मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा

चौथा अध्याय- जवानी की मौत

पेज- 18

आखिर होली का दिन आया। शहर में चारों ओर अबीर और गुलाल उड़ने लगा, चारों तरफ से कबीर और बिरादरीवालों के यहॉँ से जनानी सवारियॉँ आना शुरु हुई और उसे उनकी खातिर से बनाव-सिगार करना, अच्छे-अच्छे कपड़ा पहनना, उनका आदर-सम्मान करना और उनके साथ होली खेलना पड़ा। वह हँसने, बोलने और मन को दूसरी बातों में लगाने के लिए बहुत कोशिश करती रही। मगर कुछ बस न चला। रोज अकेल में बैठकर रोया करती थी, जिससे कुछ तसकीन हो जाती। मगर आज शर्म के मारे रो भी न सकती थी। और दिन पूर्ण दस बजे से शाम तक बैठी अपनी बातों से उसका दिल बहलाया करती थी मगर थी मगर आज वह भी सवेरे ही एक झलक दिखाकर अपने घर पर त्योहार मना रही थी। हाय पूर्णा को देखते ही वह उससे मिलने के लिए ऐसी झपटी जैसे कोई चिड़िया बहुत दिनों के बाद अपने पिंजरे से निकल कर भागो। दोनो सखियॉँ गले मिल गयीं। पूर्णा ने कोई चीज मॉँगी—शायद कुमकुमे होंगे। प्रेमा ने सन्दूक मगाया। मगर इस सन्दूक को देखते ही उसकी ऑंखों में ऑंसू भर आये। क्योंकि यह अमृतराय ने पर साल होली के दिन उसके पास भेजा था। थोड़ी देर में पूर्णा अपने घर चली गयी मगर प्रेमा घंटो तक उस सन्दूक को देख-देख रोया की।

पूर्णा का मकान पड़ोसी ही में था। उसके पति पण्डित बसंतकुमार बहुत सीधे मगर शैकीन और प्रेमी आदमी थे। वे हर बात स्त्री की इच्छानुसार करते। उन्होंने उसे थोड़ा-बहुत पढ़या भी था। अभी ब्याह हुए दो वर्ष भी न होने पाये थे, प्रेम की उमंगे दोनों ही दिलों में उमड़ हुई थी, और ज्यों-ज्यों दिन बीतते थे त्यों-त्यों उनकी मुहब्बत और भी गहरी होती  जाती थी। पूर्णा हरदस पति की सेवा प्रसन्न रहती, जब वह दस बजे दिन को दफ्तर जाने लगते तो वह उनके साथ-साथ दरवाजे तक आती और जब तक पण्डित जी दिखायी देते वह दरवाजे पर खड़ी उनको देखा करती। शाम को जब उनके आने का समय हाता तो वह फिर दरवाजे पर आकर राह देखने लगती। और ज्योंही व आ जाते उनकी छाती से लिपट जाती। और अपनी भोली-भाली बातों से उनकी दिन भर की थकन धो देती। पंडित जी की तरख्वाह तीस रुपये से अधिक न थी। मगर पूर्णा ऐसी किफ़यात से काम चलाती कि हर महीने में उसके पास कुछ न कुछ बच रहता था। पंडित जी बेचारे, केवल इसलिए कि बीवी को अच्छे से अच्छेगहने और कपड़े पहनावें, घर पर भी काम किया करते। जब कभी वह पूर्णा को कोई नयी चीज बनवाकर देते वह फूली न समाती। मगर लालची न थी। खुद कभी किसी चीज के लिए मुँह न खोलती। सच तो यह है कि सच्चे प्रेम के आन्नद ने उसके दिल में पहनने-ओढ़ने की लालसा बाकी न रक्खी थी।

 

 

 

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