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हिन्दी के कवि

महादेवी वर्मा

(1907-1987 ई.)

महादेवी का जन्म फर्रूखाबाद में हुआ। प्रयाग विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. किया तथा प्रयाग महिला विद्यापीठ की प्रधानाचार्य बनीं और आजीवन वहीं रहीं। महादेवी वेदना की गायिका हैं, जिसकी अभिव्यक्ति छायावादी शैली में प्रकृति के माध्यम से हुई है। इनके मुख्य काव्य-संग्रह हैं : 'नीहार, 'रश्मि, 'नीरजा, 'सांध्यगीत और 'दीपशिखा। पहले चार 'यामा में संकलित हैं, जिसे ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। 'स्मृति की रेखाएँ, 'अतीत के चलचित्र संस्मरणात्मक रेखाचित्र हैं और 'शृंखला की कडियाँ निबंध संग्रह है। इन्होंने कुछ वैदिक ॠचाओं का अनुवाद भी किया है।

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग, प्रतिदिन, प्रतिक्षण, प्रतिपल,
प्रियतम का पथ आलोकित कर।
सौरभ फैला विपुल धूप बन,
मृदुल मोम-सा धुल रे मृदुतन।
दे प्रकाश का सिंधु अपरिमित,
तेरे जीवन का अणु-अणु गल।
पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!
सारे शीतल कोमल नूतन,
माँग रहे मुझसे ज्वाला कण,
विश्व-शलभ सिर धुन कहता 'मैं
हाय! न जल पाया तुझमें मिल।
सिहर-सिहर मेरे दीपक जल!
जलते नभ में देख असंख्यक,
स्नेह-हीन नित कितने दीपक,
जलमय सागर का उर जलता,
विद्युत ले घिरता है बादल!
बिहँस-बिहँस मेरे दीपक जल!
द्रुम के अंग हरित कोमलतम,
ज्वाला को करते हृदयंगम,
वसुधा के जड अंतर में भी,
बंदी है तापों की हलचल।
बिखर-बिखर मेरे दीपक जल!
मेरी निश्वासों से द्रुततर,
सुभग न तू बुझने का भय कर,
मैं अंचल की ओट किए हूँ
अपनी मृदु पलकों से चंचल!
सहज-सहज मेरे दीपक जल!
सीमा ही लघुता का बंधन,
है अनादि तू मत घडियाँ गिन,
मैं दृग के अक्षय कोषों से
तुझमें भरती हूँ ऑंसू-जल!
सजल-सजल मेरे दीपक जल!
तम असीम, तेरा प्रकाश चिर,
खेलेंगे नव खेल निरंतर,
तम के अणु-अणु में विद्युत-सा
अमित चित्र अंकित करता चल!
सरल-सरल मेरे दीपक जल!
तू जल-जल जितना होता क्षय
वह समीप आता छलनामय,
मधुर मिलन में मिट जाना तू
उसकी उज्ज्वल स्मित में घुल-मिल!
मदिर-मदिर मेरे दीपक जल।
प्रियतम का पथ आलोकित कर!

जो तुम आ जाते एक बार!

जो तुम आ जाते एक बार
कितनी करुणा कितने संदेश,
पथ में बिछ जाते बन पराग,
गाता प्राणों का तार-तार
अनुराग-भरा उन्माद-राग,
ऑंसू लेते वे पद पखार!
जो तुम आ जाते एक बार!
हँस उठते पल में आर्द्र नयन
धुल जाता ओठों से विषाद,
छा जाता जीवन में वसंत
लुट जाता चिर-संचित विराग,
ऑंखें देतीं सर्वस्व वार।
जो तुम आ जाते एक बार!

मैं नीर भरी दु:ख की बदली

मैं नीर भरी दु:ख की बदली।
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा
क्रंदन में आहत विश्व हँसा
नयनों में दीपक से जलते
पलकों में निर्झरिणी मचली।
मेरा पग-पग संगीत भरा
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा
नभ के नवरंग बुनते दुकूल
छाया में मलय-बयार पली।
मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल
चिंता का भार बनी अविरल
रज-कण पर जल-कण हो बरसी
नव जीवन-अंकुर बन निकली।
पथ को न मलिन करते आना
पदचिन्ह न दे जाते जाना
सुधि मेरे ऑंगन की जग में
सुख की सिहरन हो अंत खिली।
विस्तृत नभ का कोई कोना
मेरा न कभी अपना होना
परिचय इतना इतिहास यही
उमडी कल थी मिट आज चली।

 

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