भावानुवाद - कृष्ण कुमार
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योशिजो सीमेंट के थैले खाली कर रहा था। अपने शरीर के अधिकतर अंगों को वह किसी तरह सीमेंट की धूल से बचाये हुए था, लेकिन उसके केशों और मूछों पर एक मोटी पपड़ी जम गयी थी। वह अपनी नाक साफ करके सिमेंट की उस पपड़ी को निकालने के लिए अकुल रहा था, जिसके कारण नासापुटों के भीतर बाल सलाख-से कड़े हो गयो थे; लेकिन सीमेंट घोलने का यन्त्र हर मिनट में दस खेप तैयार करके फेंक रहा था और उसे भरते रहने में ढ़ील की कोई गुंजाइश नहीं थी।
योशिजो का काम का दिन ११ घंटे का था। इसके दौरान उसे एक बार भी ढंग से नाम साफ करने का अवसर न मिलता। जब थोड़ी देर की दोपहर की छुट्टी में उसे भूख लगी होती तो वह जल्दी-जल्दी किसी तरह कौर निगलता रहता। उसे आशा थी कि तीसरे पहर के कुछ देर के विश्राम में उसे अवसर मिलेगा, लेकिन जब उसका समय आया तो उसने पाया कि उस बीच सीमेंट घोलने के यन्त्र को खोलना है। तीसरे पहर तक उसे लगने लगा था कि उसकी समूची नाक सीमेंट घोलने के यन्त्र को खोलना है। तीसरे पहर तक उसे लगने लगा था कि उसकी समूची नाक सीमेंट बन गई है। दिन किसी तरह पूरा हो रहा था। थकान से उसकी बाहें शिथिल हो चुकीं थीं और थैले ढोने के लिए उसे पूरा जोर लगाना पड़ रहा था। एकाएक थैला उठाते समय उसने देखा, सीमेंट में एक छोटा-सा लकड़ी का डिब्बा है।
"क्या हो सकता है यह?" उसे कुतूहल हुआ, लेकिन कुतूहल शान्त करने के लिए काम की गति धीमी नहीं की जा सकती थी। हड़बड़ा कर उसने नपाई के चौखटे में सीमेंट भरा और उसे मिलाने के खांचे में डाल दिया। बेल्चा उठाकर वह फिर सीमेंट ढोने लगा।
मन-ही-मन डिब्बा उठाया और अपने लबादे की जेब में डाल लिया।
"अरे मारो गोली, वजन तो कुछ नहीं है। उसमें और जो हो सो हो, पैसा तो ज्यादा नहीं होगा।" इस तनिक-सी देर से भी वह अपने काम में पिछड़ गया था औश्र अब उसे दुगुनी तेजी से सीमेंट ढोकर मशीन में डालना पड़ा।
स्वयंचालित यन्त्र की तरह उसने एक और थैला खाली किया और नपाई के नये खांचे में सीमेंट भरने लगा।
अंत में मशीन की रफ्तार कुछ धीमी हुई और फिर वह रुक गयी। योशिजो के उस दिन की छुट्टी का समय आ गया। यन्त्र से लगी हुई रबर की नली को उसने उठाया और मुंह-हाथ धोने का हल्का-सा उपक्रम किया। फिर उसने अपने नाश्ते का डिब्बा गले में टांग लिया और अपनी कोठारी की ओर चल पड़ा। एक ही विचार उसके मन पर छाया हुआ था: पेट में कुछ भोजन पड़ना चाहिए और उससे भी जरूरी यह कि तेज साके शराब का गिलास मिल जाना चाहिए।,
वह बिजलीघर की इमारत के सामने से गुजरा। उसका निर्माण-कार्य लगभग पूरा हो गया था और अब जल्दी ही उन्हें बिजली मिलने लगेगी। सुदूर क्षितिज पर सांझ के धुंधलके में कैरा पर्वत-शिखर की बर्फ चमक उठी थी। योशिजो केह पसीने से लथपथ शरीर में सहसा एक कंपकंपी दौड़ गयी थी और वह ठंड से सिहर उठा। जिस रास्ते वह चल रहा था, उसके किनारे-किनारे किसी नदी बह रही थी। दूधिया झाग के नीचे से एक घरघराहट उसकी तेज गति का संकेत दे रही थी।
"ऐसी की तैसी?" योशिजो ने सोचा, "हद है, बस हद है! उस औरत के फिर बच्चा होने वाला है!"
उसका ध्यान कोठरी में कुलबुलाते छ: बच्चों की ओर जाड़ो का अंत होते-न होतेकत जन्म लेने वाले सातवें बच्चे की ओर अपनी घरवाली की ओर गया, जो धड़ाधड़ एक के बाद एक बच्चा जनती चली जा रही है—एक गहरी उदासी उस पर छा गयी।
"अब सोचो",वह मन-ही-मन बुदबुदाया, "राज की १ येन ९० सेन मजदूरी मिलती है, जिसमें से फी पड़ी ५० सेन के हिसाब से दोपड़ी चावल लेने होते हैं। फिर रहने-सहने का खर्च रोज का ९० सेन हो जाता है। १.९० तो इसी में गया-अब शराब के लिए कुछ कहां से बच रहेगा!"
एकाएक उसे जेब में पड़े डिब्बे की याद आयी। डिब्बा निकालकर उसने अपनी पतलून की पिछाड़ी पर रगड़कर उसका सीमेंट साफ किया। डिब्बे पर कुछ लिखा नहीं था, लेकिन वह सावधानी से मुहरबनद किया गया था।
"भला ऐसे डिब्बे को कोई मुहरबन्द क्यों करना चाहेगा? वह जो भी हो, बुझौवल का शौकीन जान पड़ता है।"
सड़क के किनारे के पत्थर पर पटकने पर भी डिब्बे का ढक्कन नहीं खुला। गुस्से में योशिजो ने उसे सड़क पर डाल कर एड़ियों से कुचलना शुरू किया। अन्त में डिब्बा टूट गया। कपड़े के चिथड़े में लिपटा हुआ एक कागज देखकर योशिजो ने उठा लिया और पढ़ने लगा।
Bihar became the first state in India to have separate web page for every city and village in the state on its website www.brandbihar.com (Now www.brandbharat.com)
See the record in Limca Book of Records 2012 on Page No. 217