मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

चौथा भाग

आहार के अधिक प्रयोग

 

मन-वचन-काया से ब्रह्मचर्य का पालन किस प्रकार हो, यह मेरी एक चिन्ता थी, और सत्याग्रह के युद्ध के लिए अधिक से अधिक समय किस तरह बच सके और अधिक शुद्धि किस प्रकार हो, यह दूसरी चिन्ता थी । इन चिन्ताओ ने मुझे आहार मे अधिक सयंम और अधिक परिवर्तन के लिए प्रेरित किया और पहले जो परिवर्तन मै मुख्यतः आरोग्य की दृष्टि से करता था, वे अब धार्मिक दृष्टि से होने लगे ।

इसमे उपवास और अल्पाहार ने अधिक स्थान लिया । जिस मनुष्य मे विषय-वासना रहती है , उसमे जीभ के स्वाद भी अच्छी मात्रा मे होते है । मेरी भी यही स्थिति थी । जननेन्द्रिय और स्वादेन्द्रिय पर काबू पाने की कोशिश मे मुझे अनेक कठिनाइयो का सामना करना पड़ा है और आज भी मै यह दावा नही कर सकता कि मैने दोनो पर पूरी जय प्राप्त कर ली है । मैने अपने आपको अत्याहारी माना है । मित्रो ने जिसे मेरी संयम माना हैं, उसे मैने स्वयं कभी संयम माना ही नही । मै जितना अंकुश रखना सीखा हूँ उतना भी यदि न रख सका होता , तो मै पशु से भी नीचे गिर जाता और कभी का नष्ट हो जाता । कहा जा सकता है कि अपनी त्रुटियो का मुझे ठीक दर्शन होने से मैने उन्हें दूर करने के लिए घोर प्रयत्न किये है और फलतः मै इतने वर्षो तक इस शरीर को टिका सका हूँ और इससे कुछ काम ले सका हूँ ।

मुझे इसका ज्ञान था और ऐसा संग अनायास ही प्राप्त हो गया था , इसलिए मैने एकादशी का फलाहार अथवा उपवास शुरू किया । जन्माष्टमी आदि दूसरी तिथियाँ भी पालना शुरू किया , किन्तु संयम की दृष्टि से मै फलाहार और अन्नाहार के बीच बहुत भेद न देख सका । जिसे हम अनाज के रूप मे पहचानते है उसमे से जो रस हम प्राप्त करते है, वे रस हमे फलाहार मे भी मिल जाते है , और मैने देखा कि आदत पड़ने पर तो उसमे से अधिक रस प्राप्त होते है । अतएव इन तिथियो के दिन मै निराहार उपवास को अथवा एकाशन को अधिक महत्त्व देने लगा । इसके सिवा , प्रायश्चित आदि का कोई निमित्त मिल जाता , तो मै उस निमित्त से भी एक बार का उपवास कर डालता था ।

इसमे से मैने यह भी अनुभव किया कि शरीर के अधिक निर्मल होने से स्वाद बढ़ गया, भूख अधिक खुल गयी और मैने देखा कि उपवास आदि जिस हद तक संयम के साधन है , उसी हद तक वे भोग के साधन भी बन सकते है । इस ज्ञान के बाद इसके समर्थन मे इसी प्रकार के कितने ही अनुभव मुझे और दूसरो को हुए है । यद्यपि मुझे शरीर को अधिक अच्छा और कसा हुआ बनाना था, तथापि अब मुख्य हेतु तो संयम सिद्ध करना - स्वाद जीतना ही था । अतएव मै आहार की वस्तुओ मे और उसके परिमाण मे फेरबदल करने लगा । किन्तु रस तो पीछा पकड़े हुए थे ही । मै जिस वस्तु को छोड़ता और उसके बदले जिसे लेता, उसमे से बिल्कुल ही नये और अधिक रसो का निर्माण हो जाता !

इन प्रयोगो मे मेरे कुछ साथी भी थे । उनमे हरमान केलनबैक मुख्य थे । चूंकि उनका परिचय मैं 'दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास' मे दे चुका हूँ , इसलिए पुनः इन प्रकरणो मे देने का विचार मैने छोड़ दिया है । उन्होने मेरे प्रत्येक उफवास मे, एकाशन मे और दूसरे परिवर्तनो मे मेरा साथ दिया था । जिन दिनो लड़ाई खूब जोर से चल रही थी, उन दिनो तो मै उन्हीं के घर में रहता था । हम दोनों अपने परिवर्तनो की चर्चा करते और नये परिवर्तनो मे से पुराने स्वादो से अधिक स्वाद ग्रहण करते थे । उस समय तो ये संवाद मीठो भी मालूम होते थे । उनमे कोई अनौचित्य नही जान पड़ता था । किन्तु अनुभव ने सिखाया कि ऐसे स्वादों आनन्द लेना भी अनुचित था । मतलब यह कि मनुष्य को स्वाद के लिए नहीं , बल्कि शरीर के निर्वाह के लिए ही खाना चाहिये । जब प्रत्येक इन्द्रिय केवल शरीर के लिएए और शरीर के द्वारा आत्मा के दर्शन के लिए ही कार्य करती है, तब उसके रस शून्यवत् हो जाते है और तभी कहा जा सकता है कि वह स्वाभाविक रूप से बरसती है ।

ऐसी स्वाभाविकता प्राप्त करने के लिए जितने प्रयोग किये जाये उतने कम ही है और ऐसा करते हुए अनेक शरीरो को आहुति देनी पड़े , तो उसे भी हमे तुच्छ समझना चाहिये । आज तो उटली धार बह रही है । नश्वर शरीर को सजाने के लिए, उनर बढाने के लिए हम अनेक प्राणियो की बलि देते है, फिर भी उससे शरीर और आत्मा दोनो का हनन होता है । एक रोग को मिटाने की कोशिश मे, इन्द्रियो के भोग का यत्न करने मे हम अनेक नये रोग उत्पन्न कर लेते है और अन्त मे भोग भोगने की शक्ति भी खो बैठते है । और अपनी आँखो के सामने हो रही इस क्रिया को देखने से हम इनकार करते है ।

आहार के जिन प्रयोगो का वर्णन करने मे मै कुछ समय लेना चाहता हूँ उन्हें पाठक समझ सके, इसलिए उनके उद्धेश्य की और उनके मूल मे काम कर रही विचारधारा की जानकारी देना आवश्यक था ।

 

 

 

 

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