सआदत हसन मंटो

ठंडा गोश्त

घाटे का सौदा

बू

खोल दो

फुंदने

करामात

हलाल और झटका

टोबा टेक सिंह

बेख़बरी का फ़ायदा

ख़बरदार

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मंटो की ज़िन्दगी

मंटो का जन्म 11 मई 1912 को पुश्तैनी बैरिस्टरों के परिवार में हुआ था, अपनी बयालीस साल, आठ महीने और सात दिन की ज़िंदगी में मंटो को लिखने के लिए सिर्फ़ 19 साल मिले और इन 19 सालों में उसने 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 ख़ाके (शब्द चित्र) और 70 लेख लिखे.

मैं क्या लिखता हूँ?

मैं क्यों लिखता हूँ? यह एक ऐसा सवाल है कि मैं क्यों खाता हूँ... मैं क्यों पीता हूँ... लेकिन इस दृष्टि से मुख़तलिफ है कि खाने और पीने पर मुझे रुपए खर्च करने पड़ते हैं और जब लिखता हूँ तो मुझे नकदी की सूरत में कुछ खर्च करना नहीं पड़ता.

पर जब गहराई में जाता हूँ तो पता चलता है कि यह बात ग़लत है इसलिए कि मैं रुपए के बलबूते पर ही लिखता हूँ.

अगर मुझे खाना-पीना न मिले तो ज़ाहिर है कि मेरे अंग इस हालत में नहीं होंगे कि मैं कलम हाथ में पकड़ सकूँ. हो सकता है, फ़ाकाकशी की हालत में दिमाग चलता रहे, मगर हाथ का चलना तो ज़रूरी है. हाथ न चले तो ज़बान ही चलनी चाहिए. यह कितनी बड़ी ट्रेजडी है कि इंसान खाए-पिए बग़ैर कुछ भी नहीं कर सकता.

लोग कला को इतना ऊँचा रूतबा देते हैं कि इसके झंडे सातवें असमान से मिला देते हैं. मगर क्या यह हक़ीक़त नहीं कि हर श्रेष्ठ और महान चीज़ एक सूखी रोटी की मोहताज है?

मैं लिखता हूँ इसलिए कि मुझे कुछ कहना होता है. मैं लिखता हूँ इसलिए कि मैं कुछ कमा सकूँ ताकि मैं कुछ कहने के काबिल हो सकूँ.

रोटी और कला का संबंध प्रगट रूप से अजीब-सा मालूम होता है, लेकिन क्या किया जाए कि ख़ुदाबंद ताला को यही मंज़ूर है. वह ख़ुद को हर चीज़ से निरपेक्ष कहता है-यह गलत है. वह निरपेक्ष हरगिज नहीं है. इसको इबादत चाहिए. और इबादत बड़ी ही नर्म और नाज़ुक रोटी है बल्कि यूँ कहिए, चुपड़ी हुई रोटी है जिससे वह अपना पेट भरता है.

मेरे पड़ोस में अगर कोई औरत हर रोज़ खाविंद से मार खाती है और फिर उसके जूते साफ़ करती है तो मेरे दिल में उसके लिए ज़र्रा बराबर हमदर्दी पैदा नहीं होती. लेकिन जब मेरे पड़ोस में कोई औरत अपने खाविंद से लड़कर और खुदकशी की धमकी देकर सिनेमा देखने चली जाती है और मैं खाविंद को दो घंटे सख़्त परेशानी की हालत में देखता हूँ तो मुझे दोनों से एक अजीब व ग़रीब क़िस्म की हमदर्दी पैदा हो जाती है.

किसी लड़के को लड़की से इश्क हो जाए तो मैं उसे ज़ुकाम के बराबर अहमियत नहीं देता, मगर वह लड़का मेरी तवज्जो को अपनी तरफ ज़रूर खींचेगा जो जाहिर करे कि उस पर सैकड़ो लड़कियाँ जान देती हैं लेकिन असल में वह मुहब्बत का इतना ही भूखा है कि जितना बंगाल का भूख से पीड़ित वाशिंदा. इस बज़ाहिर कामयाब आशिक की रंगीन बातों में जो ट्रेजडी सिसकियाँ भरती होगी, उसको मैं अपने दिल के कानों से सुनूंगा और दूसरों को सुनाऊंगा.

चक्की पीसने वाली औरत जो दिन भर काम करती है और रात को इत्मिनान से सो जाती है, मेरे अफ़सानों की हीरोइन नहीं हो सकती. मेरी हीरोइन चकले की एक टखयाई रंडी हो सकती है. जो रात को जागती है और दिन को सोते में कभी-कभी यह डरावना ख्वाब देखकर उठ बैठती है कि बुढ़ापा उसके दरवाज़े पर दस्तक देने आ रहा है. उसके भारी-भारी पपोटे, जिनमें वर्षों की उचटी हुई नींद जम गई है, मेरे अफ़सानों का मौजूँ (विषय) बन सकते हैं. उसकी गलाजत, उसकी बीमारियाँ, उसका चिड़चिड़ापन, उसकी गालियाँ-ये सब मुझे भाती हैं-मैं उसके मुताल्लिक लिखता हूँ और घरेलू औरतों की शस्ताकलामियों, उनकी सेहत और उनकी नफ़ासत पसंदी को नज़रअंदाज कर जाता हूँ.

सआदत हसन मंटो लिखता है इसलिए कि यह खुदा जितना बड़ा अफसाना साज और शायर नहीं, यह उसकी आजिजी जो उससे लिखवाती है.

मैं जानता हूँ कि मेरी शख्सियत बहुत बड़ी है और उर्दू साहित्य में मेरा बड़ा नाम है. अगर यह ख़ुशफ़हमी न हो तो ज़िदगी और भी मुश्किल बन जाए. पर मेरे लिए यह एक तल्ख़ हक़ीकत है कि अपने मुल्क में, जिसे पाकिस्तान कहते हैं, मैं अपना सही स्थान ढूंढ नहीं पाया हूँ. यही वजह है कि मेरी रूह बेचैन रहती है. मैं कभी पागलखाने में और कभी अस्पताल में रहता हूँ.

मुझसे पूछा जाता है कि मैं शराब से अपना पीछा क्यों नहीं छुड़ा लेता? मैं अपनी जिंदगी का तीन-चौथाई हिस्सा बदपरहेजियों की भेट चढ़ा चुका हूँ. अब तो यह हालत है- मैं कभी पागलखाने में और कभी अस्पताल में रहता हूँ.

मैं समझता हूँ कि जिंदगी अगर परहेज़ से गुजारी जाए तो एक क़ैद है. अगर वह बदपरहेजियों से गुज़ारी जाए तो भी एक क़ैद है. किसी न किसी तरह हमें इस जुराब के धागे का एक सिरा पकड़कर उधेड़ते जाना है और बस.

मैं अफ़साना क्यों कर लिखता हूँ?

मुझसे कहा गया है कि मैं यह बताऊँ कि मैं अफ़साना क्यों कर लिखता हूँ? यह 'क्यों कर' मेरी समझ में नहीं आया. 'क्यों कर' का अर्थ शब्दकोश में तो यह मिलता है - कैसे और किस तरह?

अब आपको क्या बताऊँ कि मैं अफ़साना क्योंकर लिखता हूँ. यह बड़ी उलझन की बात है. अगर में “किस तरह” को पेशनज़र रखूं को यह जवाब दे सकता हूँ कि अपने कमरे में सोफे पर बैठ जाता हूँ. कागज़-कलम पकड़ता हूँ और बिस्मिल्लाह करके अफ़साना लिखना शुरू कर देता हूँ. मेरी तीन बच्चियाँ शोर मचा रही होती हैं. मैं उनसे बातें भी करता हूँ. उनकी आपसी लड़ाइयों का फैसला भी करता हूँ, अपने लिए “सलाद” भी तैयार करता हूँ. अगर कोई मिलने वाला आ जाए तो उसकी खातिरदारी भी करता हूँ, मगर अफ़साना लिखे जाता हूँ.

अब 'कैसे' सवाल आए तो मैं कहूँगा कि मैं वैसे ही अफ़साने लिखता हूँ जिस तरह खाना खाता हूँ, गुसल करता हूँ, सिगरेट पीता हूँ और झक मारता हूँ.

अगर यह पूछा जाए कि मैं अफ़साना 'क्यों' लिखता हूँ तो इसका जवाब हाज़िर है.

मैं अफ़साना अव्वल तो इसलिए लिखता हूँ कि मुझे अफ़साना लिखने की शराब की तरह लत पड़ी हुई है.

मैं अफ़साना न लिखूं तो मुझे ऐसा महसूस होता है कि मैंने कपड़े नहीं पहने हैं या मैंने गुसल नहीं किया या मैंने शराब नहीं पी.

मैं अफ़साना नहीं लिखता, हकीकत यह है कि अफ़साना मुझे लिखता है. मैं बहुत कम पढ़ा लिखा आदमी हूँ. यूँ तो मैने 20 से ऊपर किताबें लिखी हैं, लेकिन मुझे कभी कभी हैरत होती है कि यह कौन है जिसने इस कदर अच्छे अफ़साने लिखे हैं, जिन पर आए दिन मुकद्दमे चलते रहते हैं.

जब कलम मेरे हाथ में न हो तो मैं सिर्फ़ सआदत हसन होता हूँ जिसे उर्दू आती है न फ़ारसी, न अंग्रेजी, न फ्रांसीसी.

अफ़साना मेरे दिमाग में नहीं, जेब में होता है जिसकी मुझे कोई ख़बर नहीं होती. मैं अपने दिमाग पर ज़ोर देता हूँ कि कोई अफ़साना निकल आए. कहानीकार बनने की भी बहुत कोशिश करता हूँ, सिगरेट फूंकता रहता हूँ मगर अफ़साना दिमाग से बाहर नहीं निकलता है. आख़िर थक-हार कर बाँझ औरत की तरह लेट जाता हूँ.

अनलिखे अफ़साने के दाम पेशगी वसूल कर चुका हूँ. इसलिए बड़ी कोफ़्त होती है. करवटें बदलता हूँ. उठकर अपनी चिड़ियों को दाने डालता हूँ. बच्चों का झूला झुलाता हूँ. घर का कूड़ा-करकट साफ़ करता हूँ. जूते, नन्हे मुन्हें जूते, जो घर में जहाँ-जहाँ बिखरे होते हैं, उठाकर एक जगह रखता हूँ. मगर कम्बख़्त अफ़साना जो मेरी जेब में पड़ा होता है मेरे ज़हन में नहीं उतरता-और मैं तिलमिलाता रहता हूँ.

जब बहुत ज़्यादा कोफ़्त होती है तो बाथरूम में चला जाता हूँ, मगर वहाँ से भी कुछ हासिल नहीं होता.

सुना हुआ है कि हर बड़ा आदमी गुसलखाने में सोचता है. मगर मुझे तजुर्बे से यह मालूम हुआ है कि मैं बड़ा आदमी नहीं, इसलिए कि मैं गुसलखाने में नहीं सोच सकता. लेकिन हैरत है कि फिर भी मैं हिंदुस्तान और पाकिस्तान का बहुत बड़ा कहानीकार हूँ.

मैं यही कह सकता हूँ कि या तो यह मेरे आलोचकों की खुशफ़हमी है या मैं उनकी आँखों में धूल झोंक रहा हूँ. उन पर कोई जादू कर रहा हूँ.

माफ़ कीजिएगा, मैं गुसलखाने में चला गया. किस्सा यह है कि मैं खुदा को हाज़िर-नाज़िर रखकर कहता हूँ कि मुझे इस बारे में कोई इल्म नहीं कि मैं अफसाना क्यों कर लिखता हूँ और कैसे लिखता हूँ.

अक्सर ऐसा हुआ है कि जब मैं लाचार हो गया हूँ तो मेरी बीवी, जो संभव है यहाँ मौजूद है, आई उसने मुझसे यह कहा है, “आप सोचिए नहीं, कलम उठाइए और लिखना शुरू कर दीजिए.”

मैं इसके कहने पर कलम या पैंसिल उठाता हूँ और लिखना शुरू कर देता हूँ- दिमाग बिल्कुल ख़ाली होता है लेकिन जेब भरी होती है, खुद-ब-खुद कोई अफसाना उछलकर बाहर आ जाता है.

मैं खुद को इस दृष्टि से कहानीकार, नहीं, जेबकतरा समझता हूँ जो अपनी जेब खुद ही काटता है और आपके हवाले कर देता हूँ-मुझ जैसा भी बेवकूफ़ दुनिया में कोई और होगा?

बैरिस्टर के बेटे से लेखक होने तक

मंटो का जन्म 11 मई 1912 को पुश्तैनी बैरिस्टरों के परिवार में हुआ था.

उसके वालिद खुद एक नामी बैरिस्टर और सेशंस जज थे. और माँ? सुनिए बक़लम मंटो “उसके वालिद, ख़ुदा उन्हें बख़्शे, बड़े सख़्तगीर थे और उसकी वालिदा बेहद नर्म दिल. इन दो पाटों के अंदर पिसकर यह दाना-ए-गुंदम किस शक्ल में बाहर आया होगा, इसका अंदाज़ा आप कर सकते हैं.”

बचपन से ही मंटो बहुत ज़हीन था, मगर शरारती भी कम नहीं था, जिसके चलते एंट्रेंस इम्तहान उसने दो बार फेल होने के बाद पास किया. इसकी एक वजह उसका उर्दू में कमज़ोर होना भी था.

उन्हीं दिनों के आसपास उसने तीन-चार दोस्तों के साथ मिलकर एक ड्रामेटिक क्लब खोला था और आग़ा हश्र का एक ड्रामा स्टेज करने का इरादा किया था. “यह क्लब सिर्फ़ 15-20 रोज़ क़ायम रह सका था, इसलिए कि वालिद साहब ने एक रोज़ धावा बोलकर हारमोनियम और तबले सब तोड़-फोड़ दिए थे और वाज़े अल्फ़ाज़ में बता दिया था कि ऐसे वाहियात शग़ल उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं.”

एंट्रेंस तक की पढ़ाई उसने अमृतसर के मुस्लिम हाईस्कूल में की थी. 1931 में उसने हिंदू सभा कॉलेज में दाख़िला लिया. उन दिनों पूरे देश में और ख़ासतौर पर अमृतसर में आज़ादी का आंदोलन पूरे उभार पर था. जलियांवाला बाग़ का नरसंहार 1919 में हो चुका था जब मंटो की उम्र कुल सात साल की थी, लेकिन उस के बाल मन पर उसकी गहरी छाप थी.

पहला अफ़साना

क्रांतिकारी गतिविधियां बराबर जल रही थीं और गली-गली में “इंक़लाब ज़िदाबाद” के नारे सुनाई पड़ते थे. दूसरे नौजवानों की तरह मंटो भी चाहता था कि जुलूसों और जलसों में बढ़ चढ़कर हिस्सा ले और नारे लगाए, लेकिन वालिद की सख़्तीगीरी के सामने वह मन मसोसकर रह जाता.

आख़िरकार उसका यह रुझान अदब से मुख़ातिब हो गया. उसने पहला अफ़साना लिखा “तमाशा”, जिसमें जलियाँवाला नरसंहार को एक सात साल के बच्चे की नज़र से देखा गया है. इसके बाद कुछ और अफ़साने भी उसने क्रांतिकारी गतिविधियों के असर में लिखे.

1932 में मंटो के वालिद का देहांत हो गया. भगत सिंह को उससे पहले फाँसी दी जा चुकी थी. मंटो ने अपने कमरे में वालिद के फ़ोटो के नीचे भगत सिंह की मूर्ति रखी और कमरे के बाहर एक तख़्ती पर लिखा-“लाल कमरा.”

ज़ाहिर है कि रूसी साम्यवादी साहित्य में उसकी दिलचस्पी बढ़ रही थी. इन्हीं दिनों उसकी मुलाक़ात अब्दुल बारी नाम के एक पत्रकार से हुई, जिसने उसे रूसी साहित्य के साथ-साथ फ्रांसीसी साहित्य भी पढ़ने के लिए प्रेरित किया और उसने विक्टर ह्यूगो, लॉर्ड लिटन, गोर्की, चेखव, पुश्किन, ऑस्कर वाइल्ड, मोपासां आदि का अध्ययन किया.

अब्दुल बारी की प्रेरणा पर ही उसने विक्टर ह्यूगो के एक ड्रामे “द लास्ट डेज़ ऑफ़ ए कंडेम्ड” का उर्दू में तर्ज़ुमा किया, जो “सरगुज़श्त-ए-असीर” शीर्षक से लाहौर से प्रकाशित हुआ.

यह ड्रामा ह्यूगो ने मृत्युदंड के विरोध में लिखा था, जिसका तर्जुमा करते हुए मंटो ने महसूस किया कि इसमें जो बात कही गई है वह उसके दिल के बहुत क़रीब है. अगर मंटो के अफ़सानों को ध्यान से पढ़ा जाए, तो यह समझना मुश्किल नहीं होगा कि इस ड्रामे ने उसके रचनाकर्म को कितना प्रभावित किया था.

विक्टर ह्यूगो के इस तर्जुमे के बाद मंटो ने ऑस्कर वाइल्ड से ड्रामे “वेरा” का तर्जुमा शुरू किया.

इस ड्रामे की पृष्ठभूमि 1905 का रूस है और इसमें ज़ार की क्रूरताओं के ख़िलाफ़ वहाँ के नौजवानों का विद्रोह ओजपूर्ण भाषा में अंकित किया गया है. इस ड्रामे का मंटो और उसके साथियों के दिलों-दिमाग पर ऐसा असर हुआ कि उन्हें अमृतसर की हर गली में मॉस्को दिखाई देने लगा.

दो ड्रामों का अनुवाद कर लेने के बाद मंटो ने अब्दुल बारी के ही कहने पर रूसी कहानियों का एक संकलन तैयार किया और उन्हें उर्दू में रूपांतरित करके “रूसी अफ़साने” शीर्षक से प्रकाशित करवाया.

इन तमाम अनुवादों और फ्राँसीसी तथा रूसी साहित्य के अध्ययन से मंटो के मन में कुछ मौलिक लिखने की कुलबुलाहट होने लगी, तो उसने पहला अफ़साना लिखा “तमाशा”, जिसका ज़िक्र ऊपर हो चुका है.

सुकून की तलाश और रचना

इधर मंटो की ये साहित्यिक गतिविधियाँ चल रही थीं और उधर उसके दिल में आगे पढ़ने की ख़्वाहिश पैदा हो गई. आख़िर फरवरी 1934 को 22 साल की उम्र में उसने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में दाख़िला लिया. यह यूनिवर्सिटी उन दिनों प्रगतिशील मुस्लिम नौजवानों का गढ़ बनी हुई थी.

अली सरदार जाफ़री से मंटो की मुलाक़ात यहीं हुई और यहाँ के माहौल ने उसके मन में कुलबुलाती रचनात्मकता को उकसाया. उसने अफ़साने लिखने शुरू कर दिए. “तमाशा” के बाद दूसरा अफ़साना उसने “इनक़िलाब पसंद” नाम से यहाँ आकर ही लिखा, जो अलीगढ़ मैगज़ीन में प्रकाशित हुआ.

यह मार्च 1935 की बात है. फिर तो सिलसिला शुरू हो गया और 1936 में मंटो का पहला मौलिक उर्दू कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ, शीर्षक था “आतिशपारे”.

अलीगढ़ में सारी दिलचस्पियों के बावजूद मंटो वहाँ अधिक नहीं ठहर सका और एक साल पूरा होने से पहले ही अमृतसर लौट गया.

वहाँ से वह लाहौर चला गया, जहाँ उसने कुछ दिन “पारस” नाम के एक अख़बार में काम किया और कुछ दिन के लिए “मुसव्विर” नामक साप्ताहिक का संपादन किया.

मगर उसे वहाँ सुकून नाम की कोई चीज़ मयस्सर नहीं हुई और थोड़े ही दिनों में लाहौर को अलविदा कहकर वह बंबई पहुँच गया. चार साल बंबई में बिताए और कुछ पत्रिकाओं का संपादन तथा फ़िल्मों के लिए लेखन करता रहा.

जनवरी 1941 में दिल्ली आकर ऑल इंडिया रेडियो में काम करना शुरु किया.यहाँ मंटो सिर्फ़ 17 महीने रहा, लेकिन यह अर्सा उसकी रचनात्मकता का स्वर्णकाल था.

इस दौरान उसके रेडियो-नाटकों के चार संग्रह प्रकाशित हुए “आओ...”, “मंटो के ड्रामे”, “जनाज़े” तथा “तीन औरतें”. उसके विवादास्पद अफ़सानों का मजमूआ “धुआँ” और समसामियक विषयों पर लिखे गए लेखों का संग्रह “मंटो के मज़ामीन” भी दिल्ली-प्रवास के दौरान ही प्रकाशित हुए. मगर उसकी बेचैन रूह फिर उसे मुंबई खींच ले गई.

जुलाई 1942 के आसपास मंटो मुंबई आया और जनवरी 1948 तक वहाँ रहा. फिर वह पाकिस्तान चला गया. मुंबई के इस दूसरे प्रवास में उसका एक बहुत महत्वपूर्ण संग्रह “चुग़द” प्रकाशित हुआ, जिसमें “चुग़द” के अलावा उसका एक बेहद चर्चित अफ़साना “बाबू गोपीनाथ” भी शामिल था.

पाकिस्तान जाने के बाद उसके 14 कहानी संग्रह प्रकाशित हुए, जिनमें 161 अफ़साने संग्रहीत थे. इन अफ़साने में “सियाह हाशिए”, “नंगी आवाज़ें”, “लाइसेंस”, “खोल दो”, “टेटवाल का कुत्ता”, “मम्मी”, “टोबा टेक सिंह”, “फुंदने”, “बिजली पहलवान”, “बू”, “ठंडा गोश्त”, “काली शलवार” और “हतक” जैसे तमाम चर्चित अफ़साने शामिल हैं.

मुंबई के अपने पहले और दूसरे प्रवास में मंटो ने साहित्यिक लेखन के अलावा फ़िल्मी पत्रकारिता की और फ़िल्मों के लिए कहानियाँ व पटकथाएँ लिखीं, जिनमें “अपनी नगरिया”, “आठ दिन” व “मिर्ज़ा ग़ालिब” ख़ास तौर पर चर्चित रहीं.

के आसिफ़ ने जब पहले-पहल अनारकली के थीम पर फ़िल्म बनाने का फ़ैसला किया, तो मंटो ने आसिफ़ के साथ मिलकर उसकी कहानी पर काफ़ी मेहनत की थी, लेकिन उस वक़्त फ़िल्म पर किन्हीं कारणों से काम आगे नहीं बढ़ सका था. बाद में जब उसी थीम पर “मुग़ले-आज़म” के नाम से काम शुरू हुआ, तो मंटो लाहौर जा चुका था.

यह एक इत्तेफ़ाक ही है कि 18 जनवरी 1955 को जब लाहौर में मंटो का इंतकाल हुआ, तो उसकी लिखी हुई फ़िल्म “मिर्ज़ा ग़ालिब” दिल्ली में हाउसफुल जा रही थी.

मुक़दमे

मंटो का जन्म 11 मई 1912 को पुश्तैनी बैरिस्टरों के परिवार में हुआ था, अपनी बयालीस साल, आठ महीने और सात दिन की ज़िंदगी में मंटो को लिखने के लिए सिर्फ़ 19 साल मिले और इन 19 सालों में उसने 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 ख़ाके (शब्द चित्र) और 70 लेख लिखे.

लेकिन रचनाओं की यह गिनती शायद उतनी महत्वपूर्ण नहीं है, जितनी महत्वपूर्ण यह बात है कि उसने 50 बरस पहले जो कुछ लिखा, उसमें आज की हक़ीक़त सिमटी हुई नज़र आती है और यह हक़ीक़त को उसने ऐसी तल्ख़ ज़ुबान में पेश किया कि समाज के अलंबरदारों की नींद हराम हो गई.

नतीज़तन उसकी पांच कहानियों पर मुक़दमे चले, जिनके क्रमवार शीर्षक हैं, “काली शलवार”, “धुआँ”, “बू”, “ठंडा गोश्त” और “ऊपर, नीचे और दरमियाँ”. इन मुक़दमों के दौरान मंटो की ज़िल्लत उठानी पड़ी.

अदालतों के चक्कर लगाने में उसका “भुरकस निकल गया.”, लेकिन उसे अपने किए पर कोई पछतावा नहीं रहा.

सआदत हसन मंटो की कहानियों की जितनी चर्चा बीते दशक में हुई है उतनी शायद उर्दू और हिंदी और शायद दुनिया के दूसरी भाषाओं के कहानीकारों की कम ही हुई है.

चेख़व के बाद मंटो ही थे जिन्होंने अपनी कहानियों के दम पर अपनी जगह बना ली यानी उन्होंने कोई उपन्यास नहीं लिखा.

अपनी कहानियों में विभाजन, दंगों और सांप्रदायिकता पर जितने तीखे कटाक्ष मंटो ने किए उसे देखकर एक ओर तो आश्चर्य होता है कि कोई कहानीकार इतना साहसी और सच को सामने लाने के लिए इतना निर्मम भी हो सकता है लेकिन दूसरी ओर यह तथ्य भी चकित करता है कि अपनी इस कोशिश में मानवीय संवेदनाओं का सूत्र लेखक के हाथों से एक क्षण के लिए भी नहीं छूटता.

 

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