मुंशी प्रेमचंद - प्रेमा

तीसरा अध्याय- झूठे मददगार

पेज- 14

बाबू अमृतराय ने अधिक वादानुवाद करना अनुचित समझा। इसमें सन्देह नहीं कि उनको दाननाथ से बहुत आशा थी। मगर इस समय वह यहॉँ बहुत न ठहरे और विद्या के लिए प्रसिद्ध थे। जब अमृतराय ने उनसे सभा संबंध बातें कीं तो वह बहुत खुश हुए। उन्होंने अमृतराय को गले लगा लिया और बोले—मिस्टर अमृराय, तुमने मुझे सस्ते छोड़ दिया। मैं खुद कई दिन से इन्हीं बातों के सोच-विचार में डूबा हुआ हूँ। आपने मेरे सर से बोझ उतार लिया। जैसी याग्ता इस काम के करने की आपमें है वह मुझे नाम को भी नहीं। मैं इस सभा का मेम्बर हूँ।
बाबू अमृतराय को पंडित जी से इतनी आशा न थी। उन्होंने सोचा था कि अगर पंडित जी इस काम को पसंद करेंगे तो खुल्लमखुल्ला शरीक होते झिझकेंगे। मगर पंडित जी की बातों ने उनका दिल बहुत बढ़ा दिया। यहॉँ से निकले तो वह अपनी ही ऑंखों में दो इंच ऊँचे मालूम होते थे। अपनी अर्थसिद्धि के नशे में झूमते-झामते और मूँछों पर ताव देते एन.बी. अगरवाल साहब की सेवा में पहुँचें मिस्टर अगरावाला अंग्रेजी और संस्कृत के पंडित थे। व्याख्यान देने में भी निपुण थे और शहर में सब उनका आदर करते थे। उन्होंने भी अमृतराय की सहायता करने का वादा किया और इस सभा का ज्वाइण्ट सेक्रटेरी होना स्वीकार किया। खुलासा यह कि नौ बजते-बजते अमृतराय सारे शहर के प्रसिद्ध और नई रोशनीवाले पुरुषों से मिल आये और ऐसा कोई न था जिसने उनके इरादे की पशंसा न की हो, या सहायता करने का वादा न किया हो। जलसे का समय चार बजे शाम को नियत किया गया।
दिन के दो बजे से अमृतराय के बँगले पर लजसे की तैयारियॉँ होने लगीं। पर्श बिछाये गये। छत में झाड़-फानूस, हॉँडियाँ लटकायी गयीं। मेज और कुर्सियॉँ सजाकर धरी गयी और सभासदों के लिए खाने-पीने का भी प्रबंध किया गया। अमृतराय ने सभा के लिए एक लिए एक नियमावली बनायी। एक व्याख्यान लिखा और इन कामों को पूरा करके मेम्बरों की राह देखने लगे। दो बज गये, तीन बज गये, मगर कोई न आया। आखिर चार भी बजे, मगर किसी की सवारी न आयी। हॉँ, इंजीनियर साहब के पास से एक नौकर यह संदेश लेकर आया कि मैं इस समय नहीं आ सकता।

 

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