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पुत्र समझ नहीं पाता

सौरभ कुमार

(Copyright © Saurabh Kumar)

 

 

पुत्र समझ नहीं पाता


एक युवा पुत्र कभी
समझ नहीं पाता
आखिर उसका बूढ़ा बाप
अपनी पत्नी के कही बात पर
क्यूँ चलता रहता है।
बुढ़ापे में आँख की रौशनी कमे सही
पर आदमी अंधा क्यूँ होता है।
वो ये तो जानता है कि आदमी
जन्म देने वाली माँ के कर्ज का
बदला नहीं चुका सकता।
पर वो क्या सोच पाता है कि
जन्म की प्रक्रिया में
प्रसव की वेदना या
सर्जरी के लिए जाते या आते
पत्नी की आँख में
झाँक के देखने के बाद
पत्नी का ये कहना-
जो कि कभी स्पष्ट भी नहीं होता
भावावेग में टूटे लब्जों में-
मेरे कुछ होने के बाद भी
मेरे बच्चे को प्यार से रखना
जन्म पाने वाले के साथ हीं
वो पति भी कितना उसके
ऋण में आ जाता है,
काश ये भी समझने
की चीज होती।
मृत्यु से हम जितना नहीं सीखते
उससे ज्यादा उसके अहसास से सीखते हैं।
तब उस जन्म के साक्षी के भाव को समझ पाओगे
कि वो एक सिर्फ यौन साथी के पीछे
नहीं चल रहा बल्कि उसके साथ एक ऋण चलता है।
एक स्त्री तो जन्म देकर पाये ऋण को भले उतार दे
पुरूष तो एक ऋण के बाद दोहरे ऋण तक हीं पहुँचता है।


 

  सौरभ कुमार का साहित्य  

 

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