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हिन्दी के कवि

भिखारीदास

(1700-1760)

दास का मूल नाम भिखारीदास है। इनका जन्म प्रतापगढ जिले के टयोंगा ग्राम में श्रीवास्तव वंश में हुआ था। ये प्रतापगढ नरेश के भाई हिंदूपतिसिंह के आश्रय में रहे। दास उत्तर-रीतिकाल के श्रेष्ठतम आचार्य हैं। इन्होंने काव्य-शास्त्र पर कई ग्रंथ लिखे जिनमें 'काव्य-निर्णय श्रेष्ठ है। इसमें ध्वनि, अलंकार, तुक और रस आदि का विवेचन है। 'रस-सारांश में नायक-नायिका भेद तथा 'शृंगार-निर्णय में शृंगारिक वर्णन हैं। इनकी कविता कला-पक्ष में संयत तथा भाव-पक्ष में रंजन कारिणी है।

पद

केसरिया पट कनक-तन, कनका-भरन सिंगार।
गत केसर केदार में, जानी जाति न दार।
कौनु सिंगार है मोरपखा, यह बाल छुटे कच कांति की जोटी।
गुंज की माल कहा यह तौ, अनुराग गरे परयौ लै निज खोटी॥

'दास बडी-बडी बातें कहा करौ, आपने अंग की देखो करोटी।
जानो नहीं, यह कंचन सी तिय के तन के कसिबे की कसोटी॥

नैनन को तरसैऐ कहां लौं, कहां लौं हियो बिरहाग में तैऐे
एक घरी न कं कल पैऐ, कहां लगि प्राननि को कलपैऐे
आवै यहै अब 'दास विचार, सखी चलि सौतिहु के घर जैऐ।
मान घटेतें कहा घटिहै, जु पै प्रान-पियारे को देखन पैऐ॥

मोहन आयो इहां सपने, मुसकात और खात विनोद सों बीरो।
बैठी हुती परजंक पै हौं उठी मिलिबे उठी मिलिबे कहं कै मन धीरो॥

ऐसे में 'दास बिसासनी दसासी, जगायो डुलाय केवार जंजीरो।
झूठो भयो मिलिबो ब्रजराज को, ए री! गयो गिरि हाथ को हीरो॥

आलिन आगें न बात कढै, न बढै उठि ओंठनि तें मुसुकानि है।
रोस सुभाइ कटाच्छ के घाइन, पांइ की आहट जात न जानि है॥

'दास न कोऊ कं कबं कहै, कान्ह तै यातैं कछू पहिचानि है।
देखि परै दुनियाई में दूजी न, तोसी तिया चतुराई की खानि है॥

होत मृगादिक तें बडे बारन, बारन बृंद पहारन हेरे।
सिंदु में केते पहार परे, धरती में बिलोकिये सिंधु घनेरे॥

लोकनि में धरती यों किती, हरिबोदर में बहु लोक बसेरे।
ते हरि 'दास बसे इन नैनन, एते बडे दृग राधिका तेरे॥

अरविंद प्रफुल्लित देखि कै भौंर, अचानक जाइ अरैं पै अरैं।
बनमाल भली लखि कै मृगसावक, दौरि बिहार करैं-पै-करैं॥

सरसी ढिग पाइ कै व्याकुल मीन, हुलास सों कूदि परैं पै परैं।
अवलोकि गुपाल कौ 'दास जू ये, अंखियां तजि लाज ढरैं पै ढरैं॥

आनन है, अरबिंद न फूले, अलगीन न भूले कहां मंडरात हौ।
कीर, तुम्हैं कहा बाय लगी, भ्रम बिम्ब के ओंठन को ललचात हौ॥

'दास जू ब्याली न, बेनी बनाव है, पापी कलापी कहा इतरात हौ।
बोलती बाल, न बाजती बीन, कहां सिगरे मृग घेरत जात हौ॥

जेहि मोहिबे काज सिंगार सज्यो, तेहि देखत मोह में आय गई।
न चितौनि चलाय सकी, उनहीं की, चितौनि के घाय अघाय गई॥

वृषभानलली की दसा यह 'दास जू देत ठगौरी ठगाय गईं।
बरसाने गई दधि बेचन को, तहं आपुही आपु बिककाय गई॥

सोभा सुकेसी की केसन में है, तिलोत्तमा की तिल बीच निसानी।
उर्बसि ही में बसी, मुख की अनुहारि सो इंदिरा में पहिचानी।

जानु को रंभा, सुजान सु जान है, 'दास जू बानी में बानी समानी।
एती छबीलिन सों छबि छीनि कै, एक रची बिधि राधिका रानी॥

प्रेम तिहारे तें प्रान पिय, सब चेत की बात, अचेत ह्वै मेटति।
पायो तिहारो लिख्यो कछु सो, छिन ही छिन बांचत, खोलि लपेटति॥

छैल जू सैल तिहारी सुने, तेहि गैल की धूरि, लै नैन घुरेटति।
रावरे अंग को रंग बिचारि, तमाल की डार भुजा भरि भेंटति॥

न्यारो न होत बफारो ज्यों धूम में, धूम ज्यों जात घनै घन में हिलि।
'दास उसांस रलै जिमि पौन में, पौन ज्यों पैठत आंधिन में पिलि॥

कौन जुदा करै लौन ज्यों नीर में, नीर ज्यों छीर में जात खरो खिलि।
त्यों मति मेरी मिली मन मेरे में, मो मन गो मनमोहन सों मिलि॥

 

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