्त कर दिया । अमात्य षिषुनाग उस समय वाराणसी का शासक नियुक्त था । इस राज्य-विप्लव के परिणाम में यही षिषुनाग मगध की गद्दी पर बैठे। षिषु नाग वैषाली की नगर-षोभिनी (गणिका) से उत्पन्न एक लिच्क्षवी (क्षत्रिय राज्य) का पुत्र था । इसने अवंति के प्रद्योत वंष का नाष करके उत्तर भारत में मगध साम्राज्य का विस्तार किया । षिषुनाग ने 18 वर्षो (411-393 ई0पू0) तक शासन किया । इनके वंषज कालीषोक ने 28 वर्ष (365 दिन) तक शासन किया । इस वंष के अंतिम शासक नंदिवर्धन 347 ई0पी0 तक मगध के शासक रहे ।
भारत के राजनीति पटल पर नंदावतरण, एक युगांतरी घटना है। आदिकाल से राजसत्ता का एकाधिकार अभिजात्य क्षत्रियों तक सीमित था । चैथी सदी ई0पू0 के मध्य में नामित कुमार (नाईपुत्र) उग्रसेन उपनाम महापद्वनंद ने षड़यन्त्र जनित राज्य-क्रान्ति द्वारा मागध के राज्य सिंहासन को हस्तगत कर लिया । इस प्रकार हीन कुलों के लिये राज-सत्ता का द्वार खुल गया ।
शिषुनाग वंष के पतन के बाद नन्दवंष ने मगध की गद्दी सम्भाली थी। इस वंष की आंठवी पीढ़ी में उत्पन्न राजा महापदमानन्द-धतनंद को आचार्य चाणक्य ने (322 ई0पू0) मरवाकर चन्द्रगुप्त मौर्य को मगध के राज्य सिंहासन पर बैठाया ।

मौर्य वंष का शासन
मोरों की बहुलता वाले पिप्पलिवन प्रदेष में निवास के कारण सूर्यवंषी इक्ष्वाकुओं की ही एक शाखा मोरिय अथवा मौर्य कहलायी । ये र्मार्य कोषलीय थे । इसी कुल से चन्द्रगुप्त मौर्य थे । इनके पुत्र बिन्दुसार 273 ई0पी0 तक शासक रहे तदन्तर इनके पुत्र सम्राट अषोक मगध के शासक हुए । बुद्ध धर्म में सुप्रतिष्ठित होकर चंड अषोक, देवानंप्रिय प्रियदर्षी सम्राट अषोक कहलाये। अपने धर्म पुरूषार्थ से अषोक ने भगवान बुद्ध की महान षिक्षाओं-सद्धर्म को चिरस्थाई करने के लिये बड़ा ही महान कार्य किया । युवराज कुणाल कामातुर रानी सौतेली माता तिष्यरक्षिता की कुटिलता का षिकार होकर अपनी सुंदर आंखे स्वयं फोड़ ली । अषोक ने अपने इस धार्मिष्ठ पुत्र को तब भी युवराज घोषित किया । साथ में श्रावस्ती का प्रांतमति (षासक) बनाया । सद्धर्म में अनुरक्त कुणाल पित्र आज्ञा से निर्लिप्त भाव से अपने सुयोग्य पुत्र संप्रति के द्वारा शासन चलाते रहे । सम्राट अषोक की मृत्यु के पश्चात् जलौक विद्रोह कर कष्मीर प्रदेष का स्वतन्त्र शाक बन बैठा । संप्रति विद्रोही के दमन हेतु उद्यत हुए परन्तु क्षमाषील पिता कुणाल ने इसकी अनुमति नहीं दी । कुणाल की सहिष्णुता से शक्तिषाली मगध साम्राज्य के विखंडन का यह दुखद प्रारम्भ था । आगे हसी वंष से सम्प्रति, दषरथ, शतधन्वा तथा वृहद्रथ मगध के शासक हुए । मौर्य वंष का कुल शासनकाल (182 ई0पू0 तक) 137 वर्षो का रहा । मगध से शासित श्रावस्ती की समृद्धि इस काल में सुविस्तारित हुई थी।

शुंग शासन
मौर्य वंष के अन्तिम सम्राट बृहद्रथ को (182 ई0पू0) सेनापति शुंगवंषी पुष्यमित्र ने मरवा कर स्वयं मगध का शासक बना । पुष्यमित्र ने मगध से हटकर अयोध्या को अपनी राजधानी बनायी थी ।
पुष्य मित्र शुंग ने 36 वर्ष (184 ई0पू0 से 148 ई0पू0) तक शासन किया । महा भाष्यकार पातंजलि व सम्राट मिनांडर (मिलिन्द) पुष्य मित्र के समकालीन थे । बौद्ध ग्रन्थों में पुष्यमित्र व पातंजलि को बौद्धों का द्रोही कहा गया है । दिव्यावदान के अनुसार उसने बौद्धों के बहुत सारे स्तूप ध्वस्त करा दिये थे । श्रमणों के एक सिर की कीमत 100 अषर्फियां लगा रखी थी, परन्तु सूक्ष्म विष्लेषण में पुण्यमित्र कीक धार्मिक नाीति सहिष्णु प्रतीत होती है। प्रसिद्ध भरहुत, सांची आदि स्तूपों का विस्तार शुंगकाल में ही हुआ था। पुष्यमित्र की आठ संताने एक साथ आठ प्रांतों का शासन करती थी । इनके वंषज अग्निमित्र, वसुज्येष्ठ, वसुमित्र, भद्रक, भद्घोष, बज्रमित्र, भागवत और देवभूमि हुए । इस वंष ने 112 वर्षो (184-72 ई0पू0) तक कोसल श्रावस्ती सहित उत्तर भारत पर शासन किया । अंतिम सम्राट देवभूमि को उनके अमात्य वसुदेव ने उसकी दासी के पुत्रों के हाथों मरवा कर 27 ई0पू0 तक शासन किया । वसदेव वंषज ही कण्ववंषी कहलाये। उस समय ब्राहमण धर्म अपने पूर्ण प्राबल्य में प्रतिष्ठित हुआ ।

शक-कुषाणों का शासन
कुषाणों की विजय श्रंृखला में राजा कनिष्क साकेत (अयोध्या) के राजा हुए । शक मध्य एषिया के निवासी यायावर लोग थे । शकों के कबीलों में एक कुषाण भी थे । सदी ई0 तक ये मथुरा तक फैल गये थे । कुजुलकर कदफिसस ने भारत में कुषाण राजवंष की स्थापना की । इसी वंष में सुप्रसिद्ध सम्राट कनिष्क हुए थे । श्रावस्ती से 105 कुषाण मुद्राओं की एक निधि प्राप्त हुई थी । कनिष्क का राज्यकाल शक संवत 1 से 24 तक अर्थात 78 ई0 से 102 ई0 माना जाता है । कनिष्क बौद्ध धर्मावलम्बी था । कनिष्क के संरक्षण में ही कष्मीर में चतुर्थ धर्म संगीत हुई थी । इस प्रकार सम्राट कनिष्क ने बुद्ध-धर्म को पुर्नप्रतिष्ठा प्रदान की । इस वंष में वासिष्क, हुविष्क, कनिष्क द्वितीय एवं वासुदेव शासक हुए । इस वंष का शासन 180 ई0 तक चला । भगवान बुद्ध से लेकर विक्रमादित्य के शासन काल तक अयोध्या, साकेत के नाम से विख्यात हुई थी । क्रमषः नागंवषी शासन काल में शैव धर्म (षिव-पूजा) का प्रावल्य हुआ । बुद्ध धर्म का बहुत ही ह्रास हुआ । श्रावस्ती पूर्णतः उपेक्षित रही ।

गुप्त शासन
275 ई0 में गुप्त शासन के आगमन के साथ चन्द्रगुप्त प्रथम ने अपने पुत्र समुद्रगुप्त को उत्तराधिकारी बनाया । गुप्त शासन में वैदिक धर्म पुर्नप्रतिष्ठित हुआ । श्रावस्ती का पराभव तेज हो गया था ।
अनु गंगा प्रयागष्च साकेतं मगधस्ततः ।
एतान् जनपदान सर्वान भोक्ष्यन्ते गुप्तवंषजाः ।।"
अर्थात् चन्द्रगुप्त प्रथम के साम्राज्य में प्रयाग, कोसल एवं मगध सम्लित थे । समुद्रगुप्त ने सीमा विस्तार करते हुए समस्त आर्यावर्त तथा दक्षिण भारत अपने अधीन कर लिया था । इतिहासकारों ने समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन की उपाघिदी है। श्री विक्रम, अजित विक्रम या विक्रमादित्य गुप्त शासकों की शौर्य सूचक उपाधिया है। गुप्त शब्द वैष्य जाति का पर्याय नहीं है। मंजुश्री मूल कल्प के अनुसार गुप्त क्षत्रिय वंषज थे। श्री गुप्त इस वंष के प्रवर्तक हुए । चन्द्रगुन्त द्वितीय विक्रमादित्य विद्या एवं विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में महाकवि कालिदास नवरत्नों में थे । इसी काल में चीनी यात्री फाहयान ने भारत यात्रा की थी । गुप्तवंष में चन्द्रगुप्त तृतीय (495 ई0) अंतिम शासक हुए । हूण सम्राट तोरमाण ने चन्द्रगुप्त तृतीय को मारकार शासक बना । तदन्तर हूण शासक मिहिरकुल क्रूरतम शासक हुआ ।

हूण शासन
हूण मध्य एषिया की एक खानाबदोष बर्बर जाति थी । इनके भयंकर बर्बर आक्रमण से गुप्त साम्राज्य तहस-नहस हो गया । ये पष्चिम से भारत में प्रविष्ट हुए थे । मिहिर कुल के राज्यारोहण की तिथि 512 ई0 निष्चित की गयी है । यह तोरपाण का पुत्र था । इसी काल में चीनी यात्री हुएनत्सांग भारत आया था। मिहिर कुल ने साकल (स्यालकोट) को अपनी राजधानी बनायी थी । यह बड़ा ही निर्दयी और अत्याचारी शासक था। मिहिर कुल ने गांधार के 1600 से अधिक बौद्ध मठों को ध्वस्त करवा दिया । राजस्थान के वैराठ व रंगमहल के बौद्ध मठों को तुड़वा दिया । लाखों बौद्धों का कत्ल करवा दिया । हुएनसांग ने लिखा है कि वस्तुतः मिहिर कुल धर्म सहिष्णु था। वह बुद्ध धर्म को सीखना-समझना चाहता था । इसके लिये उसने भिक्षु संघ से योग्य आचार्य की मांग की, परन्तु धर्माचायों ने दंभ एवं मूर्खता का परिचय देते हुए एक नव प्रवज्जित (पूर्व राजसेवक) को मिहिर कुल के पास भेज दिया । इस अपमान से मिहिरकुल क्रुध होकर बुद्ध धर्म को समूल नष्ट कर देने का संकल्प ले लिया । इसने श्रावस्ती पर आक्रमण कर भयंकर विध्वंस व बौद्धों का नरसंहार किया था। मिहिर कुल के शासन में नरसिंह गुप्त प्रांतीय शासक थे । बौद्धों के क्रूरतम विनाष से तिलमिलाए नरसिंह गुप्त ने मिहिर कुल को श्रावस्ती युद्ध में परास्त कर बंदी बना लिया । नरसिंह गुप्त की माता ने मिहिरकुल को सांसारिक नष्वरता का व पुत्र को क्षमाषीलता का उपदेष देते हुए, मिहिरकुल को छुड़वा दिया । मिहिरकुल भागकर कष्मीर में शरण ली । इस विजय को चिरस्थाई बनाने के लिये नरसिंह गुप्त ने श्रावस्ती के पष्चिम एक रमणीक सरोवर के साथ भव्य बालार्क (सूर्य) मन्दिर की स्थापना किया । इसी के साथ तीर्थ यात्रियों के लिये सम्पूर्ण सुविधाएं दी गयी। यही कालान्तर में बालादित्य नगर व अब बहराइच जिला है। बालादित्य (उगता सूर्य) नरसिंह गुप्त की उपाधि थी । 606 ई0 में पुष्य भूति वंष के राजा हर्षवर्धन ने सत्ता संभाली । तब श्रावस्ती पुनः मुख्यालय बनी । इसका उल्लेख आचार्य दण्डीकृत दषकुमार चरित में हुआ है।

मौखरि वर्धन राजवंष का शासन
राजनैतिक विप्लव से मगध की केन्द्रीय शक्ति क्षीण हो गयी थी । इसका लाभ उठाते हुए सामंतों ने विद्रोह करके अपने को स्वतन्त्र कर लिया था । इसी में एक प्रतापी शासक हरिवर्मन हुआ । इसने 540 ई0 में कन्नौज को राजधानी बनाकर मौरवीर राज्य की स्थापना किया । ये सूर्यवंषी क्षत्रिय थे । इनके वंषज गृहवर्मन को परास्त कर क्षत्रिय वंषी थानेष्वर नरेष हर्षवर्धन ने कन्नौज को अपने अधीन कर लिया । 606 ई0 तक आते-आते महाप्रतापी सम्राट हर्षवर्धन समस्त आयावर्त व दक्षिण भारत के शासक हुए । हर्षवर्धन एक महान योद्धा व कुषल शासक था । हुएनत्सांग के लखों व आर्यमंजुश्री मूलकल्प, से इसकी पुष्टि होती है। महाकवि बाणभट्ठ समकालीन थे । माधुवन व बासखेड़ा से प्राप्त पुरातात्विक अभलेखों से हर्ष के कुषल शासन व वैभव युक्त विषाल साम्राज्य का प्रमाण मिलता है। इस समय श्रावस्ती भुक्ति (प्रांत) के रूप में गौरवान्वित हुई । तब श्रावस्ती प्रांतीय राजधानी बनी । सम्राट हर्षवर्धन ने कन्नौज को राजधानी बनायी । सन 647 ई0 तक शासन करते हुए सम्राट हर्षवर्धन मृत्यु को प्राप्त हुए । हर्षवर्धन की मृत्यु के पश्चात् सत्ता की शतरंज में उनका मंत्री अर्जुन सत्तसीन हुआ । अर्जुन को चीनी नेता बांग हवेनसी ने पराजित कर बंदी बना कर अपने साथ चीन ले गया । क्रमषः 713 ई0 में कन्नौज की गद्दी पर जहतलराय के पुत्र हरिचंदर (हरिष्चन्द्र) सत्तसीन हुए । इसने मुस्लिम आक्रांता मुहम्मद-बिन-कासिम को परास्त किया । मौखरियों, वर्मनों व वर्धन वंषजों का खण्डित-विच्छिन्न शासन 770 ई0 तक चलता रहा । सातवीं शताब्दी आते-आते पष्चिम में यवनों का आक्रमण तीव्रतम होता गया ।

आयुध वंषी शासन
घरेलू विद्रोह के परिणाम में, आयुध वंषी शासक बने । इनके बंषज ब्रजायुध, इ्रद्रायुध और चक्रायुध ने 810 ई0 तक शासन किया । गुर्जर प्रतिहार राजा नागभट्ट ने चक्रायुध को परास्त कर कन्नौज की राजगद्दी पर बैठे।

प्रतिहार वंषी शासन
ये प्रतिहार इक्ष्वाक कुलात्पन्न सूर्यवंषी क्षत्रिय थे । ये स्वयं को लक्ष्मण का बंषज कहते थे । गुर्जर शब्द गुजरात का पौराणिक नाम है। इस क्षेत्र का होने से ये गुर्जर प्रतिहार कहे गये । इस बंष के नागभद्द द्वितीय (800-833 ई0) लगभग सम्पूर्ण भारत के सम्राट हुए । इस बंष के महाप्रतापी राजा मिहिर भोज हुए । जिन्हें पृथ्वी उद्धारक आदि वाराह की उपाधि मिली थी । इस काल में श्रावस्ती एक मंडल के रूप में स्थापि हुई । इस बंष में महीपाल अंतिम शासक हुए । इस बंष का शासन काल 846 से 946 ई0 तक चला । सुल्तान मुहम्मद गजनी के आक्रमण (920 ई0) तक इस बंष का शासन था।

श्रावस्ती नरेष सुहेलदेव
प्रतिहार शासन की उत्तरोत्तर दुर्बलता के चलते लगभग सभी प्रान्त स्वतन्त्र हो गये थे । श्रावस्ती भुक्ति (प्रांत) का शासन उन दिनों वैस क्षत्रिय सुधन्वाध्वज के हाथ में था। इसी बंषावली में मोरध्वज के पुत्र सुहेलदेव 1050 ई0 में, श्रावस्ती पर प्रथम मुस्लिम आक्रांता सालार मसउद को कुटिला नी के तट पर युद्ध में परास्त कर दिया था। उसी सालार मसउद की मजार आज बहराइच में कायम है। इसका विवरण मिराते मसउदी में मिलता है। दिल्ली में यवन शासकों के अधिपत्य काल 1034 ई0 श्रावस्ती के पूर्ण स्वतन्त्र शासन राजा सुहेलदेव हुए । राजा सुहेलदेव सम्भव जैन धर्मानुयायी थे । श्रावस्ती राजधानी बनी । गोंडा, बहराइच,बस्ती, खीरी, सिद्धार्थनगर आदि के साथ षिवालिक पहाडि़यों तक श्रावस्ती का विस्तार था । सुहेलदेव के वंषजों ने लगभग दो सौ वर्षो 1073 ई0 तक निष्कंठक शासन किया । दिल्ली के तख्त पर गुलाम तुर्को का शासन सुदुर हो चुका था। इस काल में श्रावस्ती पर आक्रमण व लूटपाट बहुत बढ़ गयी थी । ऐसे में इसी राजवंष के महाराज हरीसिंह देव श्रावस्ती से पलायन कर नेपाल चले गये ।

श्रावस्ती पर गढ़वालों का शासन
पंजाब गवर्नर महमूद द्वारा कन्नौज व उज्जैन में भयंकर लूटपाट व तबाही मचाकर 1072 ई0 वापस लौटने के बाद सम्पूर्ण उत्तर भारत में राजनैतिक स्थित ध्वस्त हो चुकी थी । ऐसे में यषोविग्रह के पौत्र व महीचन्द्र के पुत्र सामंत चन्द्रदेव ने अपने बल पर कान्यकुब्ज प्रदेष पर 1085 ई0 में कब्जा कर लिया । चन्द्रदेव । 1089-1104 ई0) गढ़वालों की स्वतन्त्र सत्ता का संस्थापक हुआ । महाराज चन्द्रदेव ने 1072-73 ई0 में श्रावस्ती को विजित कर लिया । उस समय श्रावस्ती नरेष (सुहेलदेव के पौत्र) हरिसिंह देव दांगदून-तुलसीपुर (नेपाल) को अपनी राजधानी बनाकर रहने लगे थे । पूर्वजों द्वारा उप-राजधानी के रूप में प्रयुक्त यहाॅ सघन वन से घिरा एक सुदृढ़-सुरक्षित दुर्ग था। उन दिनों सम्पूर्ण उत्तर भारत तुर्को की बर्बर लूटपाट का बार-बार षिकार हो रहा था। इसी काल में दिल्ली सुल्तान इल्तुमिष का पुत्र नसीरूद्दीन बालादिक नगर (बहराइच) का सूबेदार नियुक्त हुआ । उसने भारी सेना के साथ श्रावस्ती पर आक्रमण करके भयंकर लूटपाट विध्वंस व रक्तपात किया । इसी बर्बर आक्रमण में श्रावस्ती के डेढ़ लाख नागरिक एक साथ काट डाले गये थे । इस आक्रमण के कुछ कालान्तर में अलाउद्दीन खिलजी ने क्रूर आक्रमण करके श्रावस्ती का पूर्ण विध्वंस कर दिया । महान वैभवषाली धर्म नगरी श्रावस्ती का अस्तित्व ही खो गया । मात्र खण्डहर अवषिष्ट रह गये थे । ऐसी अराजक-आरक्षित स्थिती का अंत करके महाराज चन्द्रदेव ने काषी-कोसल व इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली के समीप के क्षेत्रों) पर अपना शासन कायम कर लिया । बसही अभिलेख 1104 ई0 से इस तथ्य की पुष्टि होती है।
इसी वंषावली में सर्वसमर्थ-सम्राट गोविन्द चन्द्र हुए । अपने शासन काल 1110-456 ई0 में इन्होंने तुर्को को परास्त कर साम्राज्य को मजबूत विस्तार दिया । इन्हें भारत के सर्व प्रमुख सम्राट का गौरव प्राप्त हुआ । कन्नौज राजधानी के रूप में पुनः उत्कर्ष को प्राप्त हुई । सम्राट गोविन्द चन्द्र को सन् 1114 ई0 के पालि अभिलेख में नवराजगज की उपाधि दी गयी । सम्राट गोविन्द चन्द्र के राज्यकाल के बहुत से सोने व ताॅबे के सिक्के श्रावस्ती की खुदाई में प्राप्त हुए है। मुद्राओं पर श्रीमद गोविन्द चन्द्र लिखा है। एक भाग पर लक्ष्मी जी की मूर्ति व त्रिषूल उत्कीर्ण है। सम्राट गोविन्द चन्द्र के श्रावस्ती जनपद के 1129 ई0 के अभिलेख से ज्ञात होता है कि सम्राट ने जेतवन बिहार में रहने वाले भिक्षुवों की सेवा में छः गाॅव दान किया था। इन गाॅवों के नाम 1- बाड़ा चतुरासीति पतलीय बिहार, 2- पट्टण 3- उपलउंड़ा 4- बब्हायी, 5- मैयी संबद्ध घोसाड़ी एवं 6- पोठिवार संबद्ध प्यासी है। आज इन गाॅवों की पहचान होना अति कठिन है। उस समय भिक्षु संघ के प्रमुख भन्ते बुद्धरक्षित आचार्य थे। बुद्ध धर्म के प्रति गोविन्द चन्द्र बहुत ही श्रद्धा व गौरव रखते थे । इनकी दो रानियाॅ कुमार देवी व भीम देवी बुद्ध धर्मानुयायी थी ।
12वीं0 सदी में कन्नौज की महारानी कुमार देवी ने श्रावस्ती के कई बुद्ध बिहारों का पुर्ननिर्माण किया था । सन् 1258 ई0 में सुल्तान फिरोजषाह ने पाण्डववंषी जनवार क्षत्रिय बरियार शाह को गोण्डा-बहराइच क्षेत्र का शासक बना दिया । बरियार शाह ने अपनी गद्दी अकौना में बनायी थी । इसी पीढ़ी के माधव सिंह ने दिवंगत पुत्र बलराम सिंह के नाम बलरामपुर नामक नगर बसाया । इस क्रम में दिग्विजय सिंह अन्तिम शासक हुए । सन् 1552 ई0 में यह सम्पूर्ण क्षेत्र मुस्लिम शासन का एक ताल्लुका बना । इसके बाद सन 1800 ई0 तक श्रावस्ती अन्धकार में खोयी रही । 7 फरवरी 1856 में अवध का ब्रिटिष-भारत में विलय हो गया । चाल्र्स विंग्स फील्ड गोण्डा-बहराइच का प्रथम गर्वनर नियुक्त हुआ । भारत के स्वतन्त्र होने के पूर्व सन् 192 तक यह सम्पूर्ण क्षेत्र ब्रिटिष हुकूमत में दमित व शोषित होता रहा ।

 

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