मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा

दसवाँ अध्याय - विवाह हो गया

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आधा घण्टे में मैदान साफ़ हो गया और अब यहॉँ से बरात की बिदाई की ठहरी। पूर्णा और बिल्लो एक सेजगाड़ी में बिठाई गई और जिस सज-धज से बरात आयी थी असी तरह वापस हुई। अब की किसी को सर उठाने का साहस नहीं हुआ। इसमें सन्देह नहीं कि इधर-उधर झुंड आदमी जमा थे और इस मंडली को क्रोध की निगाहों से देख रहे थे। कभी-कभी मनचला जवान एकाध पत्थर भी चला देता था। कभी तालियॉँ बजायी जाती थीं। मुँह चिढ़ाया जाता था। मगर इन शरारतो से ऐसे दिल के पोढ़े आदमियों की गम्भीरता में क्या विध्न पड़ सकता था। कोई आधा घण्टे में बरात ठिकाने पर पहुँची। दुल्हिन उतारी गयी ओर बरातियां की जान में जान अयी। अमृतराय की  खुशी का क्या पूछना। वह दौड़-दौड़ सबसे हाथ मिलाते फिरते थे। बॉँछें खिली जाती थीं। ज्योंही दुल्हिन उस कमरे में पहुँची जो स्वयं आप ही दुल्हिन की तरह सजा हुआ था तो अमृतराय ने आकर कहा—प्यारी, लोहम कुशल से पहुँच गये। ऐं, तुम तो रो रही हो...यह कहते हुए उन्होंने रुमाल से उसके ऑंसू पोछे और उसे गलेसे लगाया।
प्रेम रस की माती पूर्णा ने अमृतराय का हाथ पकड़ लिया और बोली—आप तो आज ऐसे प्रसन्नचित्त हैं, मानो कोई राज मिल गया है।
अमृत—(लिपटाकर) कोई झूठ है जिसे ऐसी रानी मिले उसे राज की क्या परवाह

आज का दिन आनन्द में कटा। दूसरे दिन बरातियों ने बिदा होने की आज्ञा मॉँगी। मगर अमृतराय की यह सलाह हुई कि लाला धनुषधारीलाल कम से कम एक बार सबको अपने व्याख्यान से कृतज्ञ करें यह सलाह सबो पसंद आयी। अमृतराय ने अपने बगीचे में एक बड़ा शामियान खड़ा करवाया और बड़े उत्सव से सभा हुई। वह धुऑंधर व्याख्यान हुए कि सामाजिक सुधार का गौरव सबके दिलों में बैठे गया। फिर तो दो जलसे और भी हुए और दूने धूमधाम के साथ। सारा शहर टूटा पड़ता था। सैंकड़ों आदमियों का जनेऊ टूट गया। इस उत्सव के बाद दो विधवा विवाह और हुए। दोनों दूल्हे अमृतराय के उत्साही सहायकों में थे और दुल्हिनों में से एक पूर्णा के साथ गंगा नहानेवाली रामकली थी। चौथे दिन सब नेवतहरी बिदा हुए। पूर्णा बहुत कन्नी काटती फिरी, मगर बरातियों के आग्रह से मज़बूर होकर उनसे मुलाकात करनी ही पड़ी। और लाला धनुषधारीलाल ने तो तीन दिन उसे बराबर स्त्री-धर्म की शिक्षा दी।

शादी के चौथे दिन बाद पूर्णा बैठी हुई थी कि एक औरत ने आकर उसके एक बंद लिफ़ाफा दिया। पढ़ा तो प्रेमा का प्रेम-पत्र था। उसने उसे मुबारकबादी दी थी और बाबू अमृतराय की वह तसवीर जो बरसों से उसके गले का हार हो रही थी, पूर्णा के लिए भेज दी थी। उस ख़त की आखिरी सतरें यह थीं---
‘सखी, तुम बड़ी भाग्यवती हो। ईश्वर सदा तुम्हारा सोहाग कायम रखें। तुम्हारे पति की तसवीर तुम्हारे पास भेजती हूँ। इसे मेरी यादगार समझाना। तुम जानती हो कि मैं इसको जान से ज्यादा प्यारी समझती रही। मगर अब मैं इस योग्य नही कि इसे अपने पास रख सकूँ। अब यह तुमको मुबारक हो। प्यारी, मुझे भूलना मत । अपने प्यारे पति को मेरी ओर से धन्यवाद देना।

तुम्हारी अभागिनी सखी—
प्रेमा’

अफसोस आज के पन्द्रवे दिन बेचारी प्रेमा बाबू दाननाथ के गले बॉँधी दी गयी। बड़े धूमधम से बरात निकली। हज़ारों रुपया लुटा दिया गया। कई दिन तक सारा शहर मुंशी बदरीप्रसाद के दरवाज़े पर नाच देखता रहा। लाखों का वार-न्यारा हो गया। ब्याह के तीसरे ही दिन मुंशी जी परलोक को सिधारे। ईश्वर उनको स्वर्गवास दे।

 

 

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