मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा

सातवां अध्याय - आज से कभी मन्दिर न जाऊँगी

पेज- 49

इस बीच मे एक ऊँचा आदमी आता दिखायी दिया। कोई छ: फुट का कद था। गोरा-चिटठा, बालों में कंधी कह हुई, मुँह पान से भरे, माथे पर विभूति रमाये, गले में बड़े-बड़े दानों की रूद्राक्ष की माला पहने कंधे पर एक रेशमी दोपटटा रक्खे, बड़ी-बड़ी और लाल ऑंखों से इधर उधर ताकता इन दोनों स्त्रियों के समीप आकर खड़ा हो गया। रामकली ने उसकी तरफ कटाक्ष से देखकर कहा—क्यों बाबा इन्द्रवत कुछ परशाद वरशाद नहीं बनाया?
इन्द्र—तुम्हारी खातिर सब हाजिर है। पहले चलकर नाच तो देखो। यह कंचनी काश्मीर से बुलायी गयी है। महंत जी बेढब रीझे हैं, एक हजार रूपया इनाम दे चुके हैं।
रामकली ने यह सुनते ही पूर्णा का हाथ पकड़ा और बारादरी की ओर चली। बेचारी पूर्णा जाना न चाहती थी। मगर वहॉँ सबके सामने इनकार करते भी बन न पड़ता था। जाकर एक किनारे खड़ी हो गयी। सैकड़ों औरतें जमा थीं। एक से एक सुन्दर  गहने लदी हुई । सैकड़ो मर्द थे, एक से एक गबरू ,उत्तम कपड़े पहले हुए। सब के सब एक ही  में मिले जुले खड़े थे। आपस में बीलियॉँ बोली जाती थीं, ऑंखे मिलायी जाती थी, औरतें मर्दो में। यह मेलजोल पूर्णा को न भाया। उसका हियाव न हुआ कि भीड़ में घुसे। वह एक कोने में बाहर ही दबक गयी। मगर रामकली अन्दर घुसी और वहॉँ कोई आध घण्टे तक उसने खूब गुलछर्रे उड़ाये। जब वह निकली तो पसीने में डूबी हुई थी।तमाम कपड़े मसल गये थे।
पूर्णा ने उसे देखते ही कहा—क्यों बहिन, पूजा कर चुकीं? अब भी घर चलोगी या नहीं?
राम0—(मुस्कराकर) अरे, तुम बाहर खडी रह गयीं क्या?
जरा अन्दर चलके देखो क्या बहार है? ईश्वर जाने कंचनी गाती क्या है दिल मसोस लेती है।
पूर्णा—दर्शन भी किया या इतनी देर केवल गाना ही सुनती रहीं?
राम0—दर्शन करने आती है मेरी बला। यहॉँ तो दिल बहलाने से काम है। दस  आदमी देखें दस आदमियों से हँसी दिल्लगी की, चलों मन आन हो गया। आज इन्द्रदत्त ने ऐसा उत्तम प्रसाद बनाया है कि  तुमसे क्या बखान करूँ।
पूर्णा –क्या है ,चरणामृत?
राम0—(हॅसकर) हॉँ, चरणामृत में बूटी मिला दी गयी है।
पूर्णा—बूटी कैसी?
राम0—इतना भी नहीं जानती हो, बूटी भंग को कहते हैं।
पूर्णा—ऐहै तुमने भंग पी ली।
राम—यही तो प्रसाद है देवी जी का। इसके पीने में क्या हर्ज है। सभी पीते है। कहो तो तुमको भी पिलाऊँ।
पूर्णा—नहीं बहिन, मुझे क्षमा करो।
इधर यही बातें हो रही थी कि दस-पंद्रह आदमी बारादरी से आकर इनके आसपास खड़े हो गये।
एक—(पूर्णा की तरफ घूरकर) अरे यारो, यह तो कोई नया स्वरूप है।
दूसरा—जरा बच के चलो, बचकर।
इतने में किसी ने पूर्णा के कंधे से धीरे से एक ठोका दिया। अब वह बेचारी बड़े फेर में पड़ी। जिधर देखती है आदमी ही आदमी दिखायी देती है। कोई इधर से हंसता है कोइ उधर से आवाजें कसता है। रामकली हँस रही है। कभी चादर को खिसकाती है। कभी दोपटटे को सँभालती है। एक आदमी ने उससे पूछा—सेठानी जी, यह कौन है?
रामकली—यह मेरी सखी है, जरा दर्शन कराने को लायी थी।
दूसरा—इन्हें अवश्य लाया करों। ओ हो। कैसा खुलता हुआ रंग है।
बारे किसी तरह इन  आदमियों से छुटकारा हुआ। पूर्णा घर की ओर भागी और कान पकड़े कि आज से कभी मंदिर न जाउँगी।

 

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