मुंशी प्रेमचंद

प्रेमा

पहला अध्याय- सच्ची उदारता

पेज- 6

बाबू दाननाथ अमृतराय के बचपन के साथियों में से थे। कालिज मे भी दोनों का साथ रहा। वकालत भी साथ पास की और दो मित्रों मे जैसी सच्ची प्रीति हो सकती है वह उनमे थी। कोई बात ऐसी न थी जो एक दूसरे के लिए उठा रखे। दाननाथ ने एक बार प्रेमा को महताबी पर खड़े देख लिया था। उसी वक्त से वह दिल में प्रेमा की पूजा किया करता था। मगर यह बात कभी उसकी जबान पर नहीं आयी। वह दिल ही दिल में घुटकर रह जाता। सैकड़ों बार उसकी स्वार्थ दृष्टि ने उसे उभारा था कि तू कोई चाल चलकर बदरीप्रसाद का मन अमृतराय से फेर दे, परंतु उसने हर बार इस कमीनेपन के ख्याल को दबाया था। वह स्वभाव का बहुत निर्मल और आचरण का बहुत शुद्व था। वह मर जाना पसंद करता मगर किसी को हानि पहुँचाकर अपना मनोरथ कदापि पूरा नहीं कर सकता था। यह भी न था कि वह केवल दिखाने के लिए अमृतराय से मेल रखता हो और दिल में उनसे जलता हो। वह उनके साथ सच्चे मित्र भाव का बर्ताव करता था।
आज भी, जब अमृतराय ने उससे अपने इरादे जाहिर किये तब उसेन सच्चे दिल से उनको समझाकर ऊँच नीच सुझाया। मगर इसका जो कुछ असर हुआ हम पहले दिखा चुके है। उसने साफ साफ कह दिया कि अगर तुम रिर्फामरों कीमंडली में मिलोगे तो प्रेमा से हाथ धोना पडेगा। मगर अमृतराय ने एक न सुनी। मित्र का जो धर्म है वह दाननाथ ने पूरा कर दिया। मगर जब उसने देखा कि यह अपने अनुष्ठान पर अड़े ही रहेगें तो उसको कोई वजह न मालूम हुई कि मैं यह सब बातें बदरी प्रसाद से बयान करके क्यों न प्रेमा का पति बनने का उद्योग करूँ। यहां से वह यही सब बातें सोचते विचारते घर पर आये। कोट-पतलून उतार दिया और सीधे सादे कपड़े पहिन मुंशी बदरीप्रसाद के मकान को रवाना हुए। इस वक्त उसके दिन की जो हालत हो रही थी, बयान नही की जा सकती। कभी  यह विचार आता कि मेरा इस तरह जाना, लोगों को मुझसे नाराज न कर दे। मुझे लोग स्वार्थी न समझने लगें। फिर सोचता कि कहीं अमृतराय अपना इरादा पलट दें और आश्चर्य नहीं कि ऐसा ही हो, तो मैं कहीं मुँह दिखाने योग्य न रहूँगा। मगर यह सोचते सोचते जब प्रेमा की मोहनी मूरत ऑंख के सामने आ गयी। तब यह सब शंकाए दूर हो गयी। और वह बदरीप्रसाद के मकान पर बातें करते दिखायी दिये।

 

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