मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा

नौवां अध्याय - तुम सचमुच जादूगर हो

पेज- 60

यह बातें सोचते-सोचते बाबू साहब की ऑंखों में ऑंसू भर आये और उन्होंने गदगद स्वर में बिल्लो से कहा—महरी, हो सके तो ज़रा उनसे मेरी मुलाक़ात करा दो। कह दो एक दम के लिए मिल जायें। मुझ पर इतनी कृपा करो।
महरी ने जो उनकी ऑंखें लाल देखीं तो दौड़ हुई घर में आयी पूर्णा के कमरे में किवाड़ खटखटाकर बोली---बहू, क्या ग़ज़ब करती हो, बाहर निकलो, बेचारे खड़े रो रहे हैं।
पूर्णा ने इरादा कर लिया था कि मैं उनके सामने कदापि न जाऊँगी। वह महरी से बातचीत करके आप ही चले जायँगे। मगर जब सुना कि रो रहे है तो प्रतिज्ञा टूट गयी। बोली—तुमन जा के क्या कह दिया?
महरी—मैंन तो कुछ भी नहीं कहा।
पूर्णा से अब न रहा गया। चट किवाड़ खोल दिये। और कॉँपती हुई आवाज़ से बोली-सच बतलाओ बिल्लो, क्या बहुत रो रहे है?
महरी-नारायण जाने, दोनों ऑंखें लाल टेसू हो गयी हैं। बेचारे बैठे तक नहीं। उनको रोते देखकर मेरा भी दिल भर आया।
इतने में बाबू अमृतराय ने पुकार कर कहा—बिल्लो, मैं जाता हूँ। अपनी सर्कार से कह दो अपराध क्षमा करें।
पूर्णा ने आवाज़ सुनी। वह एक ऐसे आदमी की आवाज़ थी जो निराशा के समुद्र में डूबता हो। पूर्णा को ऐसा मालूम हुआ जैसे उसके हृदय को किसी ने छेद दिया। ऑंखों से ऑंसू की झड़ी लग गयी। बिल्लों ने कहा—बहू, हाथ जोड़ती हूँ, चली चलो जिसमें उनकी भी खातिरी हो जाए।

यह कहकर उसने आप से उठती हुई पूर्णा का हाथ पकड़ कर उठाया और वह घूँघट निकाल कर, ऑंसू पोंछती हुई, मर्दाने कमरे की तरफ चली। बिल्लो ने देखा कि उसके हाथों में कंगन नहीं है। चट सन्दूकची उठा लायी और पूर्णा का हाथ पकड़ कर चाहती थी कि कंगन पिन्हा दे। मगर पूर्णा ने हाथ झटक कर छुड़ा लिया और दम की दम में बैठक के भीतर दरवाज़े पर आके खड़ी रो रही थी। उसकी दोनों ऑंखें लाल थी और ताजे ऑंसुओ की रेखाऍं गालों पर बनी हुई थी। पूर्णा ने घूँघट उठाकर प्रेम-रस से भरी हुई ऑंखों से उनकी ओर ताका। दोनों की ऑंखें चार हुई। अमृतराय बेबस होकर बढ़े। सिसकती हुई पूर्णा का हाथ पकड़ लिया और बड़ी दीनता से बोले—पूर्णा, ईश्वर के लिए मुझ पर दया करो।

उनके मुँह से और कुछ न निकला। करुणा से गला बँध गया और वह सर नीचा किये हुए जवाब के इन्तिजार में खड़ा हो गये। बेचारी पूर्णा का धैर्य उसके हाथ से छूट गया। उसने रोते-रोते अपना सर अमृतराय के कंधे पर रख दिया। कुछ कहना चाहा मगर मुँह से आवाज़ न निकली। अमृतराय ताड़ गये कि अब देवी प्रसन्न हो गयी। उन्होंने ऑंखों के इशारे से बिल्लो से कंगन मँगवाया। पूर्णा को धीरेस कुर्सी पर बिठा दिया। वह जरा भी न झिझकी। उसके हाथों में कंगन पिन्हाये, पूर्णा ने ज़रा भी हाथ न खींचा। तब अमृतराय न साहसा करके उसके हाथों को चूम लिया और उनकी ऑंखें प्रेम से मग्न होकर जगमगाने लगीं। रोती हुई पूर्णा ने मोहब्बत-भरी निगाहों से उनकी ओर देखा और बोली—प्यार अमृतराय तुम सचमुच जादूगर हो।

 

 

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