मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

चौथा भाग

पत्नी की ढृढ़ता

 

डॉक्टर ने ढृढता पूर्वक उत्तर दिया, 'दवा करते समय मै दगा-वगा नही समझता । हम डॉक्टर लोग ऐसे समय रोगी को अथवा उसके सम्बन्धियो को धोखा देने मे पुण्य समझते है । हमारा धर्म तो किसी भी तरह रोगी को बचाना है ।'

मुझे बहुत दुःख हुआ । पर मै शान्त रहा । डॉक्टर मित्र थे , सज्जन थे । उन्होंने और उनकी पत्नि ने मुझ पर उपकार किया था । पर मै उक्त व्यवहार सहन करने के लिए तैयार न था ।

'डॉक्टर साहब, अब स्थिति स्पष्ट कर लीजिये । कहिये आप क्या करना चाहते है ? मै अपनी पत्नी को उसकी इच्छा के बिना माँस नही खिलाने दूँगा । माँस ने लेने के कारण उसकी मृत्यु हो जाय, तो मै उस सहने के लिए तैयार हूँ ।'

'डॉक्टर बोले, आपकी फिलासफी मेरे घर मे को हरजित नही चलेगी । मै आपसे कहता हूँ कि जब तक अपनी पत्नी को आप मेरे घर मे रहने देंगे, तब तक मै उसे अवश्य ही माँस अथवा जो कुछ भी उचित होगा , दूँगा । यदि यह स्वीकार न हो तो आप अपनी पत्नी को ले जाइये । मै अपने ही घर मे जानबूझकर उसकी मृत्यु नही होने दूँगा ।'

'तो क्या आप यह कहते है कि मै अपनी पत्नी को इसी समय ले जाऊँ ? '

'मै कब कहता हूँ कि ले जाइये ? मै तो यह कहता हूँ कि मुझ पर किसी प्रकार का अंकुश न रखिये । उस दशा मे हम दोनो उसकी सार-सम्भाल करेंगे और आप निश्चिन्त होकर जा सकेंगे । यदि यह सीधी-स बात आप न समझ सके, तो मुझे विवश होकर कहना होगा कि आप अपनी पत्नी को मेरे घर से ले जाइये ।'

मेरा ख्याल हो कि उस समय मेरा एक लड़का मेरे साथ था । मैने उससे पूछा । उसने कहा , ' आपकी बात मुझे मंजूर है । बा को माँस तो दिया ही नही जा सकता ।'

फिर मै कस्तूरबाई के पास गया । वह बहुत अशक्त थी । उससे कुछ भी पूछना मेरे लिए दुःखदायी था , किन्तु धर्म समझकर मैने उसे थोड़े मे ऊपर की बात कह सुनायी । उसने ढृढता-पूर्वक उत्तर दिया, 'मै माँस का शोरवा नही लूँगी । मनुष्य को देह बार-बार नही मिलती । चाहे आपकी गोद मे मै मर जाऊँ, पर अपनी इस देह को भ्रष्ट तो नही होने दूँगी ।'

जितना मै समझा सकता था , मैने समझाया और कहा , 'तुम मेरे विचारों का अनुसरण करने के लिए बँधी हुई नही हो ।'

हमारी जान-पहचान के कई हिन्दू दवा के लिए माँस और मद्य लेते थे, इसकी भी मैने बात की । पर वह टस-से-मस न हुई और बोली , 'मुझे यहाँ से ले चलिये ।'

मै बहुत प्रसन्न हुआ । ले जाने के विचार से घबरा गया । पर मैने निश्चय कर लिया । डॉक्टर को पत्नी का निश्चय सुना दिया । डॉक्टर गुस्सा हुए और बोले , 'आप तो बड़े निर्दय पति मालूम पड़ते है । ऐसी बीमारी मे उस बेचारी से इस तरह की बाते करने मे आपको शरम भी नही आयी ? मैं आपसे कहता हूँ कि आपकी स्त्री यहाँ से ले जाने लायक नही है । उसका शरीर इस योग्य नही है कि वह थोडा भी धक्का सहन करे । रास्ते मे ही उसकी जान निकल जाय, तो मुझे आश्चर्य न होगा । फिर भी आप अपने हठ के कारण बिल्कुल न माने , तो आप ले जाने के लिए स्वतंत्र है । यदि मै उसे शोरवा न दे सकूँ तो अपने घर मे एक रात रखने का भी खतरा मै नहीं उठा सकता ।'

रिमझिम-रिमझिम मेह बरस रहा था । स्टेशन दूर था । डगबन से फीनिक्स तक रेल का और फीनिक्स से लगभग मील का पैदल रास्ता था । खतरा काफी था, पर मैने माना कि भगवान मदद करेगा । एक आदमी को पहले से फीनिक्स भेज दिया । फीनिक्स मे हमारे पास 'हैमक' था । जालीदार कपड़े की झोली या पालने को हैमक कहते है । उसके सिरे बाँस से बाँध दिये जाये , तो बीमार उसमे आराम से झूलता रह सकता है । मैने वेस्ट को खबर भेजी कि वे हैमक , एक बोतल गरम दूध , एक बोतल गरम पानी और छह आदमियो को साथ लेकर स्टेशन पर आ जाये ।

दूसरी ट्रेन के छूटने का समय होने पर मैने रिक्शा मँगवाया और उसमे , इस खतरनाक हालत मे, पत्नी को बैठाकर म रवाना हो गया ।

मुझे पत्नी की हिम्मत नही बँधानी पड़ी, उलटे उसी ने मुझे हिम्मत बँधाते हुए कहा , 'मुझे कुछ नही होगा, आप चिन्ता न कीजिये ।'

हड्डियो के इस ढाँचे मे वजन तो कुछ रह ही नही गया था । खाया बिल्कुल नही जाता था । ट्रेन के डिब्बे तक पहुँचाने मे स्टेशन के लंबे-चौड़े प्लेटफार्म पर दूर तक चल कर जाना पड़ता था । वहां तक रिक्शा नही जा सकता था । मै उसे उठाकर डिब्बे तक ले गया । फीनिक्स पहुँचने पर तो वह झोली आ गयी थी । उसमे बीमार को आराम से ले गये । वहाँ केवल पानी के उपचार से धीरे-धीरे कस्तूरबाई का शरीर पुष्ट होने लगा ।

फीनिक्स पहुँचने के बाद दो-तीन दिन के अन्दर एक स्वामी पधारे हमारे 'हठ' की बात सुनकर उनके मन मे दया उपजी और वे हम दोनो को समझाने आये । जैसा कि मुझे याद है , स्वामी के आगमन के समय मणिलाल और रामदास भी वहाँ मौजूद थे । स्वामीजी ने माँसाहार की निर्दोषता पर व्याख्यान देना शुरू किया । मनुस्मृति के श्लोको का प्रमाण दिया । पत्नी के सामने इस तरह की चर्चा मुझे अच्छी नही लगी । पर शिष्टता के विचार से मैने उसे चलने दिया । माँसाहार के सर्मथन मे मुझे मनुस्मृति के प्रमाण की आवश्यकता नही थी । मै उसके श्लोको को जानता था । मै जानता था कि उन्हें प्रक्षिप्त माननेवाला भी एक पक्ष है । पर वे प्रक्षिप्त न होते तो भी अन्नाहार के विषय मे मेरे विचार तो स्वतंत्र रीति से पक्के हो चुके थे । कस्तूरबाई की श्रद्धा काम कर रही थी । वह बेचारी शास्त्र के प्रमाण को क्या जाने ? उसके लिए तो बाप-दादा की रूढि ही धर्म थी । लड़को को अपने पिता के धर्म पर विश्वास था । इसलिए वे स्वामीजी से मजाक कर रहे थे । अन्त मे कस्तूरबाई ने इस संवाद को यह कहकर बन्द किया , 'स्वामीजी, आप कुछ भी क्यों न कहे , पर मुझे माँस का शोरवा खाकर स्वस्थ नही होना है । अब आप मेरा सिर न पचाये , तो आपका मुझ पर बड़ा उपकार होगा । बाकी बाते आपको लड़को के पिताजी से करनी हो , तो कर लीजियेगा । मैने अपना निश्चय आपको बतला दिया । '

 

 

 

 

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