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शान्ति प्रेमचंद Santi Premchand's Hindi story

शान्ति प्रेमचंद Santi Premchand's Hindi story

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शांति

 

मैंने कहा तुमने उसके घर वालों से पता नहीं लगाया।
‘लगाया क्‍यों नहीं भैया, सब हाल मालूम हो गया। लौंडा चाहता है, मैं चाहे जिस राह जाऊँ, सुन्‍नी मेरी पूरा करती रहे। सुन्‍नी भला इसे क्‍यों सहने लगी? उसे तो तुम जानते हो, कितनी अभिमानी है। वह उन स्त्रियों में नहीं है, जो पति को देवता समझती है और उसका दुर्व्‍यवहार सहती रहती है। उसने सदैव दुलार और प्‍यार पाया है। बाप भी उस पर जान देता था। मैं आंख की पुतली समझती थी। पति मिला छैला, जो आधी आधी रात तक मारा मारा फिरता है। दोनों में क्‍या बात हुई यह कौन जान सकता है, लेकिन दोनों में कोई गांठ पड़ गई है। न सुन्‍नी की परवाह करता है, न सुन्‍न उसकी परवाह करती है,  मगर वह तो अपने रंग में मस्‍त है, सुन्‍न प्राण दिये देती है। उसके लिए सुन्‍नी की जगह मुन्‍नी है, सुन्‍न के लिए उसकी अपेक्षा है और रूदन है।’
मैंने कहा—लेकिन तुमने सुन्‍नी को समझाया नहीं। उस लौंडे का क्‍या बिगडेगा? इसकी तो जिन्‍दगी खराब हो जाएगी।
गोपा की आंखों में आंसू भर आए, बोली—भैया-किस दिल से समझाऊँ? सुन्‍नी को देखकर तो मेर छाती फटने लगती है। बस यही जी चाहता है कि इसे अपने कलेजे में ऐसे रख लूं, कि इसे कोई कड़ी आंख से देख भी न सके। सुन्‍नी फूहड़ होती, कटु भाषिणी होती, आरामतलब होती, तो समझती भी। क्‍या यह समझाऊँ कि तेरा पति गली गली मुँह काला करता फिरे, फिर भी तू उसकी पूजा किया कर? मैं तो खुद यह अपमान न सह सकती। स्‍त्री पुरूष में विवाह की पहली शर्त यह है कि दोनों सोलहों आने एक-दूसरे के हो जाएं। ऐसे पुरूष तो कम हैं, जो स्‍त्री को जौ-भर विचलित होते देखकर शांत रह सकें, पर ऐसी स्त्रियां बहुत हैं, जो पति को स्‍वच्‍छंद समझती हैं। सुन्‍न उन स्त्रियों में नहीं है। वह अगर आत्‍मसमर्पण करती है तो आत्‍मसमर्पण चाहती भी है, और यदि पति में यह बात न हुई, तो वह उसमें कोई संपर्क न रखेगी, चाहे उसका सारा जीवन रोते कट जाए।
यह कहकर गोपा भीतर गई और एक सिंगारदान लाकर उसके अंदर के आभूषण दिखाती हुई बोली सुन्‍नी इसे अब की यहीं छोड़ गई। इसीलिए आयी थी। ये वे गहने हैं जो मैंने न जाने कितना कष्‍ट सहकर बनवाए थे। इसके पीछे महीनों मारी मारी फिरी थी। यों कहो कि भीख मांगकर जमा किये थे। सुन्‍नी अब इसकी ओर आंख उठाकर भी नहीं देखती! पहने तो किसके लिए? सिंगार करे तो किस पर? पांच संदूक कपडों के दिए थे। कपडे सीते-सीते मेरी आंखें फूट गई। यह सब कपडे उठाती लायी। इन चीजों से उसे घृणा हो गई है। बस, कलाई में दो चूडियां और एक उजली साड़ी; यही उसका सिंगार है।
मैंने गोपा को सांत्‍वना दी—मैं जाकर केदारनाथ से मिलूंगा। देखूं तो, वह किस रंग ढंग का आदमी है।
गोपा ने हाथ जोडकर कहा—नहीं भरेया, भूलकर भी न जाना; सुन्‍नी सुनेगी तो प्राण ही दे देगी। अभिमान की पुतली ही समझो उसे। रस्‍सी समझ लो, जिसके जल जाने पर भी बल नहीं जाते। जिन पैरों से उसे ठुकरा दिया है, उन्‍हें वह कभी न सहलाएगी। उसे अपना बनाकर कोई चाहे तो लौंडी बना ले, लेकिन शासन तो उसने मेरा न सहा, दूसरों का क्‍या सहेगी।
मैंने गोपा से उस वक्‍त कुछ न कहा, लेकिन अवसर पाते ही लाला मदारीलाल से मिला। मैं रहस्‍य का पता लगाना चाहता था। संयोग से पिता और पुत्र, दोंनों ही एक जगह पर मिल गए। मुझे देखते ही केदार ने इस तरह झुककर मेरे चरण छुए कि मैं उसकी शालीनता पर मुग्‍ध हो गया। तुरंत भीतर गया और चाय, मुरब्‍बा और मिठाइयां लाया। इतना सौम्‍य, इतना सुशील, इतना विनम्र युवक मैंने न देखा था। यह भावना ही न हो सकती थी कि इसके भीतर और बाहर में कोई अंतर हो सकता है। जब तक रहा सिर झुकाए बैठा रहा। उच्‍छृंखलता तो उसे छू भी नहीं गई थी।
जब केदार टेनिस खेलने गया, तो मैंने मदारीलाल से कहा केदार बाबू तो बहुत सच्‍चरित्र जान पडते हैं, फिर स्‍त्री पुरूष में इतना मनोमालिन्‍य क्‍यों हो गया है।
मदारीलाल ने एक क्षण विचार करके कहा इसका कारण इसके सिवा और क्‍या बताऊँ कि दोनों अपने माँ-बाप के लाड़ले हैं, और प्‍यार लड़कों को अपने मन का बना देता है। मेरा सारा जीवन संघर्ष में कटा। अब जाकर जरा शांति मिली है। भोग-विलास का कभी अवसर ही न मिला। दिन भर परिश्रम करता था, संध्या को पडकर सो जाता था। स्‍वास्‍थ्‍य भी अच्‍छा न था, इसलिए बार-बार यह चिंता सवार रहती थी कि संचय कर लूं। ऐसा न हो कि मेरे पीछे बाल बच्‍चे भीख मांगते फिरे। नतीजा यह हुआ कि इन महाशय को मुफ्त का धन मिला। सनक सवार हो गई। शराब उडने लगी। फिर ड्रामा खेलने का शौक हुआ। धन की कमी थी ही नहीं, उस पर माँ-बाप  अकेले बेटे। उनकी प्रसन्‍नता ही हमारे जीवन को स्‍वर्ग था। पढ़ना-लिखना तो दूर रहा, विलास की इच्‍छा बढ़ती गई। रंग और गहरा हुआ, अपने जीवन का ड्रामा खेलने लगे। मैंने यह रंग देखा तो मुझे चिंता हुई। सोचा, ब्‍याह कर दूं, ठीक हो जाएगा। गोपा देवी का पैगाम आया, तो मैंने तुरंत स्‍वीकार कर लिया। मैं सुन्‍नी को देख चुका था। सोचा, ऐसा रूपवती पत्‍नी पाकर इनका मन स्थिर हो जाएगा, पर वह भी लाड़ली लड़की थी—हठीली, अबोध, आदर्शवादिनी। सहिष्‍णुता तो उसने सीखी ही न थी। समझौते का जीवन में क्‍या मूल्‍य है, इसक उसे खबर ही नहीं। लोहा लोहे से लड़ गया। वह अ‍भन से पराजित करना चाहती है या उपेक्षा से, यही रहस्‍य है। और साहब मैं तो बहू को ही अधिक दोषी समझता हूं। लड़के प्राय मनचले होते हैं। लड़कियां स्‍वाभाव से ही सुशील होती हैं और अपनी जिम्‍मेदारी समझती हैं। उसमें ये गुण हैं नहीं। डोंगा कैसे पार होगा ईश्‍वर ही जाने।
सहसा सुन्‍नी अंदर से आ गई। बिल्‍कुल अपने चित्र की रेखा सी, मानो मनोहर संगीत की प्रतिध्‍वनि हो। कुंदन तपकर भस्‍म हो गया था। मिटी हुई आशाओं का इससे अच्‍छा चित्र नहीं हो सकता। उलाहना देती हुई बोली—आप जानें कब से बैठे हुए हैं, मुझे खबर तक नहीं और शायद आप बाहर ही बाहर चले भी जाते?
मैंने आंसुओं के वेग को रोकते हुए कहा नहीं सुन्‍नी, यह कैसे हो सकता था तुम्‍हारे पास आ ही रहा था कि तुम स्‍वयं आ गई।
मदारीलाल कमरे के बाहर अपनी कार की सफाई करने लगे। शायद मुझे सुन्‍नी से बात करने का अवसर देना चाहते थे।
सुन्‍नी ने पूछा—अम्‍मां तो अच्‍छी तरह हैं?
‘हां अच्‍छी हैं। तुमने अपनी यह क्‍या गत बना रखी है।’
‘मैं अच्‍छी तरह से हूं।’
‘यह बात क्‍या है? तुम लोगों में यह क्‍या अनबन है। गोपा देवी प्राण दिये डालती हैं। तुम खुद मरने की तैयारी कर रही हो। कुछ तो विचार से काम लो।’
सुन्‍नी के माथे पर बल पड़ गए—आपने नाहक यह विषय छेड़ दिया चाचा जी! मैंने तो यह सोचकर अपने मन को समझा लिया कि मैं अभागिन हूं। बस, उसका निवारण मेरे बूते से बाहर है। मैं उस जीवन से मृत्‍यु को कहीं अच्‍छा समझती हूं, जहां अपनी कदर न हो। मैं व्रत के बदले में व्रत चाहती हूं। जीवन का कोई दूसरा रूप मेरी समझ में नहीं आता। इस विषय में किसी तरह का समझौता करना मेरे लिए असंभव है। नतीजे मी मैं परवाह नहीं करती।
‘लेकिन...’
‘नहीं चाचाजी, इस विषय में अब कुछ न कहिए, नहीं तो मैं चली जाऊँगी।’
‘आखिर सोचो तो...’
‘मैं सब सोच चुकी और तय कर चुकी। पशु को मनुष्‍य बनाना मेरी शक्ति से बाहर है।’
इसके बाद मेरे लिए अपना मुंह बंद करने के सिवा और क्‍या रह गया था?


5

मई का महीना था। मैं मंसूर गया हुआ था कि गोपा का तार पहुचा तुरंत आओ, जरूरी काम है। मैं घबरा तो गया लेकिन इतना निश्चित था कि कोई दुर्घटना नहीं हुई है। दूसरे दिन दिल्‍ली जा पहुचा। गोपा मेरे सामने आकर खड़ी हो गई, निस्‍पंद, मूक, निष्‍प्राण, जैसे तपेदिक की रोगी हो।
‘मैंने पूछा कुशल तो है, मैं तो घबरा उठा।‘
‘उसने बुझी हुई आंखों से देखा और बोल सच।’
‘सुन्‍नी तो कुशल से है।’
‘हां अच्‍छी तरह है।’
‘और केदारनाथ?’
‘वह भी अच्‍छी तरह हैं।’
‘तो फिर माजरा क्‍या है?’
‘कुछ तो नहीं।’
‘तुमने तार दिया और कहती हो कुछ तो नहीं।’
‘दिल तो घबरा रहा था, इससे तुम्‍हें बुला लिया। सुन्‍नी को किसी तरह समझाकर यहां लाना है। मैं तो सब कुछ करके हार गई।’
‘क्‍या इधर कोई नई बात हो गई।’
‘नयी तो नहीं है, लेकिन एक तरह में नयी ही समझो, केदार एक ऐक्‍ट्रेस के साथ कहीं भाग गया। एक सप्‍ताह से उसका कहीं पता नहीं है। सुन्‍नी से कह गया है—जब तक तुम रहोगी घर में नहीं आऊँगा। सारा घर सुन्‍नी का शत्रु हो रहा है, लेकिन वह वहां से टलने का नाम नहीं लेता। सुना है केदार अपने बाप के दस्‍तखत बनाकर कई हजार रूपये बैंक से ले गया है।
‘तुम सुन्‍नी से मिली थीं?’
‘हां, तीन दिन से बराबर जा रही हूं।’
‘वह नहीं आना चाहती, तो रहने क्‍यों नहीं देती।’
‘वहां घुट घुटकर मर जाएगी।’
‘मैं उन्‍हीं पैरों लाला मदारीलाल के घर चला। हालांकि मैं जानता था कि सुन्‍नी किसी तरह न आएगी, मगर वहां पहुचा तो देखा कुहराम मचा हुआ है। मेरा कलेजा धक से रह गया। वहां तो अर्थी सज रही थी। मुहल्‍ले के सैकड़ों आदमी जमा थे। घर में से ‘हाय! हाय!’ की क्रंदन-ध्‍वनि आ रही थी। यह सुन्‍नी का शव था।
मदारीलाल मुझे देखते ही मुझसे उन्‍मत की भांति लिपट गए और बोले:
‘भाई साहब, मैं तो लुट गया। लड़का भी गया, बहू भी गयी, जिन्‍दगी ही गारत हो गई।’
मालूम हुआ कि जब से केदार गायब हो गया था, सुन्‍नी और भी ज्‍यादा उदास रहने लगी थी। उसने उसी दिन अपनी चूडियां तोड़ डाली थीं और मांग का सिंदूर पोंछ डाला था। सास ने जब आपत्ति की, तो उनको अपशब्‍द कहे। मदारीलाल ने समझाना चाहा तो उन्‍हें भी जली-कटी सुनायी। ऐसा अनुमान होता था—उन्‍माद हो गया है। लोगों ने उससे बोलना छोड़ दिया था। आज प्रात:काल यमुना स्‍नान करने गयी। अंधेरा था, सारा घर सो रहा था, किसी को नहीं जगाया। जब दिन चढ़ गया और बहू घर में न मिली, तो उसकी तलाश होने लगी। दोपहर को पता लगा कि यमुना गयी है। लोग उधर भागे। वहां उसकी लाश मिली। पुलिस आयी, शव की परीक्षा हुई। अब जाकर शव मिला है। मैं कलेजा थामकर बैठ गया। हाय, अभी थोडे दिन पहले जो सुन्‍दरी पालकी पर सवार होकर आयी थी, आज वह चार के कंधे पर जा रही है!
मैं अर्थी के साथ हो लिया और वहां से लौटा, तो रात के दस बज गये थे। मेरे पांव कांप रहे थे। मालूम नहीं, यह खबर पाकर गोपा की क्‍या दशा होगी। प्राणांत न हो जाए, मुझे यही भय हो रहा था। सुन्‍नी उसकी प्राण थी। उसकी जीवन का केन्‍द्र थी। उस दुखिया के उद्यान में यही पौधा बच रहा था। उसे वह हृदय रक्‍त से सींच-सींचकर पाल रही थी। उसके वसंत का सुनहरा स्‍वप्‍न ही उसका जीवन था उसमें कोपलें निकलेंगी, फूल खिलेंगे, फल लगेंगे, चिड़िया उसकी डाली पर बैठकर अपने सुहाने राग गाएंगी, किन्‍तु आज निष्‍ठुर नियति ने उस जीवन सूत्र को उखाडकर फेंक दिया। और अब उसके जीवन का कोई आधार न था। वह बिन्‍दु ही मिट गया था, जिस पर जीवन की सारी रेखाएँ आकर एकत्र हो जाती थीं।
दिल को दोनों हाथों से थामे, मैंने जंजीर खटखटायी। गोपा एक लालटेन लिए निकली। मैंने गोपा के मुख पर एक नए आनंद की झलक देखी।
मेरी शोक मुद्रा देखकर उसने मातृवत् प्रेम से मेरा हाथ पकड तलया और बोली आज तो तुम्‍हारा सारा दिन रोते ही कटा; अर्थी के साथ बहुत से आदमी रहे होंगे। मेरे जी में भी आया कि चलकर सुन्‍नी के अंतिम दर्शन कर लूं। लेकिन मैंने सोचा, जब सुन्‍न ही न रही, तो उसकी लाश में क्‍या रखा है! न गयी।
मैं विस्‍मय से गोपा का मुहँ देखने लगा। तो इसे यह शोक-समाचार मिल चुका है। फिर भी वह शांति और अविचल धैर्य! बोला अच्‍छा-किया, न गयी रोना ही तो था।
‘हां, और क्‍या? रोयी यहां भी, लेकिन तुमसे सचव कहती हूं, दिल से नहीं रोयी। न जाने कैसे आंसू निकल आए। मुझे तो सुन्‍नी की मौत से प्रसन्‍नता हुई। दुखिया अपनी मान मर्यादा लिए संसार से विदा हो गई, नहीं तो न जाने क्‍या क्‍या देखना पड़ता। इसलिए और भी प्रसन्‍न हूं कि उसने अपनी आन निभा दी। स्‍त्री के जीवन में प्‍यार न मिले तो उसका अंत हो जाना ही अच्‍छा। तुमने सुन्‍नी की मुद्रा देखी थी? लोग कहते हैं, ऐसा जान पड़ता था—मुस्‍करा रही है। मेरी सुन्‍नी सचमुच देवी थी। भैया, आदमी इसलिए थोडे ही जीना चाहता है कि रोता रहे। जब मालूम हो गया कि जीवन में दु:ख के सिवा कुछ नहीं है, तो आदमी जीकर क्‍या करे। किसलिए जिए? खाने और सोने और मर जाने के लिए? यह मैं नहीं चाहती कि मुझे सुन्‍नी की याद न आएगी और मैं उसे याद करके रोऊँगी नहीं। लेकिन वह शोक के आंसू न होंगे। बहादुर बेटे की मां उसकी वीरगति पर प्रसन्‍न होती है। सुन्‍नी की मौत मे क्‍या कुछ कम गौरव है? मैं आंसू बहाकर उस गौरव का अनादर कैसे करूं? वह जान‍ती है, और चाहे सारा संसार उसकी निंदा करे, उसकी माता सराहना ही करेगी। उसकी आत्‍मा से यह आनंद भी छीन लूं? लेकिन अब रात ज्‍यादा हो गई है। ऊपर जाकर सो रहो। मैंने तुम्‍हारी चारपाई बिछा दी है, मगर देखे, अकेले पडे-पडे रोना नहीं। सुन्‍नी ने वही किया, जो उसे करना चाहिए था। उसके पिता होते, तो आज सुन्‍नी की प्रतिमा बनाकर पूजते।’
मैं ऊपर जाकर लेटा, तो मेरे दिल का बोझ बहुत हल्‍का हो गया था, किन्‍तु रह-रहकर यह संदेह हो जाता था कि गोपा की यह शांति उसकी अपार व्‍यथा का ही रूप तो नहीं है?

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