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तूफान खलील जिब्रान

तूफान खलील जिब्रान

भावानुवाद - नरेन्द्र चौधरी

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 उन्होंने मेरी ओर मुस्कराते हुए देखा और अपनी सिगरेट का एक लम्बा कश खींचकर तथा काफी की एक चुस्की लेकर उन्होंने कहा, "अवश्य ही तुम-मदिरा, कॉफी और सिगरेट यहां पाकर सोच में पड़ गये हो और मेरे खान-पान तथा ऐश आराम पर उन्हीं लोगों में से एक हो, जो इन बातों में विश्चास करते हैं। कि लोगों से दूर रहने पर मनुष्य जीवन से भी दूर हो जाता है। और ऐसे मनुष्य को उस जीवन के सभी सुखों से वंचित रहना चाहिए।"

,मैंने  तुरन्त स्वीकार कर लिया, "हां ! ज्ञानियों का यही कहना है कि जो केवल ईश्वर की प्रार्थना करने के लिए संसार को त्याग देता है, वह जीवन के समस्त सुख और आनन्द को अपने पीछे छोड़ आता है, केवल ईश्वर द्वारा निर्मित वस्तुओं पर सन्तोष करता है और पानी और पौधों पर ही जीवित रहता है।"

जरा रुककर गहन विचारों में निमग्न वे बोले, "मैं ईश्वर की भक्ति तो उसके जीवों के बीच रहकर भी कर सकता था, क्योंकि उसे तो मैं हमेशा से अपने माता-पिता के घर पर भी देखता आया हूं। मैंने मनुष्यों का त्याग केवल इसलिए किया कि उनका और मेरा स्वभाव मिलता न था और उनकी कल्पना मेरी कल्पनाओं से मेल नहीं खाती थीं। मैंने आदमी को इसीलिए छोड़ा क्योंकि मैंने देखा कि मेरी आत्मा के पहियों से जोर से टकरा रहे हैं और दूसरी दिशा में घूमते हुए दूसरी आत्माओ के पहियों से जोर से टकरा रहे है। मैंने मानव –सभ्यता को छोड़ि दिया, क्योकि मैंने देखा कि वह एक ऐसा पेड़ हैं, जो अत्यन्त पुराना और भ्रष्ट हो चुका है, किन्तु है शक्तिशाली तथा भयानक। उसकी जड़ें पृथ्वी के अंधकार में बन्द हैं और उसकी शाखांए बादलों में खो गई हैं। किन्तु उसके फूल लोभ, अधर्म और पाप से बने हैं और फल दु:ख संतोष और भय से। धार्मिक मनुष्यों ने यह बीड़ा उठाया हैं। उसके स्वाभाव को बदल देगें,किन्तु वे सफल नहीं हो पाये हैं। वे निराश तथा दुखी होकर मृत्यु को प्राप्त हुए।"

यूसुफ साहब अंगीठी की ओर थोड़ा-सा झुके, मानों अपने शब्दों की प्रतिक्रिया जानने की प्रतीक्षा में हों। मैंने सोचा कि श्रोता ही बने रहना सर्वोत्तम है। वे कहने लगे, "नहीं, मैंने एकान्तवास इसलिए नहीं अपनाया कि मैं एक संन्यासी की भांति जीवन व्यतीत करूं, क्योंकि प्रार्थना, जो हृदय का गीत है, चाहे सहस्त्रों की चीख-पुकार की अवाज से भी घिरी हो, ईश्वर के कानों तक अवश्य पहुंच जायेगी।

  "एक बैरागी का जीवन बिताना तो शरीर और आत्मा को कष्ट देना है तथा इच्छाओं का गला घोंटना है। यह एक ऐसा अस्तित्व है, जिसके मैं नितान्त विरुद्ध हूं; क्योंकि ईश्वर ने आत्माओं के मंदिर के रूप में ही शरीर का निमार्ण किया है। और  हमारा यह कर्तव्य है कि उसे विश्वास को, जो परमात्मा ने हमें प्रदान किया हैं, योग्यतपूर्वक बनाये रखें।

"नहीं, मेरे भाई, मैंने परमार्थ के लिए एकान्तवास नहीं अपनाया, अपनाया तो केवल इसलिए कि आदमी और उसके  विधान से, उसके विचारों तथा उसकी शिकायतों से उसके दु:ख और  विलापों से दूर रहूं।

 "मैंने एकान्तवास इसलिए अपनाया कि उन मनुष्यों के चेहरे न देख सकूं, जो अपना विक्रय करते हैं और उसी मूल्य से ऐसी वस्तुंए खरीदते है, जो आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ही रुप उनसे भी घटिया हैं।

"मैंने एकान्तवास इसलिए ग्रहण किया कि कहीं उन  स्त्रियों से मेरी भेटं न हो जाए,जो अपने ओठों पर अनेकविध मुस्कान फैलाये गर्व से घूमती रहती हैं- जबकि उनके सहस्त्रों हृदयों     की गहराइयों में बस एक ही उद्देश्य विद्यमान है।

 "मैंने एकान्तवास इसलिए ग्रहण किया कि मैं उन आत्म-सन्तुष्ठ व्यक्तियों से बच सकूं, जो अपने सपनों में ही ज्ञान की झलक पाकर यह विश्चास कर लेते हैं कि उन्होंने अपना लक्ष्य पा लिया।

 "मैं समाज से  इसलिए भागा कि उनसे दूर रह सकूं जो अपनी जागृति के समय में सत्य का आभास-मात्र का पाकर संसार भर मे चिल्लाते फिरते हैं कि उन्होंने सत्य को पूर्णत: प्राप्त कर लिया है।

"मैंने संसार का त्याग किया और एकानपतवास को अपनाया, क्योंकि मैं ऐसे लोगों के साथ भद्रता बरतते थक गया था, जो नम्रता को एक कार की कमजोरी, दया को एक प्रकार सकी कारयता तथा क्रूरता को एक प्रकार की शक्ति समझते हैं।

 "मैंने एकान्तवस अपनाया, क्योंकि मेरी आत्मा उन लोगों के समागम से थक चुकी थी, जो वास्तव में इस बात पर विश्वास करते हैं कि सूर्य चांद और तारे उनके खजानों से ही उदय होते हैं और उनके बगीचों के अतिरिक्त कहीं अस्त नहीं होते। "मैं उन पदलोलुपों के पास से भागा, जो लोगों की आंखों में सुनहरी धूल झोंककर और उनके कानों की अर्थ विहीन आवाजों से भरकर उनके सांसारिक जीवन की छिन्न- भिन्न कर देते हैं।

 "मैंने एकान्तवास ग्रहण किया;  क्योंकि मुझे तबतक कभी किसी से दया न मिली, जबतक मैंने जी-जान स उसका पूरा-पूरा मूल्य न चुका दिया।

"मैं उन धर्म-गुरुओं से अगल हुआ, जो धर्मोपदेशों के अनुकूल स्वयं जीवन नहीं बिताते, किन्तु अन्य लोगों से ऐसे आचरण की मागं करते हैं, जिसे वे स्वयं अपनाते नहीं।

 "मैंने एकान्तवास अपनाया; क्योंकि उस महान और विकट संस्था से ही मैं विमुख था, जिसे लोग सभ्यता कहते हैं और जो मनुष्य जाति की अविच्छिन्न दुर्गति पर एक सुरुप दानवता के रुप में छाई हुई है।

 "मैं एकान्तवासी इसलिए बना कि इसी में आत्मा के लिए, हृदय के लिए तथा शरीर के लिए पूर्ण जीवन है। अपने इस एकान्तवास में मैंने वह मनोहर देश ढूंढ निकाला है, जहां सूर्य का प्रकाश विश्राम करता है: जहां पुष्प अपनी सुगन्ध को अपने मुक्त श्वासों द्वारा शून्य में बिखेरते, हैं, और जहां सरिताएं गाती हुई सागर को जाती हैं। मैंने ऐसे पहाड़ों को खोज निकाला है, जहां मैं स्वच्छ वसन्त को जागते हुए देखता हूं। और ग्रीष्म की रंगीन अभिलाषाओं, शरद के वैभवपूर्ण गीतों और शीत के सुन्दर रहस्यों को पाता हूं। ईश्वर के राज्य के इस दूर कोने में मैं इसलिए आया हूं। क्योंकि विश्च के रहस्यों को जानने और प्रभु के सिंहासन के निकट पहुंचने के  लिए भी तो मैं भूखा हूं।"

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