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नामालूम-सी एक खता आचार्य चतुरसेन शास्त्री

नामालूम-सी एक खता आचार्य चतुरसेन शास्त्री

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'जी हाँ।
सलीमा की ऑंखों में ऑंसू भर आए। वह लौटकर मसनद पर गड गई और फूट-फूटकर रोने लगी। कुछ ठहरकर उसने एक खत लिखा :

'हुजूर! कुसूर माफ फर्मावें। दिनभर थकी होने से ऐसी बेसुध सो गई कि हुजूर के इस्तकबाल में हाजिर न रह सकी। और मेरी उस लौंडी को भी जाँ बख्शी की जाए। उसने हुजूर के दौलतखाने में लौट आने की इत्तला मुझे वाजिबी तौर पर न देकर बेशक भारी कुसूर किया है। मगर वह नई कमसिन, गरीब और दुखिया है।

- कनीज

सलीमा

चिट्ठी बादशाह के पास भेज दी गई। बादशाह ने आगे होकर कहा- लाई क्या है?

बांदी ने दस्तबस्ता अर्ज की- खुदावन्द! सलीमा बीबी की अर्जी है!

बादशाह ने गुस्से से होंठ चबाकर कहा- उससे कह दे कि मर जाए! इसके बाद खत में एक ठोकर मारकर उन्होंने उधर से मुँंह फेर लिया।

बांदी सलीमा के पास लौट आई। बादशाह का जवाब सुनकर सलीमा धरती पर बैठ गई। उसने बांदी को बाहर जाने का हुक्म दिया और दरवाजा बंद करके फूट-फूटकर रोई। घंटों बीत गए, दिन छिपने लगा। सलीमा ने कहा- हाय! बादशाहों की बेगम होना भी क्या बदनसीबी है। इंतजारी करते-करते ऑंखें फूट जाएँ, मिन्नतें करते-करते जबान घिस जाए, अदब करते-करते जिस्म टुकडे-टकडे हो जाए फिर भी इतनी सी बात पर कि मैं जरा सो गई, उनके आने पर जग न सकी, इतनी सजा! इतनी बेइज्जती! तब मैं बेगम क्या हुई? जीनत और बांदियाँ सुनेंगी तो क्या कहेंगी? इस बेइज्जती के बाद मुँह दिखाने लायक कहाँ रही? अब तो मरना ही ठीक है। अफसोस- मैं किसी गरीब किसान की औरत क्यों न हुई!

धीरे-धीरे स्त्रीत्व का तेज उसकी आत्मा में उदय हुआ। गर्व और दृढ प्रतिज्ञा के चिन्ह उसके नेत्रों में छा गए। वह साँपिन की तरह चपेट खाकर उठ खडी हुई। उसने एक और खत लिखा:

'दुनिया के मालिक!

आपकी बीवी और कनीज होने की वजह से मैं आपके हुक्म को मानकर मरती हूँ। इतनी बेइज्जती पाकर एक मलिका का मरना ही मुनासिब भी है। मगर इतने बडे बादशाह को औरतों को इस कदर नाचीज तो न समझना चाहिए कि एक अदनी-सी बेवकूफी की इतनी कडी सजा दी जाए। मेरा कुसूर सिर्फ इतना ही था कि मैं बेखबर सो गई थी। खैर, सिर्फ एक बार हुजूर को देखने की ख्वाहिश लेकर मरती हूँ। मैं उस पाक परवरदिगार के पास जाकर अर्ज करूँगी कि वह मेरे शौहर को सलामत रखे।

-सलीमा

खत को इत्र से सुवासित करके ताजे फूलों के एक गुलदस्ते में इस तरह रख दिया कि जिससे किसी कि उस पर फौरन ही नजर पड जाए। इसके बाद उसने जवाहरात की पेटी से एक बहुमूल्य ऍंगूठी निकाली और कुछ देर तक ऑंखें गडा-गडाकर उसे देखती रही। फिर उसे चाट गई।

बादशाह शाम की हवाखोरी को नजरबाग में टहल रहे थे। दो-तीन खोजे घबराए हुए आए और चिट्ठी पेश करके अर्ज की- हुजूर गजब हो गया! सलीमा बीबी ने जहर खा लिया है और वह मर रही हैं!

क्षण-भर में बादशाह ने खत पढ लिया। झपटे हुए सलीमा के महल पहुँचे। प्यारी दुलहिन सलीमा जमीन पर पडी है। ऑंखें ललाट पर चढ गई हैैं। रंग कोयले के समान हो गया है। बादशाह से न रहा गया। उन्होंने घबराकर कहा- हकीम, हकीम को बुलाओ! कई आदमी दौडे।

बादशाह का शब्द सुनकर सलीमा ने उसकी तरफ देखा और धीमे स्वर में कहा- जहे-किस्मत!

बादशाह ने नजदीक बैठकर कहा- सलीमा! बादशाह की बेगम होकर क्या तुम्हें यही लाजिम था?

सलीमा ने कष्ट से कहा- हुजूर! मेरा कुसूर बहुत मामूली था।

बादशाह ने कडे स्वर में कहा- बदनसीब! शाही जनानखाने में मर्द को भेष बदलकर रखना मामूली कुसूर समझती है? कानों पर यकीन कभी न करता, मगर ऑंखों-देखी को भी झूठ मान लूँ?

तडफकर सलीमा ने कहा- क्या?

बादशाह डरकर पीछे हट गए। उन्होंने कहा- सच कहो, इस वक्त तुम खुदा की राह पर हो, यह जवान कौन था?

सलीमा ने अचकचाकर पूछा- कौन जवान?

बादशाह ने गुस्से से कहा- जिसे तुमने साकी बनाकर पास रखा था।

सलीमा ने घबराकर कहा- हैं! क्या वह मर्द है?

बादशाह- तो क्या तुम सचमुच यह बात नहीं जानतीं?

सलीमा के मुँह से निकला- या खुदा!

फिर उसके नेत्रों से ऑंसू बहने लगे। वह सब मामला समझ गई। कुछ देर बाद बोली- खाविन्द! तब तो कुछ शिकायत ही नहीं; इस कुसूर को तो यही सजा मुनासिब थी। मेरी बदगुमानी माफ फर्माई जाए। मैं अल्लाह के नाम पर पडी कहती हूँ, मुझे इस बात का कुछ भी पता नहीं है।

बादशाह का गला भर आया। उन्होंने कहा- तो प्यारी सलीमा! तुम बेकुसूर ही चलीं? - बादशाह रोने लगे।

सलीमा ने उनका हाथ पकडकर अपनी छाती पर रखकर कहा- मालिक मेरे! जिसकी उम्मीद न थी, मरते वक्त वह मजा मिल गया। कहा-सुना माफ हो और एक अर्ज लौंडी की मंजूर हो।

बादशाह ने कहा- जल्दी कहो सलीमा!

सलीमा ने साहस से कहा- उस जवान को माफ कर देना।

इसके बाद सलीमा की ऑंखों से ऑंसू बह चले, और थोडी ही देर में वह ठंडी हो गई।!

बादशाह ने घुटनों के बल बैठकर उसका ललाट चूमा और फिर बालक की तरह रोने लगे।

गजब के ऍंधेरे और सर्दी में युवक भूखा-प्यासा पडा था। एकाएक घोर चीत्कार करके किवाड खुले। प्रकाश के साथ ही एक गंभीर शब्द तहखाने में भर गया- बदनसीब नौजवान! क्या होश-हवास में है?

युवक ने तीव्र स्वर में पूछा- कौन?

जवाब मिला- बादशाह।

युवक ने कुछ भी अदब किए बिना कहा- यह जगह बादशाहों के लायक नहीं है। क्यों तशरीफ लाए हैं?

'तुम्हारी कैफियत नहीं सुनी थी, उसे सुनने आया हूँ।

कुछ देर चुप रहकर युवक ने कहा- सिर्फ सलीमा को झूठी बदनामी से बचाने के लिए कैफियत देता हूँ। सुनिए : सलीमा जब बच्ची थी, मैं उसके बाप का नौकर था। तभी से मैं उसे प्यार करता था। सलीमा भी प्यार करती थी, पर वह बचपन का प्यार था। उम्र होने पर सलीमा पर्दे में रहने लगी और फिर वह शहंशाह की बेगम हुई। मगर मैं उसे भूल न सका। पाँच साल तक पागल की तरह भटकता रहा, अंत में भेष बदलकर बांदी की नौकरी कर ली। सिर्फ उसे देखते रहने और खिदमत करके दिन गुजारने का इरादा था। उस दिन उज्ज्वल चाँदनी, सुगंधित पुष्पराशि, शराब की उत्तेजना और एकांत ने मुझे बेबस कर दिया। उसके बाद मैंने ऑंचल से उसके मुख का पसीना पोंछा और मुँह चूम लिया। मैं इतना ही खतावार हूँ। सलीमा इसकी बाबद कुछ नहीं जानती।

बादशाह कुछ देर चुपचाप खडे रहे। इसके बाद वे बिना दरवाजा बंद किए ही धीरे-धीरे चले गए।

सलीमा की मृत्यु को दस दिन बीत गए। बादशाह सलीमा के कमरे में ही दिन-रात रहते हैैं। सामने नदी के उस पार पेडों के झुरमुट में सलीमा की सफेद कब्र बनी है। जिस खिडकी के पास सलीमा बैठी उस दिन-रात को बादशाह की प्रतीक्षा कर रही थी, उसी खिडकी में उसी चौकी पर बैठे हुए बादशाह उसी तरह सलीमा की कब्र दिन-रात देखा करते हैं। किसी को पास आने का हुक्म नहीं। जब आधी रात हो जाती है, तो उस गंभीर रात्रि के सन्नाटे में एक मर्मभेदिनी गीतध्वनि उठ खडी होती है। बादशाह साफ-साफ सुनते हैं, कोई करुण-कोमल स्वर में गा रहा है.. 'दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी...

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