मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा

ग्यारहवाँ अध्याय - विरोधियों का विरोध

पेज- 78

पंड़ित जी ने सिर का कद्दू हिलाकर कहा-  इसमें  आप कोई खटका न समझिये। एक सप्ताह में अगर दुष्ट का न नाश हो जाए तो भृगुदत नहीं। अब आपको पूजन की बिधि भी बता ही दू। सुनिए तांत्रिक बिद्या में एक मंत्र एसा भी है जिसके जगाने से बैरी की आयु क्षीण होती है। अगर दस आदमी प्रतिदिवस उसका पाठ करे तो आयु में दोपहर की हानि होगी। अगर सौ आदमी पाठ करे तो  दस दिन की हानि होगी। 
यदि पाच सौ पाठ नित्य हों तो हर दिन पाच वष आयु घटती हैं।
सेठ जी- महाराज, आप ने  इस घड़ी एसी बात  कही कि हमारा चोला मस्त हो गया , मस्त हो गया ,
दीनानाथ- कृपासिन्घु, आप घन्य हो ! आप घन्य हो !
बहुत से आदमी- एक बार बोलो- पंड़ित भृगुदत जय !
बहुत से आदमी- एक बार बोलो- दुष्ठों की छै ! छै ! !  
इस तरह कोलाहल मचाते हुए लोग अपने- अपने घरो को लौटे। उसी दिन राघो हलवाई पंड़ित जी  के मकान पर जा डटा। पूजा-पाठ होने लगे । पाच सौ भुक्खड़  एकत्र हो गये और दोनों जून माल उडानें लगे। धीरे- धीरे पाच सौ से एक हजार नम्बर पहुचा पूजा-पाठ कौन करता है। सबेरे से भोजन का प्रबन्ध करते – करते दोपहर हो जाता था। और दोपहर से भंग- बूटी छानते रात हो जाती थी। हॉ पंडित भृगुदत दास का नाम पुरे शहर में उजागर हो रहा था। चारो ओर उनकी बड़ाई गाई जा रही थ। सात दिन यही अधाधुंध मचा रहा। यह सब कुछ हुआ । मगर बाबू  अमृतराय  का बाल बाँका न हो सका।  कही चमार  के सरापे डागर  मिलते है। एसे  ऑंख् के अंधे और गँठ के पुरे न फँसे तो भृगुदत  जैसे गुगो को चखौतिया कौन करायें। सेठ जी के आदमी तिल- तिल पर अमृतराय के मकान पर दौड़ते थे कि देखें कुछ जंत्र –मत्र का फल हुआ  कि नहीं। मगर सात दिन के बीतने पर कुछ फल हुआ तो यही कि अमृतराय की वकालत सदा से बढकर चमकी हुई थी।

 

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