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हिन्दी के कवि

रघुनाथ

(रचनाकाल 1740-1770ई)

रघुनाथ काशिराज बलवंत सिंह के दरबारी कवि थे। महाराजा ने इनकी कविता से प्रसन्न होकर इन्हें चौरा गाँव भेंट दिया था। इनके चार ग्रंथ प्राप्त हैं- 'रसिक-मोहन, 'जगत-मोहन, काव्य-कलाधर तथा 'इश्क महोत्सव। 'जगत-मोहन में कृष्ण की दिचर्या का वर्ण है, 'काव्य-कलाधर में नायक-नायिका भेद तथा 'इश्क महोत्सव में खडी बोली की कविता है। 'रसिक-मोहन इनका श्रेष्ठ ग्रंथ है, जिसमें अलंकारों के लक्षण वर्णित हैं जो अत्यंत स्पष्ट हैं। कविता में लक्षणों की अपेक्षा कवित्व पक्ष अधिक सबल है। व्यंजना सहज, चुटीली और मार्मिक है।

पद

देखिबे को दुति, पूनो के चंद की, हे 'रघुनाथ श्री राधिका रानी।
आई बोलाय के, चौंतरा ऊपर, ठाढी भई, सुख सौरभ सानी॥

ऐसी गई मिलि, जोन्ह की जोति में, रूप की रासि न जाति बखानी।
बारन तें, कछु भौंहन तें, कछु नैनन की छवि तें पहिचानी।

देखिए देखि या ग्वारि गँवारि की, नेकुी नहीं थिरता गहती है।
आनंद सों 'रघुनाथ पगी-पगी, रंगन सों फिरतै रहती हैं॥

कोर सों छोर तरयना के छ्वै करि, ऐसी बडी छबि को लहती हैं।
जोबन आइबे की महिमा, ऍंखियाँ मनौ कानन सों कहती हैं॥

ऐसे बने 'रघुनाथ कहै हरि, काम कलानिधि के मद गारे।
झाँकि झरोखे सों, आवत देखि, खडी भई आइकै आपने द्वारे॥

रीझी सरूप सौं भीजी सनेह, यों बोली हरैं, रस आखर भारे।
ठाढ हो! तोसों कहौंगी कछू, अरे ग्वाल, बडी-बडी ऑंखिनवारे॥

दै कहि बीर! सिकारिन को, इहि बाग न कोकिल आवन पावै।
मूँदि झरोखनि मंदिर के, मलयानिल आइ न छावन पावै॥

आए बिना 'रघुनाथ बसंत को, ऐबो न कोऊ सुनावन पावै।
प्यारी को चाहौ जिवाओ धमारा तौ गाँव को कोऊ न गावन पावै॥

केसरि सों पहिले उबटयो ऍंग, रंग लस्यो जिमि चम्पकली है।
फेरि गुलाब के नीर न्हवाय, पिन्हाई जो सारी सुरंग लली है॥

नाइन या चतुराइन सौं, 'रघुनाथ करी बस गोप लली है।
पारत पाटी कह्यो फिरिय यों, ब्रजराज सों आज मिलौ तौ भली है॥

बातैं लगाय सखान तें न्यारो कै, आज गह्यो बृषभान किसोरी।
केसरि सों तन मज्जन कै, दियो अंजन ऑंखिन मैं बरजोरी॥

हे 'रघुनाथ कहा कहौं कौतुक, प्यारे गोपालै बनाय कै गोरी।
छोडि दियो इतनो कहि कै, बहुरौ इत आइयो खेलन होरी॥

ग्वाल संग जैबो ब्रज गायन चरेबो ऐबो,
अब कहा दाहिने ये नैन फरकत हैं।
मोतिन की माल वारि डारौं गुंजमाल पर,
कुजन की सुधि आए हियो धरकत हैं॥

गोबर को गारो 'रघुनाथ कछू याते भारो,
कहा भयो महलन मनि मरकत हैं।
मंदिर हैं मंदर ते ऊँचे मेरे द्वारिका के,
ब्रज के खरिक तऊ हिये खरकत हैं॥

फूलि उठे कमल से अमल हितू के नैन,
कहै 'रघुनाथ भरे चैन रस सियरे।
दौरि आए भौंर से करत गुनी गुन गान,
सिध्द से सुजान सुख सागर सों नियरे॥

सुरभी सी खुलन सुकवि की सुमति लागी,
चिरिया सी जागी चिंता जनक के हियरे।
धनुष पै ठाढे राम, रवि से लसत आजु,
भोर के से नखत नरिंद भये पियरे॥

 

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