मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

चौथा भाग

निरामिषाहार के लिए बलिदाल

 

मेरे जीवन में जैसे-जैसे त्याग और सादगी बढ़ी और धर्म जाग्रति का विकास हुआ , वैसे-वैसे निरामिषाहार का और उसके प्रचार का शौक बढ़ता गया । प्रचार कार्य की एक ही रीति मैने जानी हैं । वह हैं, आचार की , और आचार के साथ जिज्ञासुओं से वार्तालाप की ।

जोहानिस्बर्ग में एक निरामिषाहार गृह था। एक जर्मन, जो कूने की जल-चिकित्सा में विश्वास रखता था, उसे चलाता था । मैने वहाँ जाना शुरू किया और जितने अंग्रेज मित्रों को वहाँ ले जा सकता था उतनों को उसके यहाँ ले जाता था । पर मैने देखा कि वह भोजनालय लम्बे समय तक चल नहीं सकता । उसे पैसे की तंगी तो बनी ही रहती थी । मुझे जितनी उचित मालूम हुई उतनी मैने मदद की । कुछ पैसे खोये भी । आखिर वह बन्द हो गया । थियॉसॉफिस्टों मे अधिकतर निरामिषाहारी होते हैं, कुछ पूरे कुछ अधूरे । इस मंडल में एक साहसी महिला भी थी । उसने बड़े पैमाने पर एक निरामिषाहारी भोजनालय खोला । यह महिला कला की शौकीन थी । वह खुले हाथों खर्च करती थी और हिसाब-किताब का उसे बहुत ज्ञान नहीं था । उसकी खासी बड़ी मित्र-मंडली थी । पहले तो उसका काम छोटे पैमाने पर शुरू हुआ , पर उसने उसे बढ़ाने और बड़ी जगह लेने का निश्चय किया । इसमे उसने मेरी मदद माँगी । उस समय मुझे उसके हिसाब आदि की कोई जानकारी नही थी । मैने यह मान लिया था कि उसका अन्दाज ठीक ही होगा । मेरे पास पैसे की सुविधा थी । कई मुवक्किलो के रुपये मेरे पास जमा रहते थे । उनमे से एक से पूछ कर उसकी रकम मे से लगभग एक हजार पौंड उस महिला को मैने दे दिये । वह मुवक्किल विशाल हृदय और विश्वासी था । वह पहले गिरमिट मे आया था । उसने (हिन्दी में) कहा, 'भाई, आपका दिल चाहे तो पैसा दे दो । मैं कुछ ना जानूँ । मैं तो आप ही को जानता हूँ ।' उसका नाम बदरी था । उसने सत्याग्रह में बहुत बड़ा हिस्सा लिया था । वह जेल भी भुगत आया था । इतनी संमति के सहारे मैने उसके पैसे उधार दे दिये । दो-तीन महीने में ही मुझे पता चल गया कि यह रकम वापस नहीं मिलेगी । इतनी बड़ी रकम खो देने की शक्ति मुझ में नहीं थी । मेरे पास इस बड़ी रकम का दूसरा उपयोग था । रकम वापस मिली ही नही । पर विश्वासी बदरी की रकम कैसे डूब सकती थी ? वह तो मुझी को जानता था ? यह रकम मैने भर दी ।

एक मुवक्किल मित्र से मैने अपने इस लेन-देन की चर्चा की । उन्होंने मुझे मीठा उलाहना देते हुए जाग्रत किया , 'भाई, यह आपका काम नहीं हैं । हम तो आपके विश्वास पर चलने वाले हैं । यह पैसा आपको वापस नहीं मिलेगा । बदरी को आप बचा लेंगे और अपना पैसा खोयेंगे । पर इस तरह के सुधार के कामों में सब मुवक्किलों के पैसे देने लगेंगे , तो मुवक्किल मर जायेंगे और आप भिखमंगे बनकर घर बैठेंगा । इससे आपके सार्वजनिक काम को क्षति पहुँचेगी ।'

सौभाग्य से ये मित्र अभी जीवित हैं । दक्षिण अफ्रीका में और दूसरी जगह उनसे अधिक शुद्ध मनुष्य मैने नही देखा । किसी के प्रति उनके मन मे शंका उत्पन्न हो और उन्हें जान पड़े कि यह शंका खोटी है तो तुरन्त उससे क्षमा माँगकर अपनी आत्मा को साफ कर लेते हैं । मुझे इस मुवक्किल की चेतावनी सच मालूम हुई । बदरी की रकम तो मै चुका सका । पर दूसरे हजार पौंड यदि उन्हीं दिनों मैने खो दिये होते, तो उन्हें चुकाने की शक्ति मुझ में बिल्कुल नही थी । उसके लिए मुझे कर्ज ही लेना पड़ता । यह धंधा तो मैने अपनी जिन्दगी मे कभी नही किया और इसके लिए मेरे मन में हमेशा ही बड़ी अरुचि रही हैं । मैने अनुभव किया कि सुधार करने के लिए भी अपनी शक्ति से बाहर जाना उचित नहीं था । मैने यह भी अनुभव किया कि इस प्रकार पैसे उधार देने में मैने गीता के तटस्थ निष्काम कर्म के मुख्य पाठ का अनादर किया था । यह भूल मेरे लिए दीपस्तम्भ-सी बन गयी ।

निरामिषाहार के प्रचार के लिए ऐसा बलिदान करने की मुझे कोई कल्पना न थी । मेरे लिए वह जबरदस्ती का पुण्य बन गया ।

 

 

 

 

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