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मलबे का मालिक मोहन राकेश

मलबे का मालिक मोहन राकेश

 

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और जैसे उसके घुटने जवाब दे गये और वह जली हुई चौखट को पकड़ कर बैठ गया। क्षण-भर बाद उसका सिर भी चौखट से जा लगा और उसके मुँह से बिलखने की-सी आवाज़ निकली-- हाए! ओए, चिरागदीना!

जले हुए किवाड़ की चौखट साढ़े सात साल मलबे में से सिर निकाले खड़ी तो रही थी, मगर उसकी लकड़ी बुरी तरह भुरभुरा गयी थी। गनी के सिर के छूने से उसके कई रेशे झड़कर बिखर गये। कुछ रेशे गनी की टोपी और बालों पर आ गिरे। लकड़ी के रेशों के साथ एक कैंचुआ भी नीचे गिरा, जो गनी के पैर से छह-आठ इंच दूर नाली के साथ बनी ईंटों की पटरी पर सरसराने लगा। वह अपने लिए सूराख ढूंढता हुआ जरा-सा सिर उठाता, मगर दो- एक बार सिर पटककर और निराश होकर दूसरी ओर को मुड़ जाता।

खिड़कियों में से झाँकने वाले चेहरों की संख्या पहले से कहीं बढ़ गयी थी।उनमें चेमेगोइयां चल रही थीं कि आज कुछ न कुछ जरूर होगा चिरागदीन का बाप गनी आ गया है, इसलिए साढ़े सात साल पहले की सारी घटना आज खुल जायगी। लोगों को लग रहा था जैसे वह मलबा ही गनी की सारी कहानी सुना देगा कि शाम के वक्त चिराग ऊपर के कमरे में खाना खा रहा था जब रक्खे पहलवान ने उसे नीचे बुलाया कि वह एक मिनट आकर एक जरूरी बात सुन जाय। पहलवान उन दिनों गली का बादशाह था। हिंदुओं पर ही उसका काफी दबदबा था, चिराग तो खैर मुसलमान था। चिराग हाथ पर कौर बीच में ही छोड़कर नीचे उतर आया। उसकी बीवी जुबैदा और दोनों लड़कियां किश्वर और सुलताना खिड़कियों में से नीचे झाँकने लगीं। चिराग ने डयोढ़ी से बाहर कदम रखा ही था कि पहलवान ने उसे कमीज के कालर से पकड़कर खींच लिया और उसे गली में गिराकर उसकी छाती पर चढ़ बैठा। चिराग उसका छुरेवाला हाथ पकड़कर चिल्लाया-- न, रक्खे पहलवान मुझे मत मार! हाय मुझे बचाओं! जुबैदा! मुझे बचा...! और ऊपर से जुबैदा चीखती हुई नीचे डयोढ़ी की तरफ भागी। रक्खे के एक शगिर्द ने चिराग की जद्दोजहद करती हुई बाहें पकड़ लीं ओर रक्खा उसकी जांघों को घुटने से दबाये हुए बोला-- चीखता क्यों है, भैण के... तुझे पाकिस्तान दे रहा हूँ, ले!

और जुबैदा के नीचे पहुँचने से पहले ही उसने चिराग को पाकिस्तान दे दिया।

आसपास के घरों की खिड़कियाँ बंद हो गयीं। जो लोग इस दृश्य के साक्षी थे, उन्होंने दरवाजे बंद करके अपने को इस घटना के उत्तरदायित्व से मुक्त कर लिया था। बंद किवाड़ों में भी उन्हें देर तक जुबैदा, किश्वर और सुलताना के चीखने की आवाजें सुनायी देती रहीं। रक्खे पहलवान और उसके साथियों ने उन्हें भी उसी रात पाकिस्तान देकर विदा कर दिया, मगर दूसरे तबील रास्ते से। उनकी लाशें चिराग के घर में न मिलकर बाद में नहर के पानी में पायी गयीं।

दो दिन तक चिराग के घर की खानातलाशी होती रही। जब उसका सारा सामान लूटा जा चुका तो न जाने किसने उस घर को आग लगा दी। रक्खे पहलवान ने कसम खाई थी कि वह आग लगाने वाले को ज़िन्दा ज़मीन में गाड़ देगा, क्योंकि उसने उस मकान पर नज़र रख कर ही चिराग को मारने का निश्चय किया था। उसने उस मकान को शुद्ध करने के लिए हवन-सामग्री भी खरीद रखी थी। मगर आग लगाने वाले का पता ही नहीं चल सका, उसे ज़िन्दा गाड़ने की नौबत तो बाद में आती। अब साढ़े सात साल से रक्खा पहलवान उस मलबे को अपनी जागीर समझता आ रहा था, जहाँ न वह किसी को गाय-भैंस बांधेन देता था ओर न खोंचा लगाने देता था। उस मलबे से बिना उसकी अनुमति के कोई ईंट भी नहीं उठा सकता था।

लोग आशा कर रहे थे कि सारी कहानी ज़रूर किसी न किसी तरह गनी के कानों तक पहुंच जायगी जैसे मलबे को देखकर उसे अपने-आप ही सारी घटना का पता चल जायगा। और गनी मलबे की मिट्टी नाखूनों से खोद-खोद कर अपने ऊपर डाल रहा था और दरवाजे के चौखट को बाँह में लिये हुए रो रहा था-- बोल, चिरागदीना, बोल! तू कहाँ चला गया, ओए! ओ किश्वर! ओ सुल्तान! हाय मेरे बच्चे! ओएऽऽ! गनी को कहाँ छोड़ दिया, ओएऽऽ!

और भुरभुरे किवाड़ से कड़ी के रेशे झड़ते जा रहे थे।

पीपल के नीचे सोए हुए रक्खे पहलवान को किसी ने जगा दिया, या वह वैसे ही जाग गया। यह जानकर कि पाकिस्तान से अब्दुल गनी आया है ओर अपने मकान के मलबे पर बैठा है, उसके गले में थोड़ा झाग उठ आया, जिससे उसे खाँसी हो आयी और उसने कुँए के फ़र्श पर थूक दिया। मलबे की ओर देखकर उसकी छाती से धौंकनी का-सा स्वर निकला और उसका निचला ओंठ थोड़ा बाहर को फैल आया।

-- गनी अपने मलबे पर बैठा है।

उसके शागिर्द लच्छे पहलवाने ने उसके पास आकर बैठते हुए कहा।

-- मलबा उसका कैसे है? मलबा हमारा है!

पहलवान ने झाग के कारण घरघराई हुई आवाज़ में कहा।

--मगर वह वहाँ पर बैठा है ।

लच्छे ने आंखों में रहस्यमय संकेत लाकर कहा।

-- बैठा है, बैठा रहे, तू चिलम ला।

उसकी टांगें थोड़ी फैल गयीं और उसने अपनी नंगी जांघों पर हाथ फेरा।

-- मनोरी ने अगर उसे कुछ बताया-उताया तो...।

लच्छे ने चिलम भरने के लिए उठते हुए उसी रहस्यपूर्ण दृष्टि से देखकर कहा।

--मनोरी की शामत आयी है!

लच्छे चला गया।

कुँए पर पीपल की कई पुरानी पत्तियां बिखरी थीं। रक्खा उन पतियों को उठा-उठाकर हाथों में मसलता रहा। जब लच्छे ने चिलम के नीचे कपड़ा लगाकर उसके हाथ में दिया तो उसने कश खींचते हुए पूछा-- और भी तो किसी से गनी की बात नहीं हुई?

-- नहीं।

-- ले।

और उसने खांसते हुए चिलम लच्छे के हाथ में दे दी। लच्छे ने देखा कि मनोरी मलबे की तरफ से गनी की बांह पकड़े हुए आ रहा है। वह उकड़ू होकर चिलम के लम्बे-लम्बे कश खींचने लगा। उसकी आंखें आधा क्षण रक्खें के चेहरे पर टिकतीं और आधा क्षण गनी की ओर लगी रहतीं।

मनोरी गनी की बांह पकड़े हुए उससे एक कदम आगे चल रहा था, जैसे उसकी कोशिश हो कि गनी कुंए के पास से बिना रक्खें पहलवान को देखे ही निकल जाय। मगर रक्खा जिस तरह बिखरकर बैठा था, उससे गनी ने उसे दूर से ही देख लिया। कुएँ के पास पहुँचते न पहुँचते उसकी दोनों बाहें फैल गयीं और उसने कहा-- रक्खे पहलवान!

रक्खे ने गर्दन उठाकर और आंखें जरा छोटी करके उसे देखा। उसके गले में अस्पष्ट-सी घबराह हुई, पर वह बोला कुछ नहीं।

-- रक्खे पहलवान, मुझे पहचाना नहीं?

गनी ने बाहें नीची करके कहा-- मैं गनी हूँ, अब्दुल गनी, चिरागदीन का बाप!

पहलवान ने सन्देहपूर्ण दृष्टि से उसका ऊपर से नीचे तक जायजा लिया। अब्दुल गनी की आंखों में उसे देखकर चमक आ गयी थी। सफेद दाढ़ी के नीचे उसके चेहरे की झुरियाँ ज़रा फैल गयी थीं। रक्खे का निचला होंठ फड़का, फिर उसकी छाती से भारी-सा स्वर निकला-- सुना गनिया!

गनी की बांहें फिर फैलने को हुई, परन्तु पहलवान पर कोई प्रतिक्रिया न देखकर उसी तरह रह गयी। वह पीपल के तने का सहरा लेकर कुएँ की सिल पर बैठ गया.....

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