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पर्वत यात्रा प्रेमचंद parvat yaatra Premchand's Hindi story

पर्वत यात्रा प्रेमचंद parvat yaatra Premchand's Hindi story

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पर्वत यात्रा

 

कुंअर—अगर उनके साथ ठहरने का मौका मिले, तब तो मैं समझूं नैनीताल का जाना पारस हो गया।

3

एक हफ्ता गुजर गया। सफर की तैयारियां हो गई। प्रात:काल काटन साहब का खत आया कि आप हमारे यहां आएंगे या मुझसे स्टेशन पर मिलेंगे। कुंअर साहब ने जवाब लिखबाया कि आप इधर ही आ जाइएगा। स्टेशन का रास्ता इसी तरफ से है। मैं तैयार रहूंगा। यह खत लिखवा कर कुंअर साहब अन्दर गए तो देखा कि उनकी बड़ी साली रामेश्वरी देवी बैठी हुई है। उन्हें देखकर बोली—क्या आप सचमुच नैनीताल जा रहे है?
कुंअर—जी हां, आज रात की तैयारी है।
रामेश्वरी—अरे! आज ही रात को! यह नहीं हो सकता। कल बच्चा का मुंडन है। मैं एक न मानूंगी। आप ही न होगे तो लोग आकर क्या करेंगे।
कुंअर—तो आपने पहले ही क्यों न कहला दिया, पहले से मालूम होता तो मैं कल जाने का इरादा ही क्यों करता।
रामेश्वरी—तो इसमें लाचारी की कौन-सी बात हैं, कल न सही दो-चार दिन बाद सही।
कुंअर साहब की पत्नी सुशीला देवी बोली—हां, और क्या, दो-चार दिन बाद ही जाना, क्या साइट टली है?
कुंअर—आह! छोटे साहब से वादा कर चुका हूं, वह रात ही को मुझे लेने आएंगे। आखिर वह अपने दिल में क्या कहेंगे?
रामेश्वरी—ऐसे-ऐसे वादे हुआ ही करते हैं। छोटे साहब के हाथ कुछ बिक तो गये नहीं हो।
कुंअर—मैं क्या कहूं कि कितना मजबूर हूं! बहुत लज्जित होना पड़ेगा।
रामेश्वरी—तो गया जो कुछ है वह छोटे साहब ही हैं, मैं कुछ नहीं!
कुंअर—आखिर साहब से क्या कहूं, कौन बहाना करूं?
रामेश्वरी—कह दो कि हमारे भतीजे का मुंडन हैं, हम एक सप्ताह तक नहीं चल सकते। बस, छुट्टी हुई।
कुंअर—(हंसकर) कितना आसान कर दिया है आपने इस समस्या कों ऐसा हो सकता है कहीं। कहीं मुंह दिखाने लायक न रहूंगा।
सुशीला—कयों, हो सकने को क्या हुआ? तुम उसके गुलाम तो नहीं हो?
कुंअर—तुम लोग बाहर तो निकलती-पैठती नहीं हो, तुम्हें क्या मालूम कि अंग्रेजों के विचार कैसे होते है।
रामेश्वरी—अरे भगवान्! आखिर उसके कोई लड़का-बाला है, या निगोड़ नाठा है। त्योहार और व्योहार हिन्दू-मुसलमान सबके यहां होते है।
कुंअर—भई हमसे कुछ करते-धरते नहीं बनता।
रामश्वरी—हमने कह दिया, हम जाने नहीं देगे। अगर तुम चले गये तो मुझे बड़ा रंज होगा। तुम्हीं लोगों से तो महफिल की शोभा होगी और अपना कौन बैठा हुआ है।
कुंअर—अब तो साहब को लिख भेजने का भी मौका नहीं है। वह दफ्तर चले गये होंगे। मेरा सब असबाब बंध चुका है। नौकरों को पेशगी रूपया दे चुका कि चलने की तैयारी करें। अब कैसे रूक सकता हूँ!
रामेश्वरी—कुछ भी हो, जाने न पाओंगे।
सुशीला—दो-चार दिन बाद जाने में ऐसी कौन-सी बड़ी हानि हुई जाती हैं? वहां कौन लड्डू धरे हुए है?
कुंअर साहब बड़े धर्म-संकट में पड़े, अगर नहीं जाते तो छोटे साहब से झूठे पड़ते है। वह अपने दिल में कहेंगें कि अच्छे बेहुदे आदमी के साथ पाला पड़ा। अगर जाते है तो स्त्री से बिगाड़ होती हैं, साली मुंह फुलाती है। इसी चक्कर में पड़े हुए बाहर आये तो मियां वाजिद बोले—हुजूर इस वक्त कुछ उदास मालूम होते है।
व्यास—मुद्रा तेजहीन हो गई है।
कुंअर—भई, कुछ न पूछो, बड़े सकंट में हूं।
वाजिद—क्या हुआ हुजूर, कुछ फरमाइए तो?
कुंअर—यह भी एक विचित्र ही देश है।
व्यास—धर्मावतार, प्राचीन काल से यह ऋषियों की तपोभूमि है।
लाला—क्या कहना है, संसार में ऐसा देश दूसरा नहीं।
कुंअर—जी हां, आप जैसे गौखे और किस देश में होंगे। बुद्धि तो हम लोगों को भी छू नहीं गई।
वाजिद—हुजूर, अक्ल के पीछे तो हम लोग लट्ठ लिए फिरते है।
व्यास—धर्मावतार, कुछ कहते नहीं बनता। बड़ी हीन दशा है।
कुंअर—नैनीताल जाने को तैयार था। अब बड़ी साली कहती है कि मेरे बच्चे का मुंडन है, मैं न जाने दूंगी। चले जाओंगे तो मुझे रंज होगा। बतलाइए, अब क्या करूं। ऐसी मूर्खता और कहां देखने में आएगी। पूछो मुंडन नाई करेगा, नाच-तमाशा देखने वालों की शहर में कमी नहीं, एक मैं न हूंगा न सही, मगर उनको कौन समझाये।
व्यास—दीनबन्धु, नारी-हठ तो लोक प्रसिद्ध ही है।
कुंअर—अब यह सोचिए कि छोटे साहब से क्या बहाना किया जायगा।
वाजिद—बड़ा नाजुक मुआमला आ पड़ा हुजूर।
लाला—हाकिम का नाराज हो जाना बुरा है।
वाजिद—हाकिम मिट्टी का भी हो, फिर भी हाकिम ही है।
कुंअर—मैं तो बड़ी मुसीबत में फंस गया।
लाला—हुजूर, अब बाहर न बैठे। मेरी तो यही सलाह है। जो कुछ सिर पर पड़ेगी, हम ओढ़ लेंगे।
वाजिद—अजी, पसीने की जगह खून गिरा देंगे। नमक खाया है कि दिल्लगी है।
लाला—हां, मुझे भी यही मुनासिब मालूम होता है। आप लोग कह दीजिए, बीमार हो गए है।
अभी यही बातें हो रही थी कि खिदमतगार ने आकर हांफते हुए कहा—सरकार, कोऊ आया है, तौन सरकार का बुलावत है।
कुंअर—कौन है पूछा नहीं?
खिद.—कोऊ रंगरेज है सरकार, लाला-लाल मुंह हैं, घोड़ा पर सवार है।
कुंअर—कहीं छोटे साहब तो नहीं हैं, भई मैं तो भीतर जाता हूं। अब आबरू तुम्हारे हाथ है।
कुंअर साहब ने तो भीतर घुसकर दरवाजा बन्द कर लिया। वाजिदअली ने खिड़की से झांकर देखा, तो छोटे साहब खड़े थे। हाथ-पांव फूल गये। अब साहब के सामने कौन जाय? किसी की हिम्मत नहीं पड़ती। एक दूसरे को ठेल रहा है।
लाला—बढ़ जाओं वाजिदअली। देखो कया कहते हैं?
वाजिद—आप ही क्यों नहीं चले जाते?
लाला—आदमी ही तो वह भी हैं, कुछ खा तो न जाएगा।
वाजिद—तो चले क्यों नहीं जाते।
काटन साहब दो-तीन मिनट खड़े रहे। अब यहाँ से कोई न निकला तो बिगड़कर बोले—यहां कौन आदमी है? कुंअर साहब से बोलो, काटन साहब खड़ा है।
मियां वाजिद बौखलाये हुए आगे बढ़े और हाथ बांधकर बोले—खुदावंद, कुंअर साहब ने आज बहुत देर से खाना खाया, तो तबियत कुछ भारी हो गई है। इस वक्त आराम में हैं, बाहर नहीं आ सकते।
काटन—ओह! तुम यह क्या बोलता है? वह तो हमारे साथ नैनीताल जाने वाला था। उसने हमको खत लिखा था।
वाजिद—हां, हुजूर, जाने वाले तो थे, पर बीमार हो गये।
काटन—बहुंत रंज हुआ।
वाजिद—हुजूर, इत्तफाक है।
काटन—हमको बहुत अफसोस है। कुंअर साहब से जाकर बोलो, हम उनको देखना मांगता है।
वाजिद—हुजूर, बाहर नहीं आ सकते।
काटन—कुछ परवाह नहीं, हम अन्दर जाकर देखेंगा।
कुंअर साहब दरवाजे से चिमटे हुए काटन साहब की बातें सुन रहे थे। नीचे की सांस नीचे थी, ऊपर की ऊपर। काटन साहब को घोड़े से उतरकर दरवाजे की तरफ आते देखा, तो गिरते-पड़ते दौड़े और सुशीला से बोले—दुष्ट मुझे देखने घर में आ रहा है। मैं चारपाई पर ले जाता हूं, चटपट लिहाफ निकलवाओं और मुझे ओढ़ा दो। दस-पांच शीशियां लाकर इस गोलमेज पर रखवा दो।
इतने में वाजिदअली ने द्वार खटखटाकर कहा—महरी, दरवाजा खोल दो, साहब बहादुर कुंअर साहब को देखना चाहते है। सुशीला ने लिहाफ मांगा, पर गर्मी के दिन थे, जोड़े के कपड़े सन्दूकों में बन्द पड़ें थे। चटपट सन्दूक खोलकर दो-तीन मोटे-मोटे लिहाफ लाकर कुंअर साहब को ओढा दिये। फिर आलमारी से कई शीशियां और कई बोतल निकालकर मेज पर चुन दिये और महरी से कहा—जाकर किवाड़ खोल दो, मैं ऊपर चली जाती हूं।
काटन साहब ज्यों ही कमरे में पहुंचे, कुंअर साहब ने लिहाफ से मुंह निकला लिया और कराहते हुए बोले—बड़ा कष्ट है हुजूर। सारा शरीर फुंका जाता है।
काटन—आप दोपहर तक तो अच्छा था, खां साहब हमसे कहता था कि आप तैयार हैं, कहां दरद है?
कुंअर—हुजूर पेट में बहुंत दर्द हैं। बस, यही मालूम होता है कि दम निकल जायेगा।
काटन—हम जाकर सिविल सर्जन को भेज देता है। वह पेट का दर्द अभी अच्छा कर देगा। आप घबरायें नहीं, सिविल सर्जन हमारा दोस्त है।
काटन चला गया तो कुंअर साहब फिर बाहर आ बैठे। रोजा बख्शाने गये थे, नमाज गले पड़ी। अब यह फिक्र पैदा हुई कि सिविल सर्जन को कैसे टाला जाय।
कुंअर—भई, यह तो नई बला गले पड़ी।
वाजिद—कोई जाकर खां साहब को बुला लाओं। कहना, अभी चलिए ऐसा न हो कि वह देर करें और सिविल सर्जन यहां सिर पर सवार हो जाय।
लाला—सिविल सर्जन की फीस भी बहुत होगी?
कुंअर—अजी तुम्हें फीस की पड़ी है, यहां जान आफत में है। अगर सौ दो सौ देकर गला छूट जाय तो अपने को भाग्यवान समझूं।
वाजिदअली ने फिटन तैयार कराई और खां साहब के घर पहुंचें देखा ते वह असबाब बंधवा रहे थे। उनसे सारा किस्सा बयान किया और कहा—अभी चलिए। आपकों बुलाया है।
खां—मामला बहुत टेढ़ा है। बड़ी दौड़-धूप करनी पड़ेगी। कसम खुदा की, तुम सबके सब गर्दन मार देने के लायक हो। जरा-सी देर के लिए मैं टल क्या गया कि सारा खेल ही बिगाड़ दिया।
वाजिद—खां साहब, हमसे तो उड़िए नहीं। कुंअर साहब बौखलाये हुए हैं। दो-चार सौ  का वारा-न्यारा है। चलकर सिविल सर्जन को मना कर दीजिए।
खां—चलो, शायद कोई तरकीब सूझ जाये।
दोनों आदमी सिविल सर्जन की तरफ चले। वहां मालूम हुआ कि साहब कुंअर साहब के मकान पर गये है। फौरन फिटन घुमा दी, और कुंअर साहब की कोठी पर पहुंचे। देखा तो सर्जन साहब एनेमा लिये हुए कुंअर चाहब की चारपाई के सामने बैठे हुए है।
खाँ—मैं तो हुजूर कें बंगले से चला आ रहा हूँ। कुअर साहब का क्या हाल है?
डाक्टर—पेट मे दर्द है। अभी पिचकारी लगाने से अच्छा हो जायेगा।
कुंअर—हुजूर, अब दर्द बिल्कुल नहीं है। मुझे कभी-कभी यह मर्ज हो जाता है और आप ही आप अच्छा हो जाता है।
डाक्टर—ओ, आप डरता है। डरने की कोई बात नहीं हे। आप एक मिनट में अच्छा हो जाएगा।
कुंअर—हुजूर, मैं बिल्कुल अच्छा हूं। अब कोई शिकायत नहीं है।
डाक्टर—डरने की कोई बात नहीं, यह सब आदमी यहां से हट जाय, हम एक मिनट में अच्छा कर देगा।
खां साहब ने डाक्टर से काम में कहा—हुजूर अपनी रात की डबल फीस और गाड़ी का किराया लेगर चले जाएं, इन रईसों के फेर में न पड़ें, यह लोग बारहों महीने इसी तरह बीमार रहते है। एक हफ्रते तक आकर देख लिया कीजिए।
डाक्टर साहब की समझ में यह बात आ गई। कल फिर आने का वादा करके चले गये। लोगों के सिर से बला टली। खां साहब की कारगुजारी की तारीफ होने लगी!
कुंअर—खां साहब आप बड़े वक्त पर काम आये। जिन्दगी-भर आपका एहसान मानूंगा।
खां—जनाब, दो सौ चटाने पड़े। कहता था छोटे साहब का हुक्म हैं। मैं बिला पिचकारी लगाये न जाऊंगा। अंग्रेजों का हाल तो आप जानते है। बात के पक्के होते है।
कुंअर—यह भी कह दिया न कि छोटे साहब को मेरी बीमारी की इत्तला कर दें और कह दें, वह सफर करने लायक नहीं है।
खां—हां साहब, और रूपये दिये किसलिए, क्या मेरा कोई रिश्तेदार था? मगर छोटे साहब को होगी बड़ी तकलीफ। बेचारे ने आपको बंगले के आसरे पर होटल का इन्तजाम भी न किया था। मामला बेढब हुआ।
कुंअर—तो भई, मैं क्या करता, आप ही सोचिए।
खां—यह चाल उल्टी पड़ी। जिस वक्त काटन साहबयहां आये थे, आपको उनसे मिलना चाहिए था। साफ कह देते, आज एक सख्त जरूरत से रुकना पड़ा। लेकिन खैर, मैं साहब के साथ रहुंगा, कोई न कोई इंतजाम हो ही जायगा।
कुंअर— क्या अभी आप जाने का इरादा कर ही रहे है! हलफ से कहता हूं, मैं आपको न जाने दूंगा, यहां न जाने कैसी पडें, मियां वाजिद देखों, आपकों घर कहला दो, बारह न जायेंगे।
खां—आप अपने साथ मुझे भी डुबाना चाहते है। छोटे साहब आपसे नाराज भी हो जाएं तो क्या कर लेंगे।, लेकिन मुझसे नाराज हो गये, तो खराब ही कर डालेंगे।
कुंअर—जब तक हम जिन्दा है भाई साहब, आपको कोई तिरछी नजर से नहीं देख सकता। जाकर छोटे साहब से कहिए, कुंअर साहब की हालत अच्दी नहीं, मैं अब नहीं जा सकता। इसमें मेरी तरफ से भी उनका दिल साफ हो जाएगा और आपकी दोस्ती देखकर आपकी और इज्जत करने लगेगा।
खां—अब वह इज्जत करें या न करें, जब आप इतना इसरार कर रहे है तो मैं भी इतना बे-मुरौवत नहीं हूं कि आपको छोड़कर चला जाऊं। यह तो हो ही नहीं सकता। जरा देर के लिए घर चला गया, उसका तो इतना तावान देना पड़ां नैनीताल चला जाऊं तो शायद कोई आपको उठा ही ले जाय।
कुंअर—मजे से दो-चार दिन जल्से देखेंगें, नैनीताल में यह मजे कहां मिलते। व्यास जी, अब तो यों नहीं बेठा जाता। देखिए, आपके भण्डार में कुछ हैं, दो-चार बोतलें निकालिए, कुछ रंग जमे।*


—‘माधुरी’, अप्रैल, १९२९

* रतननाथ सरशर-कृत ‘सैरे कोहसार’ के आधार पर।

 

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