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नबी का नीति-निर्वाह प्रेमचंद nabee ka neeti-nirvaah dost Premchand's Hindi story

नबी का नीति-निर्वाह प्रेमचंद nabee ka neeti-nirvaah dost Premchand's Hindi story

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नबी का नीति-निर्वाह

 

अबु०—मक्का से चले गये, अरब से तो नहीं चले गये, उनकी ज्यादतियां बढ़ती जा रही हैं। जिहाद के सिवा और कोई उपाय नहीं। मेरा उस जिहाद में शरीक होना बहुत जरूरी है।
जैन०—अगर तुम्हारा दिल तुम्हें मजबूर कर रहा है तो शौक से जाओ लेकिन मुझे भी साथ लेते चलो।
अबु०—अपने साथ?
जैन०—हां, मैं वहां आहत मुसलमानों की सेवा-सुश्रुषा करूंगी।
अबु०—शौक से चलो।

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घोर संग्राम हुआ। दोनों दलों ने खूब दिल के अरमान निकाले। भाई भाई से, मित्र मित्र से, बाप बेटे से लड़ा। सिद्ध हो गया कि धर्म का बन्धन रक्त और वीर्य के बन्धन से सुदृढ़ है।
दोनों दल वाले वीर थे। अंतर यह था कि मुसलमानों में नया धर्मानुराग था, मृत्यु के पश्चात् स्वर्ग की आशा थी, दिलों में आत्मविश्वास था जो नवजात सम्प्रदायों का लक्षण है। विधर्मियों में बलिदान का यह भाव लुप्त था।
कई दिन तक लड़ाई होती रही। मुसलमानों की संख्या बहुत कम थी, पर अन्त में उनके धर्मोत्साह ने मैदान मार लिया। विधर्मियों में अधिकांश काम आये, कुछ घायल हुए और कुछ कैद कर लिये गये। अबुलआस भी इन्हीं कैदियों में थे।
जैनब को ज्योंही यह मालूम हुआ उसने हजरत मुहम्मद की सेवा में अबुलआस का फदिया (मुक्तिधन) भेजा। यह वही बहुमूल्य हार था, जो खुदैज ने उसे दिया था। वह अपने पिता को उस धर्म-संकट में नहीं डालना चाहती थी जो मुक्तिधन के अभाव की दशा में उन पर पड़ता। हजरत ने यह हार देखा तो खुदैता की याद ताजी हो गई। मधुर स्मृतियों से चित्त चंचल हो उठा। अगर खुदैजा जीवित होती तो उसकी सिफारिश का असर उन पर इससे ज्यादा न होता जितना इस हार से हुआ, मानो स्वयं खुदैजा इस हार के रूप में आई थी। अबुलआस के प्रति हृदय कोमल हो गया। उसे सजा दी गई, यह हार ले लिया गया तो खुदैजा की आत्मा को कितना दुख होगा। उन्होंने कैदियों की फैसला करने के लिए एक पंचायत नियुक्त कर दी थी। यद्यपि पंचों में सभी हजरत के इष्ट-मित्र थे, पर इस्लाम की शिक्षा उनके दिलों में पुरानी आदतें, पुरानी चेष्टाएं न मिटा सकी थीं। उनमें अधिकांश ऐसे थे जिनको अबुलआस से पारिवारिक द्वेष था, जो उनसे किसी पुराने खून का बदला लेना चाहते थे। इसलाम ने उन में क्षमा और अहिंसा के भावों को अंकुरित न किया हो, पर साम्यवाद को उनके रोम-रोम में प्रतिष्ट कर दिया था। वे धर्म के विषय में किसी के साथ रू-रियायत न कर सकते थे, चाहे वह हजरत का निकट सम्बन्धी ही क्यों न हो। अबुलआस सिर झुकाये पंचों के सामने खड़े थे और कैदी पेश होते थे। उनके मुक्तिधन का मुलाहिजा होता था और वे छोड़ दिये जाते थे। अबुलआस को कोई पूछता ही न था, यद्यपि वह हार एक तश्तरी में पंचों के सम्मुख रक्खा हुआ था। हजरत के मन में बार-बार प्रबल इच्छा होती थी कि सहाबियों से कहें यह हार कितना बहुमूल्य है। पर धर्म का बन्धन, जिसे उन्होंने स्वयं प्रतिष्ठित किया था, मुंह से एक शब्द भी न निकलने देता था। यहां तक कि समस्त बन्दीजन मुक्त हो गये, अबुलआस अकेला सिर झुकाये खड़ा रहा—हजरत मुहम्मद के दामाद के साथ इतना लिहाज भी न किया गया कि बैठने की आज्ञा तो दे दी जाती। सहसा जैद ने अबुलआस की ओर कटाक्ष करके कहा—देखा, खुदा इसलाम की कितनी हिमायत करता है। तुम्हारे पास हमसे पंचगुनी सेना थी, पर खुदा ने तुम्हारा मुंह काला किया। देखा या अब भी आंखें नहीं खुलीं?
अबुलआस ने विरक्त भाव से उत्तर दिया—जब आप लोग यह मानते हैं कि खुदा सबका मालिक है तब वह अपने एक बन्दे को दूसरे की गर्दन काटने में मदद न देगा। मुसलमानों ने इसलिए विजय पायी कि गलत या सही उन्हें अटल विश्वास है कि मृत्यु के बाद हम स्वर्ग में जायेंगे। खुदा को आप नाहक बदनाम करते हैं।
जैद—तुम्हारा मुक्ति-धन काफी नहीं है।
अबुलआस—मैं इस हार को अपनी जान से ज्यादा कीमती समझता हूं। मेरे घर में इससे बहुमूल्य और कोई वस्तु नहीं है।
जैद—तुम्हारे घर में जैनब हैं जिन पर ऐसे सैकड़ों हार कुर्बान किये जा सकते हैं।
अबु०—तो आपकी मंशा है कि मेरी बीवी मेरा फदिया हो। इससे तो यह कहीं बेहतर है कि मैं कत्ल कर दिया जाता। अच्छा, अगर मैं वह फदिया न दूं तो?
जैद—तो तुम्हें आजीवन यहां गुलामों की तरह रहना पड़ेगा। तुम हमारे रसूल के दामाद हो, इस रिश्ते से हम तुम्हारा लिहाज करेंगे, पर तुम गुलाम ही समझे जाओंगे।
हजरत मुहम्मद निकट बैठे हुए ये बातें सुन रहे थे। वे जानते थे कि जैनब और आस एक-दूसरे पर जान देते हैं। उनका वियोग दोनों ही के लिए घातक होगा। दोनों घुल-घुलकर मर जायंगे। सहाबियों को एक बार पंच चुन लेने के बाद उनके फैसले में दखल देना नीति-विरुद्ध था। इससे इसलाम की मर्यादा भंग होती थी। कठिन आत्मवेदना हुई। यहां बैठे न रह सके। उठकर अन्दर चले गये। उन्हें ऐसा मालूम हो रहा था कि जैनब की गर्दन पर तलवार फेरी जा रही हैं। जैनब की दीन, करुणापूर्ण मूर्ति आंखों के सामने खड़ी मालूम होती थी। पर मर्यादा, निर्दय, निष्ठुर मर्यादा का बलिदान मांग रही थी।
अबुलआस के सामने भी विषम समस्या थी। इधर गुलामों का अपमान था, उधर वियोग की दारुण वेदना थी।
अन्त में उन्होंने निश्यच किया, यह वेदना सहूंगा, अपमान न सहूंगा। प्रेम को गौरव पर समर्पित कर दूंगा। बोले—मुझे आपका फैसला मंजूर है। जैनब मेरा फदिया होगी।


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निश्चय किया गया कि जैद अबुलआस के साथ जायं और आबादी से बाहर ठहरे। आस घर जाकर तुरन्त जैनब को वहां भेज दें। आस पर इतना विश्वास था कि वे अपना वचन पूरा करेंगे।
आस घर पहुंचे तो जैनब उनसे गले मिलने दौड़ी। आस हट गये और कातर स्वर से बोले—नहीं जैनब, मैं तुमसे गले न मिलूंगा। मैं तुम्हें अपने फदिये के रूप में दे आया। अब मेरा तुमसे कोई सम्बन्ध नहीं है। यह तुम्हारा हार है, ले लो, और फौरन यहां से चलने की तैयारी करो। जैद तुम्हें लेने को आये हैं।
जैनब पर वज्र-सा गिर पड़ा। पैर बंध गये, वहीं चित्र की भांति खड़ी रह गयी। वज्र ने रक्त को जला दिया, आंसुओं को सुखा दिया, चेतना ही न रही, रोती और बिलखती क्या। एक क्षण के बाद उसने एक बार माथा ठोका—निर्दय तकदीर के सामने सिर झुका दिया। चलने को तैयार हो गयी। घोर नैराश्य इतना दुखदायी नहीं होता जितना हम समझते हैं। उसमें एक रसहीन शान्ति होती है। जहां सुख की आशा नहीं वहां दुख का कष्ट कहाँ!
मदीने में रसूल की बेटी की जितनी इज्जत होनी चाहिए उतनी होती थी। वह पितागृह की स्वामिनी थी। धन था, मान था, गौरव था, धर्म था, प्रेम न था। आंख में सब कुछ था, केवल पुतली न थी। पति के वियोग में रोया करती थी। जिन्दा थी, मगर जिन्दा दरागोर। तीन साल तीन युगों की भांति बीते। घण्टे, दिन और वर्ष साधारण व्यवहारों के लिए है प्रेम के यहां समय का माप कुछ और ही है।
उधर अबुलआस द्विगुण उत्साह के साथ धनोपार्जन में लीन हुआ, महीनों घर न आता, हंसना-बोलना सब भूल गया। धन ही उसके जीवन का एक मात्र आधार था; उसके प्रणय-वंचित हृदय को किसी विस्मृतिकारक वस्तु की चाह थी। नैराश्य और चिन्ता बहुधा शराब से शान्त होती है, प्रेम उन्माद से। अबुलआस को धनोम्माद हो गया। धन के आवरण में छिपा हुआ वियोग-दुख था, माया के पर्दे में छिपा हुआ प्रेम-वैराग्य।
जाड़ों के दिन थे। नाड़ियों में रूधिर जमा जाता था। अबुलआस मक्का से माल लादकर एक काफिले के साथ चला। रकफों का एक दल भी साथ था। कुरैशियों ने मुसलमानों के कई काफिले लूट लिये थे। अबुलआस को संशय था कि मुसलमानों के कई काफिले लूट लिये थे। अबुलआस को संशय था कि मुसलमानों का आक्रमण होगा, इसलिए उन्होंने मदीने की राह छोड़ एक दूसरा रास्ता अख्तियार किया। पर दुदैव, मुसलानों को टोह मिल ही गयी। जैद ने सत्तर चुने हुए आदमियों के साथ काफिले पर धावा कर दिया। धन के भक्त धर्म के सेवाकों से क्या बाजी ले जाते। सत्तर के सात सौ को मार भगाया। कुछ मरे, अधिकांश भागे, कुछ कैद हो गये। मुसलमानों को अतुल धन हाथ लगा। कैदी घाते में मिले। अबुलआस फिर कैद हो गया।

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कैदियों के भाग्य-निर्णय के लिए नीति के अनुसार पंचायत चुनी गयी। जैनब को यह खबर मिली तो आशाएं जाग उठीं; आशा मरती नहीं केवल सो जाती है। पिंजरे में बन्द पक्षी की भांति तड़फड़ाने लगी, पर क्या करे, किससे कहे, अबकी तो फदिये का भी कोई ठिकाना न था। या खुदा क्या होगा?
पंचों ने अबकी हजरत मुहम्मद ही को अपना प्रधान बनाया। हजरत ने इनकार किया, पर अन्त में उनके आग्रह से विवश हो गये।
अबुलआस सिर झुकाये बैठे हुए थे। हजरत ने एक बार उन पर करुणा-सूचक दृष्टि डाली, फिर सिर झुका लिया।
पंचायत शुरू हुई। अन्य कैदियों के घरों से मुक्तिधन आ गया था। वे मुक्त किये गये। अबुलआस के घर से मुक्तिधन न आया था। हजरत ने हुक्म दिया—इनका सारा माल और असबाब जब्त कर लिया जाय और ये उस वक्त तक बन्दी रहें जब तक इन्हें कोई छुड़ाने न आये। उनके अंतिम शब्द ये थे: अबुलआस, इसलाम की रणनीति के अनुसार तुम गुलाम हो। तुम्हें बाजार में बेचकर रुपया मुसलमानों में तकसीम होना चाहिए था। पर तुम ईमानदार आदमी हो, इसलिए तुम्हारे साथ इतनी रिआयत की गयी।
जैनब दरवाजे के पास आड़ में बैठी हुई थी। हजरत का यह फैसल सुनकर रो पड़ी, तब घर से बाहर निकल आयी और अबुलआस का हाथ पकड़कर बोली—अगर मेरा शौहर गुलाम है तो मैं उसकी लौंडी हूं। हम दोनों साथ बिकेंगे या साथ कैद होंगे।
हजरत—जैनब, मुझे लज्जित मत करो, मैं वही कर रहा हूं जो मेरा कर्त्तव्य है; न्याय पर बैठने वाले मनुष्य को प्रेम और द्वेष दोनों ही से मुक्त होना चाहिए। यद्यपि इस नीति का संस्कार मैंने ही किया है, पर अब मैं उसका स्वमी नहीं, दास हूं। अबुलआस से मुझे जितना प्रेम है यह खुदा के सिवा और कोई नहीं जान सकता। यह हुक्म देते हुए मुझे जितना मानसिक और आत्मिक कष्ट हो रहा है उसका अनुमान हर एक पिता कर सकता है। पर खुदा का रसूल न्याय और नीति को अपने व्यक्तिगत भावों से कलंकित नहीं कर सकता।
सहबियों ने हजरत की न्याय-व्याख्या सुनी तो मुग्ध हो गये। अबू जफर ने अर्ज की—हजरत, आपने अपना फैसला सुना दिया, लेकिन हम सब इस विषय में सहमत हैं कि अबुलआस जैसे प्रतिष्ठित व्यक्ति के यह दण्ड न्यायोचित होते हुए भी अति कठोर है और हम सर्वसम्मति से उसे मुक्त करते हैं और उसका लूटा हुआ धन लौटा देने की आज्ञा मांगते हैं।
अबुलआस हजरत मुहम्मद की न्यायपरायणता पर चकित हो गये। न्याय का इतना ऊंचा आदर्श! मर्यादा का इतना महत्व! आह, नीति पर अपना सन्तान-प्रेम तक न्यौछावर कर दिया! महात्मा, तुम धन्य हो। ऐसे ही ममता-हीन सत्पुरुषों से संसार का कल्याण होता है। ऐसे ही नीतिपालकों के हाथों जातियां बनती हैं, सभ्यताएं परिष्कृत होती हैं।
मक्के आकर अबुलआस ने अपना हिसाब-किताब साफ किया, लोगों के माल लौटाये, ऋण चुकाये, और धन-बार त्यागकर हजरत मुहम्मत की सेवा में पहुंच गये।
जैनब की मुराद पूरी हुई।


—‘सरस्वती’, मार्च, १९२४

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