मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

चौथा भाग

मिट्टी और पानी के प्रयोग

 

जैसे-जैसे मेरे जीवन में सादगी बढ़ती गयी, वैसे-वैसे रोगों के लिए दवा लेने की मेरी अरुचि , जो पहले से ही थी, बढ़ती गयी । जब मैं डरबन में वकालत करता था तब डॉ. प्राणजीवनदास मेहता मुझे अपने साथ ले जाने के लिए आये थे । उस समय मुझे कमजोरी रहती थी और कभी-कभी सूजन भी हो आती थी । उन्होंने इसका उपचार किया था और मुझे आराम हो गया था । इसके बाद देश में वापस आने तक मुझे कोई उल्लेख करनें जैसी बीमारी हुई हो, ऐसा याद नहीं आता ।

पर जोहानिस्बर्ग में मुझे कब्ज रहता था और कभी कभी सिर भी दुखा करता था । कोई दस्तावर दवा लेका मैं स्वास्थ्य को संभाले रहता था । खाने-पीने में पथ्य का ध्यान तो हमेशा रखता ही था, पर उससे मैं पूरी तरह व्याधिमुक्त नही हुआ । मन में यह ख्याल बना हू रहता कि दस्तावर दवाओ से भी छुटकारा मिले तो अच्छा हो ।

इन्हीं दिनों मैने मैन्चेस्टर में 'नो ब्रेकफास्ट एसोशियेशन' की स्थापना का समाचार पढ़ा । इसमे दलील यह थी कि अंग्रेज बहुत बार और बहुत खाते रहते हैं और फिर डॉक्टर के घर खोजते फिरते हैं । इस उपाधि से छूटना हो तो सबेरे का नाश्ता -- 'ब्रेकफास्ट'-- छोड़ देना चाहिये । मुझे लगा कि यद्यपि यह दलील मुझ पर पूरी तरह घटित नहीं होती , फिर भी कुछ अंशों में लागू होती हैं । मैन तीन बार पेट भर खाता था और दोपहर को चाय भी पीता था । मैं कभी अल्पाहारी नहीं रहा । निरामिषाहार में मसालों के बिना जिनते भी स्वाद लिये जा सकते थे, मैं लेता था । छह-सात बजे से पहले शायद ही उठता था ।

अतएव मैने सोचा कि यदि मैं सुबह का नाश्ता छोड़ दूँ तो सिर के दर्द से अवश्य ही छुटकारा पा सकूँगा । मैने सुबह का नाश्ता छोड़ दिया । कुछ दिनों तक अखरा तो सही , पर सिर का दर्द बिल्कुल मिट गया । इससे मैने यह नतीजा निकाला कि मेरा आहार आवश्यकता से अधिक था ।

पर इस परिवर्तन से कब्ज की शिकायत दूर न हुई । कूने के कटिस्नान का उपचार करने से थोड़ा आराम हुआ । पर अपेक्षित परिवर्तन तो नहीं ही हुआ । इस बीच उसी जर्मन होटलवाले ने या दूसरे किसी मित्र ने मुझे जुस्ट की 'रिटर्न टु नेचर' ( प्रकृति की ओर लौटो ) नामक पुस्तक दी । उसमें मैने मिट्टी के उपचार के बारे मे पढ़ा । सूखे औप हरे फल ही मनुष्य का प्राकृतिक आहार हैं, इस बात का भी इस लेखक ने बहुत समर्थन किया हैं । इस बार मैने केवल फलाहार का प्रयोग तो शुरु नही किया , पर मिट्टी के उपचार तुरन्त शुरु कर दिया । मुझ पर उसका आश्चर्यजनक प्रभाव पड़ा । उपचार इस प्रकार था , खेत की साफ लाल या काली मिट्टी लेकर उसमे प्रमाण से पानी डाल कर साफ, पतले , गीले कपड़े में उसे लपेटा और पेट पर रखकर उस पर पट्टी बाँध दी । यह पुलटिस रात को सोते समय बाँधता था और सबेरे अथवा रात मे जब जाग जाता तब खोल दिया करता था । इससे मेरा कब्ज जाता रहा । उसके बाद मिट्टी के ये उपचार मैने अपने पर और अपने अनेक साथियों पर किये और मुझे याद है कि वे शायद ही किसी पर निष्फल रहे हो ।

देश मे आने के बाद मै ऐसे उपचारो के विषय मे आत्म-विश्वास खो बैठा हूँ । मुझे प्रयोग करने का , एक जगह स्थिर होकर बैठने का अवसर भी नही मिल सका। फिर भी मिट्टी और पानी के उपचारों के बारे में मेरी श्रद्धा बहुत कुछ वैसी ही है जैसी आरम्भ मे थी । आज भी मैं मर्यादा के अन्दर रहकर मिट्टी का उपचार स्वयं अपने ऊपर तो करता ही हूँ और प्रसंग पड़ने पर अपने साथियों को भी उसकी सलाह देता हूँ । जीवन मे दो गम्भीर बीमारियाँ मैं भोग चुका हूँ , फिर भी मेरा यह विश्वास है कि मनुष्य को दवा लेने की शायद ही आवश्यकता रहती हैं । पथ्य तथा पानी , मिट्टी इत्यादि के घरेलू उपचारों से एक हजार में से 999 रोगी स्वस्थ हो सकते हैं । क्षण-क्षण मे बैद्य, हकीम और डॉक्टर के घर दौड़ने से और शरीर मे अनेक प्रकार के पाक और रसायन ठूँसने से मनुष्य न सिर्फ अपने जीवन को छोटा कर लेता हैं , बल्कि अपने मन पर काबू भी खो बैठता है । फलतः वह मनुष्यत्व गँवा देता है और शरीर का स्वामी रहने के बदले उसका गुलाम बन जाता हैं ।

मै यह बीमारी के बिछौने पर पड़ा-पड़ा लिखा रहा हूँ , इस कारण कोई इन विचारों की अवगणना न करे । मैन अपनी बीमारी के कारण जानता हूँ । मुझे इस बात का पूरा-पूरा ज्ञान हैं और भान हैं कि मैन अपने ही दोषो के कारण मैं बीमार पड़ा हूँ और इस भान के कारण ही मैने धीरज नहीं छोड़ा है । इस बीमारी को मैने ईश्वर का अनुग्रह माना हैं और अनेक दवाओं के सेवन के लालच से मै दूर रहा हूँ । मैं यह भी जानता हूँ कि अपने हठ से मैं डॉक्टर मित्रो को परेशाम कर देता हूँ , पर वे उदार भाव से मेरे हठ को सह लेते है और मेरा त्याग नही करते ।

पर मुझे इस समय की अपनी स्थिति के वर्णन को अधिक बढ़ाना नही चाहिये , इसलिए हम सन् 1904-05 के समय की तरफ लौट आवे।

पर आगे बढकर उसका विचार करने से पहले पाठकों को थोड़ साबधान करने की आवश्यकता हैं । यह लेख पढ़कर जो जुस्ट की पुस्तके खरीदे , वे उसकी हर बात को वेदवाक्य न समझे । सभी रचनाओ में प्रायः लेखक की एकांगी दृष्टि रहती हैं । किन्तु प्रत्येक वस्तु को कम से कम सात दृष्टियो से देखा जा सकता है और उस उस दृष्टि से वह वस्तु सच होती है । पर सब दृष्टियाँ एक ही समय पर कभी सच नही होती । साथ ही, कई पुस्तकों मे बिक्री के और नाम के लालच का दोष भी होता है । अतएव जो कोई उक्त पुस्तक को पढ़े वे उसे विवेक पूर्वक पढ़े और कुछ प्रयोग करने हो तो किसी अनुभवी की सलाह लेकर करें अथवा धैर्य-पूर्वक ऐसी वस्तु का थोड़ा अभ्यास करके प्रयोग आरंभ करें ।

 

 

 

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