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हिन्दी के कवि

नारायण स्वामी

(1828-1900 ई.)

नारायण स्वामी पंजाब में रावलपिंडी जिले के निवासी सारस्वत ब्राह्मण थे। पश्चात् ये वृंदावन चले गए और लाला बाबू के मंदिर में नौकरी कर ली। कुछ काल पश्चात् भगवत् प्रेम में विभोर होकर नौकरी छोदी और संन्यास ले लिया। ब्रज बिहार इनके पदों का संग्रह है।

पद

आजु सखी प्रातकाल, दृग मींडत जगे लाल,
रूप के बिसाल सिंघु, गुनन के जहाज।
कुंडल सौं उरझि माल, मुख पै अलकन को जाल,
भई मैं निहाल निरखि, सोभा को समाज॥

आलस बस झुकत ग्रीव, कबं अंगलेत
उपमा सम देत मोहिं, आवत है लाज।
'नारायन जसुमति ढिंग, हौं तौ गइ बात कहन,
या मैं भये री, एक पंथ दो काज॥

देखु सखी, नव छैल छबीलो प्रात समै इततें को आवै?
कमल समान बदृग जाके, स्याम सलोनो मृदु मुसकावै ॥

जाकी सुंदरता जग बरनत, मुख सोभा लखि चंद लजावै।
'नारायन यह किधौं वही है, जो जसुमति को कुंवर कहावै?

नयनों रे चितचोर बतावौ।
तुमहीं रहत भवन रखवारे, बांके बीर कहावौ ।
तुम्हरे बीच गयो मन मेरो, चाहै सौंहैं खावौ।
तुम्हरे बीच गयो मन मेरो, चाहै सौंहैं खावौ।
अब क्यों रोवत हौ दई मारे, कं तौ थाह लगावौ॥
घर के भेदी बैठि द्वार पै, दिन में घर लुटवावौ॥
'नारायन मोहिं वस्तु न चहिए, लेवनहार दिखावौ॥

तोहिं डगर चलत का भयोरी बीर,
कं पग की पायल कं सिर को चीर,
भई बावरी न कुछ सुध बुध शरीर॥
तेरे मतवारन सम झूमत नयन,
मुख भाषत है तू अति विरह के बयन
मानो घायल का ने कीन्हीं दृगन तीर॥

मोसों 'नारायन जिन रख दुराव,
जो तू कहेगी सोई मैं तेरो करूं उपाय
जासों रोग घटै मिटै सकल पीर॥
चाहै तू जोग करि भृकुटि मध्य ध्यान धरि,
चाहै नाम रूप मिथ्या जानि कै निहारि लै।
निर्गुन, निर्भय, निराकार ज्योति व्याप रही,
ऐसो तत्वज्ञान निज मन मैं तू धारि लैं॥

'नारायन अपने को आपुही बखान करि,
मोते वह भिन्न नहीं या विधि पुकार लै॥
जौलौं तोहि नंद को कुमार नाहिं दृष्टि परयो,
तौ लौं तू भलै बैठि ब्रह्म को बिचारि लै॥

दोहे

नारायण हरि भक्त की, प्रथम यही पहचान।
आप अमानी ह्वै रहै देत और को मान॥

कपट गांठि मन में नहीं, सब सों सरल सुभाव।
नारायन ता भक्त की, लगी किनारे नाव॥

दसन पांति मोतियन लरी, अधर ललाई पान।
ताहूं पै हंसि हेरिबो, को लखि बचै सुजान॥

मृदु मुसक्यान निहारि कै, धीर धरत है कौन।
नारायण कै तन तजै, कै बौरा कै मौन॥

 

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