सआदत हसन मंटो की कहानी

फुंदने

 

कोठी से मुलहका (मिला हुआ) वसीअ-ओ-अरीज (लंबा-चौडा) बाग में झाडियों के पीछे एक बिल्ली ने बच्चे दिए थे जो बिल्ला खा गया था। फिर एक कुतियां ने बच्चे दिए थे जो बडे हो गए और दिन-रात कोठी के अंदर भौंकते और गंदगी बिखेरते रहते थे। उनको जहर दे दिया गया था... एक-एक करके सब मर गए थे, उनकी मां भी... उनका बाप मालूम नहीं कहां था, वो होता तो उसकी मौत भी यकीनी थी।


जाने कितने बरस गुजर चुके थे... कोठी से मुलहका बाग की झाडियां सैकडों, हजारों मर्तबा कतरब्यौंती, काटी-छांटी जा चुकी थीं। कई बिल्लियों और कुत्तों ने उनके पीछे बच्चे दिए थे जिनका नाम-ओ-निशान भी न रहा था... उसकी अक्सर बदआदत (बुरी आदत) मुर्गियां वहां अंडे दे दिया करती थीं जिनको हर सुबह उठाकर वो ले जाती थीं।


उसी बाग में किसी आदमी ने उनकी नौजवान मुलाजिमा (नौकरानी) को बडी बेदर्दी से कत्ल कर दिया था... उसके गले में उसका फुंदनों वाला सुर्ख रेशमी इजारबंद जो उसने दो रोज पहले फेरी वाले से आठ आने में खरीदा था फंसा हुआ था। इस जोर से कातिल ने पेच दिए थे कि उसकी आंखें बाहर निकल आई थीं।


उसको देखकर उसको इतना तेज बुखार चढा था कि बेहोश हो गई थी... और शायद अभी तक बेहोश थी, लेकिन नहीं ऐसा क्यों कर हो सकता था इसलिए कि इस कत्ल के देर बाद मुर्गियों ने अंडे नहीं बिल्लियों ने बच्चे दिए थे और एक शादी हुई थी। कुतिया थी जिसके गले में लाल दुपट्टा था, मुकैशी... झिलमिल करता। उसकी आंखें बाहर निकली हुई नहीं थी, अंदर धंसी हुई थीं।


बाग में बैंड बजा था... सुर्ख वर्दियों वाले सिपाही आए थे जो रंग-बिरंगी मशकें बगलों में दबाकर मुंह से अजीब-अजीब आवाजें निकालते थे। उनकी वर्दियों के साथ कई फुंदने लगे थे जिन्हें उठा-उठाकर लोग अपने इजारबंदों में लगाते जाते थे... पर जब सुबह हुई थी तो उनका नाम-ओ-निशान तक नहीं था... सबको जहर दे दिया था।


दुल्हन को जाने क्या सूझी कमबख्त ने झाडियों के पीछे नहीं अपने बिस्तर पर सिर्फ एक बच्चा दिया ... जो बडा गुलगुथना था। उसकी मां मर गई थी... बाप भी ... दोनों को बच्चे ने मारा... उसका बाप मालूम नहीं कहां था। वो होता तो उसकी मौत भी इन दोनों के साथ होती।
सुर्ख वर्दियों वाले सिपाही बडे-बडे फुंदने लटकाए जाने कहां गायब हुए कि फिर न आए। बाग में बिल्ले घूमते थे जो उसे ढूंढते थे, उसको छिछडों की भरी हुई टोकरी समझते थे हालांकि टोकरी में नारंगियां थीं।


एक दिन उसने अपनी दो नारंगियां निकाल के सामने रख दीं। उसके पीछे हो के उसने उनको देखा, मगर नजर न आईं उसने सोचा उसकी वजह ये है कि छोटी हैं। मगर वो उसके सोचते-सोचते ही बडी हो गई और उसने रेशमी कपडे में लपेटकर आतिशदान पर रख दीं।
अब कुत्ते भौंकने लगे... नारंगियां फर्श पर लुढकने लगीं... कोठी के हर फर्श पर उछलीं, हर कमरे में कूदीं, और उछलती-कूदती बडे-बडे बागों में भागने-दौडने लगीं... कुत्ते उनसे खेलते और आपस में लडते-झगडते रहते। जाने क्या हुआ। इन कुत्तों में दो जहर खा के मर गए जो बाकी बचे वो उनकी अधेड-उम्र की हट्टी-कट्टी मुलाजिमा खा गई।


ये उस नौजवान की जगह आई थी जिसको किसी आदमी ने कत्ल कर दिया था, गले में उसके फुंदनोंवाले इजारबंद का फंदा डालकर।
उसकी मां थी। अधेड उम्र की मुलाजिमा से उम्र में छह-सात बरस बडी। उसकी तरह हट्टी-कट्टी नहीं थी। हर रोज सुबह-शाम मोटर में सैर को जाती थी और बदआदत मुर्गियों की तरह दूर-दराज बागों में झाडियों के पीछे अंडे देती थी। उनको वो खुद उठाकर लाती थी न ड्राइवर।
आमलेट बनाती थी जिसके दाग कपडों पर पड जाते थे। सूख जाते तो उनको बाग में झाडियों के पीछे फेंक देती थी जहां से चीलें उठाकर ले जाती थी।


एक दिन उसकी सहेली आई... पाकिस्तान मेल मोटर नम्बर पी.एल. 9612 । बडी गर्मी थी। डैडी पहाड पर थे, मम्मी सैर करने गई हुई थी... पसीने छूट रहे थे। उसने कमरे में दाखिल होते ही अपनी ब्लाउज उतारी और पंखे के नीचे खडी हो गई। उसके दूध उबले हुए थे जो आहिस्ता-आहिस्ता ठंडे हो गए। उसके दूध ठंडे थे जो आहिस्ता-आहिस्ता उबलने लगे। आखिर दोनों दूध हिल-हिल के गुनगुने हो गए और खट्टी लस्सी बन गए।

उस सहेली का बैंड बज गया... मगर वो वर्दी वाले सिपाही फुंदने नचाते न आए। उनकी जगह पीतल के बर्तन थे... छोटे और बडे जिनसे आवाजें निकलती थीं। गरजदार और धीमी... धीमी और गरजदार।


ये सहेली जब फिर मिली तो उसने बताया कि वो बदल गई है। सचमुच बदल गई थी। उसके अब दो पेट थे। एक पुराना, दूसरा नया। एक के ऊपर दूसरा चढा हुआ था। उसके दूध फटे हुए थे।
फिर उसके भाई का बैंड बजा... अधेड उम्र की हट्टी-कट्टी उम्र की मुलाजिमा बहुत रोई। उसके भाई ने उसको बहुत दिलासा दिया, बेचारी को अपनी शादी याद आ गई थी।


रातभर उसके भाई और उसकी दुल्हन की लडाई होती रही, वो रोती रही वो हंसता रहा... सुबह हुई तो अधेड उम्र की हट्टी-कट्टी मुलाजिमा उसके भाई को दिलासा देने के लिए अपने साथ ले गई। दुल्हन को नहलाया गया... उसकी सलवार में उसका लाल फुंदनोंवाला इजारबंद पडा था... मालूम नहीं ये दुल्हन के गले में क्यूं न बांधा गया।


उसकी आंखें बहुत मोटी थीं। अगर गला जोर से घोंटा जाता तो वो जिबह किए हुए बकरे की आंखों की तरह बाहर निकल आतीं। और उसको बहुत तेज बुखार चढता मगर पहला तो अभी तक उतरा नहीं ... हो सकता है उतर गया हो और ये नया बुखार हो जिसमें वो अभी तक बेहोश है।
उसकी मां मोटर ड्राइवरी सीख रही है... बाप होटल में रहता है। कभी-कभी आता है और अपने लडके से मिलकर चला जाता है। लडका भी कभी-कभी बीवी को घर बुला लेता है। अधेड उम्र की हट्टी-कट्टी मुलाजिमा को दो-तीन रोज के बाद कोई याद सताती है तो रोना शुरू कर देती है वो उसे दिलासा देता है, वो उसे पुचकारती है। और दुल्हन चली जाती है।


अब वो और दुल्हन भाभी दोनों सैर को जाती हैं... सहेली भी पाकिस्तान मेल मोटर नम्बर पी.एल. 9612 सैर करते-करते अजंता जा निकलती है जहां तस्वीरें बनाने का काम सिखाया जाता है। तस्वीरें देखकर तीनों तस्वीरें बन जाती हैं। रंग ही रंग, लाल-पीले, हरे-नीले। सबके सब चीखने वाले हैं। उनको उन रंगों का खालिक (बनानेवाला) चुप कराता है। उसके लंबे-लंबे बाल हैं। सर्दियों और गर्मियों में ओवर-कोट पहनता है। अच्छी शक्ल-ओ-सूरत का है। अंदर बाहर हमेशा खडाऊं इस्तेमाल करता है... अपने रंगों को चुप कराने के बाद खुद चीखना शुरू कर देता है। उसको ये तीनों चुप कराती हैं और बाद में खुद चिल्लाने लगती हैं।


तीनों अजंता में मुजर्रद (अकेला, अविवाहित) आर्ट के सैकडे नमूने बनाती रहीं। एक की हर तस्वीर में औरत के दो पेट होते हैं। मुख्तलिफ (विभिन्न) रंगों के। दूसरी की तस्वीरों में औरत अधेड उम्र की होती है, हट्टी-कट्टी। तीसरी की तस्वीरों में फुंदने ही फुंदने, इजारबंदों का गुच्छा। मुजर्रद तस्वीरें बनती रहीं, मगर तीनों के दूध सूखते रहे ... बडी गर्मी थी इतनी कि तीनों पसीने में सराबोर थीं...लगे कमरे के अंदर दाखिल होते ही उन्होंने अपने ब्लाउज उतारे और पंखे के नीचे खडी हो गई। पंखा चलता रहा। दूधों में ठंडक पैदा हुई न गर्मी।


उसी मम्मी दूसरे कमरे में थी। ड्राइवर उसके बदन से मोबिल ऑयल पोंछ रहा था। डैडी होटल में था। जहां उसकी लेडी स्टेनोग्राफर उसके माथे पर यूडीक्लोन मल रही थी।
एक दिन उसका भी बैंड बज गया। उजाड बाग फिर बारौनक हो गया। गमलों और दरवाजों की आराइश (सजावट) अजंता स्टूडियो के मालिक ने की थी। बडी-बडी गहरी लिपिस्टिकें उसके बिखेरे हुए रंग देखकर उड गई। एक जो ज्यादा स्याही-मायल थी, इतनी उडी कि वहीं गिर कर उसकी शागिर्द हो गई।


उसके उरुसी (शादी का) लिबास का डिजाइन भी उसने तैयार किया था। उसने उसी हजारों सम्तें (दिशाएं) पैदा कर दी थीं। ऐन सामने से देखो तो वो मुख्तलिफ रंगों के इजारबंदों का बंडल मालूम होती थी। जरा उधर हट जाओ तो फलों की टोकरी थी। एक तरफ हो जाओ तो खिडकी पर पडा हुआ फुलकारी का पर्दा। अकब (पीछे) में चले जाओ तो कुचले हुए तरबूजों का ढेर। जरा जाबिया (कोण) बदलकर देखो तो टमाटो सास से भरा हुआ मर्तबान। ऊपर से देखो तो यगाना आर्ट, नीचे से देखो तो कीराजी की मुबहम शायरी।


फनशनास निगाहें अश-अश कर उठीं... दूल्हा इस कदर मुताअस्सिर हुआ था कि शादी के दूसरे रोज ही उसने तहैया कर लिया कि वो भी मुजर्रद आर्टिस्ट बन जाएगा। चुनांचे अपनी बीवी के साथ अजंता गया जहां उन्हें मालूम हुआ कि उसकी शादी हो रही है और वो चंद रोज से अपनी होने वाली दुल्हन ही के घर रहता है।


उसकी होने वाली दुल्हन वही गहरे रंग की लिपिस्टिक थी जो दूसरी लिपिस्टिकों के मुकाबले में ज्यादा स्याही-मायल थी। शुरू-शुरू में चंद महीने तक उसके शौहर को उससे और मुजर्रद आर्ट से दिलचस्पी रही। लेकिन जब अजंता स्टूडियो बंद हो गया और उसके मालिक की कहीं से भी सुनबुन न मिली तो उसने नमक का कारोबार शुरू कर दिया जो बहुत नफआ-बख्श था। उस कारोबार के दौरान में उसकी मुलाकात एक लडकी से हुई जिसके दूध सूखे हुए नहीं थे। ये उसको पसंद आ गए। बैंड न बजा लेकिन शादी हो गई। पहली अपने ब्रश उठाकर ले गई। अलग रहने लगी।
ये नाचाकी (मनमुटाव, वैमनस्य) पहले तो दोनों के लिए तलखी का मूजिब (कारण, सबब) हुई, लेकिन बाद में एक अजीब-ओ-गरीब मिठास में तब्दील हो गई। उसकी सहेली ने जो दूसरा शौहर तब्दील करने के बाद सारे यूरोप का चक्कर लगा आई थी और अब दिक (तपेदिक, क्षय रोग) की मरीज थी, इस मिठास को क्यूबिक आर्ट में पेंट किया। साफ शफ्फाफ चीनी के बेशुमार क्यूब थे जो थोहर के पौधों के दरमियान इस अंदाज से तुले रखे थे कि उनसे दो शक्लें बन गई थीं। उन पर शहद की मक्खियां बैठी चूस रही थीं।


उसकी दूसरी सहेली ने जहर खाकर खुदकुशी कर ली थी। जब उसको ये अलमनाक (खेदजनक) खबर मिली तो वो बेहोश हो गई। मालूम नहीं बेहोशी नई थी या वही पुरानी जो बडे तेज बुखार के बाद जुर (प्रकट होना) में आई थी।
उसका बाप यूडीक्लोन में था जहां उसका होटल उसकी लेडी स्टेनोग्राफर का सर सहलाता था।
उसकी मम्मी ने घर का सारा हिसाब-किताब अधेड उम्र की हट्टी-कट्टी मुलाजिमा के हवाले कर दिया था। अब उसको ड्राइविंग आ गई थी। मगर बहुत बीमार हो गई थी। मगर फिर भी उसको ड्राइवर के बिन मां के पिल्ले का बहुत खयाल था। वो उसको अपना मोबिल ऑयल पिलाती थी।
उसकी भाभी और उसके भाई की जिंदगी बहुत अधेड और हट्टी-कट्टी हो गई थी। दोनों आपस में बडे प्यार से मिलते थे कि अचानक एक रात जबकि मुलाजिमा और उसका भाई घर का हिसाब कर रहे थे, उसकी भाभी नमूदार हुई। वो मुजर्रद थी। उसके हाथ में कलम था न ब्रश, लेकिन उसने उन दोनों का हिसाब साफ कर दिया।


सुबह कमरे में से जमे हुए ल के दो बडे-बडे फुंदने निकले जो उसकी भाभी के गले में लगा दिए गए। खाबिन्द (पति) से नाचाकी के बाइस (कारण) उसकी जिंदगी तल्ख होकर बाद में अजीब-ओ-गरीब मिठास में तब्दील हो गई थी। उसने उसको थोडा-सा तल्ख बनाने की कोशिश की और शराब पीना शुरू की मगर नाकाम रही, इसलिए मिकदार कम थी- उसने मिकदार बढा दी, हत्ता कि वो उसमें डुबकियां लेने लगी... लोग समझते थे कि अब गर्क (डूब जाना) हुई और अब गर्क हुई। मगर वो सतह पर उभर आई थी, मुंह से शराब पोंछती हुई, कहकहें लगाती हुई।


सुबह को जब उठती तो उसे महसूस होता कि रातभर उसके जिस्म का जर्रा-जर्रा दहाडे-मार-मारकर रोता रहा है...उसके वो सब बच्चे जो पैदा हो सकते थे, उन कब्रों में जो उनके लिए बन सकती थीं, उस दूध के लिए जो उनका हो सकता था, बिलख-बिलखकर रो रहे हैं। मगर उसके दूध कहां थे... वो तो जंगली बिल्ले पी चुके थे।


वो और ज्यादा पीती कि अथाह समन्दर में डूब जाए मगर उसकी ख्वाहिश पूरी नहीं होती। जहीन थी। पढी-लिखी थी। जिंसी (लिंग संबंधी) मौजूआत (विषय) पर बगैर किसी तसन्नोअ (बनावट) के बेतकल्लुफ गुफ्तगू करती थी। मर्दों के साथ जिस्मानी रिश्ता कायम करने में मजायका (आपत्ति) नहीं समझती थी। मगर फिर भी कभी-कभी रात की तारीकी में उसका जी चाहता था कि अपनी किसी बदआदत मुर्गी की तरह झाडियों के पीछे जाए और एक अंडा दे आए।


बिल्कुल खोखली हो गई। सिर्फ हड्डियों का ढांचा बाकी रह गया तो उससे लोग दूर रहने लगे... वो समझ गई, चुनांचे वो उनके पीछे न भागी और अकेली घर में रहने लगी... सिगरेट पर सिगरेट फूंकती, शराब पीती और जाने क्या सोचती रहती... रात को बहुत कम सोती थी। कोठी के इर्द-गिर्द घूमती रहती थी।


सामने क्वार्टर में ड्राइवर का बिना मां का बच्चा मोबिल ऑयल के लिए रोता रहता था। मगर उसी मां के पास खत्म हो गया था। ड्राइवर ने एक्सीडेंट कर दिया था। मोटर गिराज में और उसकी मां अस्पताल में पडी थी, जहां उसकी एक टांग काटी जा चुकी थी। दूसरी काटी जाने वाली थी।


वो कभी-कभी क्वार्टर के अंदर झांककर देखती तो उसको महसूस होता कि उसके दूधों की तलछट में हल्की लर्जिश (कंपकंपी) हुई है। मगर उस बदजायका शय (चीज) से तो उसके बच्चे के होंठ भी तर न होते।
उसके भाई ने कुछ अर्से से बाहर रहना शुरू कर दिया था। आखिर एक दिन उसका खत स्विट्रजरलैंड से आया कि वो वहां अपना इलाज करा रहा है, नर्स बहुत अच्छी है। अस्पताल से निकलते ही वो उससे शादी करने वाला है।
अधेड उम्र की हट्टी-कट्टी मुलाजिमा ने थोडा जेवर, कुछ नकदी और बहुत से कपडे जो उसकी मम्मी के थे चुराए और चंद रोज के बाद गायब हो गई। इसके बाद उसकी मां ऑपरेशन नाकाम होने बायस अस्पताल में मर गई।
उसका बाप जनाजे में शामिल हुआ। उसके बाद उसने उसकी सूरत न देखी। अब वो बिल्कुल तन्हा थी। जितने नौकर थे उतने अल्हदा कर दिए। ड्राइवर मोहब्बत... उसके बच्चे के लिए उसने एक आया रख दी..। कोई बोझ उसके खयालों में बाकी न रहा था। वो चाहती थी कि आहिस्ता-आहिस्ता उसे उनसे भी छुटकारा मिल जाए। कभी-कभार अगर कोई उससे मिलने आता तो वो अंदर से चिल्ला उठती, 'चले जाओ... जो कोई भी तुम हो, चले जाओ... मैं किसी से मिलना नहीं चाहती।


सेफ में उसको अपनी मां के बेशुमार कीमती जेवरात मिले थे उसके अपने भी थे जिनसे उसको कोई रगबत (रुचि) न थी। मगर अब वो रात घंटों आईने के सामने नंगी बैठकर ये तमाम जेवर अपने बदन पर सजाती और शराब पीकर कन्सुरी आवाज में फह्श (अश्लील) गाने गाती थी। आसपास और कोई कोठी नहीं थी, इसलिए मुकम्मल आजादी थी।
अपने जिस्म को तो वो कई तरीकों से नंगा कर चुकी थी। अब वो चाहती थी कि अपनी रूह को भी नंगा कर दे, मगर उसमें वो जबर्दस्त हिजाब (शर्म) महसूस करती थी। इस हिजाब को दबाने के लिए सिर्फ एक ही तरीका उसकी समझ में आता था कि पीए और खूब पीए और इस हालत में अपने नंगे बदन से मदद ले... मगर ये बहुत बडा अलमिया (दुखांत) था कि वो आखिरी हद तक नंगा होकर सतरपोश (शरीर का वह भाग छिपाना जिसे छिपाना आवश्यक है) हो गया था।


तस्वीरें बना-बनाकर वो थक चुकी थी... एक अर्से से उसका पेंटिंग का सामान संदूकचे में बंद पडा था। लेकिन एक दिन उसने सब रंग निकाले और बडे-बडे प्यालों में घोले तमाम ब्रश धो-धो कर एकतरफ रखे और आईने के सामने नंगी खडी हो गई और अपने जिस्म पर नई खद-ओ-खाल (रूपरेखा) बनाने शुरू किए। उसकी ये कोशिश अपने अजूद को मुकम्मल तौर पर उरयां (नंगा) करने की थी।
वो अपने सामने का हिस्सा ही पेंट कर सकती थी। दिनभर वो उसमें मसरूफ रही। बिन खाए-पिए आईने के सामने खडी अपने बदन पर मुख्तलिफ रंग जमाती और टेढे ननके खुतूत बनाती रही। उसके ब्रश में एतिमाद था... आधी रात के करीब उसने दूर हटकर बगौर जायजा लेकर इत्मीनान का सांस लिया। उसके बाद उसने तमाम जेवरात एक-एक करके अपने रंगों से लिथडे हुए जिस्म पर सजाए और आईने में एक बार फिर गौर से देखा कि एकदम आहट हुई।


उसने पलटकर देखा... एक आदमी छुरा हाथ में लिए, मुंह में ढाटा बांधे जैसे हमला करना चाहता था, मगर जब वो मुडी तो हमलावर के हलक से चीख बुलंद हुई। छुरा उसके हाथ से गिर पडा। अफरा-तफरी के आलम में कभी उधर का रुख किया, कभी इधर का ... आखिर जो रास्ता मिला उसमें से भाग निकला।


वो उसके पीछे भागी, चीखती-पुकारती- ठहरो... ठहरो ... मैं तुमसे कुछ नहीं कंगी ... ठहर।
मगर चोर ने उसकी एक न सुनी और दीवार फांद कर गायब हो गया। मायूस होकर वापस आई। दरवाजे की दहलीज के पास चोर का खंजर पडा था उसने उसे उठा लिया और अंदर चली गई... अचानक उसकी नजरें आईने से दो-चार हुई। जहां उसका दिल था वहां उसने मियान नुमा चमडे के रंग का खोल बनाया हुआ था। उसने उस पर खंजर रख कर देखा। खोल बहुत छोटा था, उसने खंजर फेंक दिया और बोतल में से शराब के चार-पांच बडे घूंट पीकर इधर-उधर टहलने लगी... वो कई बोतलें खाली कर चुकी थी। खाया कुछ भी नहीं था... देर तक टहलने के बाद वो फिर आईने के सामने आई। उसके गले में इजारबंदनुमा गुलूबंद था। जिसके बडे-बडे फुंदने थे। ये उसने ब्रश से बनाया था।
दफअतन (यकबयक) उसको ऐसा महसूस हुआ कि ये गुलूबंद तंग होने लगा है। आहिस्ता-आहिस्ता वो उसके गले के अंदर धंसता जा रहा है... वो खामोश खडी आईने में आंखे गाडे रही जो उसी रफ्तार से बाहर निकल रही थीं... थोडी देर के बाद उसके चेहरे की तमाम रगें फूलने लगीं। फिर एकदम से उसने चीख मारी और औंधे मुंह फर्श पर गिर पडी।

 

 

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