मुंशी प्रेमचंद - गोदान

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गोदान

भाग-15

पेज-139

संध्या हो गई थी। हवा में अभी तक गरमी थी। आकाश में धुंध छाया हुआ था। मालती और उसकी दोनों बहनें बँगले के सामने घास पर बैठी हुई थीं। पानी न पाने के कारण वहाँ की दूब जल गई थी और भीतर की मिट्टी निकल आई थी।

मालती ने पूछा - माली क्या बिलकुल पानी नहीं देता?

मँझली बहन सरोज ने कहा - पड़ा-पड़ा सोया करता है सूअर। जब कहो, तो बीस बहाने निकालने लगता है।

सरोज बी.ए में पढ़ती थी, दुबली-सी, लंबी, पीली, रूखी, कटु। उसे किसी की कोई बात पसंद न आती थी। हमेशा ऐब निकालती रहती थी। डाक्टरों की सलाह थी कि वह कोई परिश्रम न करे और पहाड़ पर रहे, लेकिन घर की स्थिति ऐसी न थी कि उसे पहाड़ पर भेजा जा सकता।

सबसे छोटी वरदा को सरोज से इसलिए द्वेष था कि सारा घर सरोज को हाथों हाथ लिए रहता था, वह चाहती थी जिस बीमारी में इतना स्वाद है, वह उसे ही क्यों नहीं हो जाती। गोरी-सी, गर्वशील, स्वस्थ, चंचल आँखों वाली बालिका थी, जिसके मुख पर प्रतिभा की झलक थी। सरोज के सिवा उसे सारे संसार से सहानुभूति थी। सरोज के कथन का विरोध करना उसका स्वभाव था। बोली - दिन-भर दादाजी बाजार भेजते रहते हैं, फुरसत ही कहाँ पाता है। मरने की छुट्टी तो मिलती नहीं, पड़ा-पड़ा सोएगा।

सरोज ने डाँटा - दादाजी उसे कब बाजार भेजते हैं री, झूठी कहीं की!

'रोज भेजते हैं, रोज। अभी तो आज ही भेजा था। कहो तो बुला कर पुछवा दूँ?'

'पुछवाएगी, बुलाऊँ?'

मालती डरी। दोनों गुथ जायँगी, तो बैठना मुश्किल कर देंगी। बात बदल कर बोली - अच्छा खैर, होगा। आज डाक्टर मेहता का तुम्हारे यहाँ भाषण हुआ था, सरोज?

सरोज ने नाक सिकोड़ कर कहा - हाँ, हुआ तो था, लेकिन किसी ने पसंद नहीं किया। आप फरमाने लगे? संसार में स्त्रियों का क्षेत्र पुरुषों से बिलकुल अलग है। स्त्रियों का पुरुषों के क्षेत्र में आना इस युग का कलंक है। सब लड़कियों ने तालियाँ और सीटियाँ बजानी शुरू कीं। बेचारे लज्जित हो कर बैठ गए। कुछ अजीब-से आदमी मालूम होते हैं। आपने यहाँ तक कह डाला कि प्रेम केवल कवियों की कल्पना है। वास्तविक जीवन में इसका कहीं निशान नहीं। लेडी हुकू ने उनका खूब मजाक उड़ाया।

मालती ने कटाक्ष किया - लेडी हुकू ने? इस विषय में वह भी कुछ बोलने का साहस रखती हैं! तुम्हें डाक्टर साहब का भाषण आदि से अंत तक सुनना चाहिए था। उन्होंने दिल में लड़कियों को क्या समझा होगा?

'पूरा भाषण सुनने का सब्र किसे था? वह तो जैसे घाव पर नमक छिड़कते थे।'

'फिर उन्हें बुलाया ही क्यों? आखिर उन्हें औरतों से कोई बैर तो है नहीं। जिस बात को हम सत्य समझते हैं, उसी का तो प्रचार करते हैं। औरतों को खुश करने के लिए वह उनकी-सी कहने वालों में नहीं हैं और फिर अभी यह कौन जानता है कि स्त्रियाँ जिस रास्ते पर चलना चाहती हैं, वही सत्य है। बहुत संभव है, आगे चल कर हमें अपनी धारणा बदलनी पड़े।'

 

 

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