मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा

आठवां अध्याय- कुछ और बातचीत

पेज- 54

पूर्णा—(अनजान बनकर) फिर?
बिल्लो—आज तुमको जरूर गहने पहनने पड़ेगे।
पूर्णा—(दबी आवाज से) आज तो मेरे सर में पीड़ा हो रही है।
बिल्लो—नौज, तुम्हारे बैरी का सर दर्द करे। इस बहाने से पीछा न छूटेगा।
पूर्णा—और जो किसी ने मुझे ताना दिया तो तु जानना।
बिल्लो—ताना कौन रॉँड देगी।
सबेरे ही से बिल्लो ने पूर्णा का बनाव-सिंगार करना शुरू किया। महीनों से सर न मला गया था। आज सुगंधित मसाले से मला गया, तेल डाला गया, कंघी की गयी, बाल गूँथे गये और जब तीसरे पहर को पूर्णा ने गुलाबी कुर्ती पहनकर उस रेशमी काम की शर्बती सारी पहनी, गले मे हार और हाथों में कंगन सजाये तो सुंदरता की मूर्ति मालूम होने लगी। आज तक कभी उसने ऐसे रत्न जड़ित गहने और बहुमूल्य कपड़े न पहने थे। और न कभी ऐसी सुघर मालूम हुई थी। वह अपने मुखारविंद को आप देख देख कुछ प्रसन्न भी होती थी, कुछ लजाती भी थी और कुछ शोच भी करती थी। जब सॉँझ हुई तो पूर्णा कुछ उदास हो गयी। जिस पर भी उसकी ऑंखे दरवाजे पर लगी हुई थीं और वह चौंक कर ताकती थी कि कहीं अमृतराय तो नहीं आ गये। पॉँच बजते बजते और दिनों से सबेरे बाबू अमृतराय आये। कमरे में बैठे, बिल्लो से कुशलानंद पूछा और ललचायी हुई ऑंखो से अंदर के दरवाजे की तरफ ताकने लगे। मगर वहॉँ पूर्णा न थीं, कोई दस मिनट तक तो उन्होंने चुपचाप उसकी राह देखी, मगर जब अब भी न दिखायी दी तो बिल्लो से पूछा—क्यो महरी, आज तुम्हारी सर्कार कहॉँ है?
बिल्लो—(मुस्कराकर) घर ही में तो है।
अमृत०—तो आयी क्यों नहीं। क्या आज कुछ नाराज है क्या?
बिल्लो—(हूंसकर) उनका मन जाने।
अमृत०—जरा जाकर लिवा जाओ। अगर नाराज हों तो चलकर मनाऊँ।
यह सुनकर बिल्लो हँसती हुई अंदर गई और पूर्णा से बोली—बहू, उठोगी या वह आप ही मनाने आते है।
पूर्णा—बिल्लो, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ, जाकर कह दो, बीमार है।    
बिल्लो—बीमारी का बहाना करोगी तो वह डाक्टर को लेने चले जायॅगे।
पूर्णा—अच्छा, कह दो, सो रही है।
बिल्लो—तो क्या वह जगाने न आऍंगे?
पूर्णा—अच्छा बिल्लो, तुम ही केई बहाना कर दो जिससे मुझे जाना न पड़े।

 

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