मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

दूसरा भाग

पहला आघात

 

बम्बई से निराश होकर मैं राजकोट पहुँचा । वहाँ अलग दफ्तर खोला । गाड़ी कुछ चली । अर्जियाँ लिखने का काम लगा औरहर महीने औसत रु. 300 की आमदनी होने लगी । अर्जी-दावे लिखने का यह काम मुझे अपनी होशियारी के कारण नहीं मिलने लगा था, कारण था वसीला । बड़े भाई के साथ काम करने वाले वकील की वकालत जमी हई थी । उनके पास जो बहुत महत्त्व के अर्जी-दावे अथवा वे महत्त्व का मानते, उसके काम तो बड़े बारिस्टर के पास ही जाता था। उनके गरीब मुवक्किल के अर्जी-दावे लिखने का काम मुझे मिलता था ।

बम्बई मे कमीशन नहीं देने की मेरी जो टेक था, मानना होगा कि यहाँ कायम न रहीं । मुझे दोनो स्थितियों का भेद समझाया गया था । वह यों था  : बम्बई में सिर्फ दलाल को पैसे देने की बात थी ; यहाँ वकील को देने हैं । मुझसे कहा गया था कि बम्बई की तरह यहाँ भी सब बारिस्टर बिना अपवाद के अमुक कमीशन देते हैं । अपने भाई की इस दलील का कोई जवाब मेरे पास न था : 'तुम देखते हो कि मैं दूसरे वकील का साझेदार हूँ । हमारे पास आने वाले मुकदमों में से जो तुम्हें देने लायक होते हैं, वे तुम्हें देने की मेरी वृत्ति तो रहती हैं । पर यदि तुम मेरे मेहनताने का हिस्सा मेरे साझी को न दो, तो मेरी स्थिति कितनी विषम हो जाए? हम साथ रहते हैं इसलिए तुम्हारे मेहनताने का लाभ मुझे तो मिल ही जाता हैं । पर मेरे साझी का क्या हो ? अगर वही मुकदमा वे दूसरे को दे , तो उसके मेहनताने में उन्हें जरुर हिस्सा मिलेगा ।' मैं इस दलील के भुलावे में आ गया और मैने अनुभव किया कि अगर मैने बारिस्टरी करनी हैं तो ऐसे मामलों में कमीशन न देने का आग्रह मुझे नहीं रखना चाहिये । मैं ढीला पड़ा । मैने अपने मन को मना लिया , अथवा स्पष्ट शब्दों में कहूँ तो धोखा दिया । पर इसके सिवा दूसरे किसी भी मामले में कमीशन देने की बात मुझे याद नहीं हैं ।

यद्दपि मेरा आर्थिक व्यवहार चल निकला, पर इन्हीं दिनों मुझे अपने जीवन का पहला आघात पहुँचा । अंग्रेज अधिकारी कैसे होते हैं, इसे मैं कानों से सुनता था, पर आँखों से देखने का मौका मुझे अब मिला ।

पोरबन्दर के भूतपूर्व राणा साहब को गद्दी मिलने से पहले मेरे भाई उनके मंत्री और सलाहकार थे । उनपर इस आशय का आरेप लगाया गया था कि उन दिनों उन्होंने राणा साहब को गलत सलाह दी थी । उस समय के पोलिटिकल एजेंट के पास यह शिकायत पहुँची और मेरे भाई के बोरे में उनका ख्याल खराब हो गया था । इस अधिकारी से मैं विलायत में मिला था । कह सकता हूँ कि वहाँ उन्होंने मुझ से अच्छी दोस्ती कर ली थी । भाई ने सोचा कि इस परिचय का लाभ उठाकर मुझे पोलिटिकल एजेंट से दो शब्द कहने चाहिये और उनपर जो खराब असर पड़ा हैं, उसे मिटाने की कोशिश करनी चाहिये । मुझे यह बात बिल्कुल अच्छी न लगी । मैने सोचा : मुझको विलायत के परिचय का कुछ लाभ नहीं उठाना चाहिये । अगर मेरे भाई ने कोई बुरा काम किया हैं तो सिफारिश से क्या होगा ? अगर नहीं किया है तो विधिवत् प्रार्थना-पत्र भेंजे अथवा अपनी निर्दोषता पर विश्वास रखकर निर्भय रहे । यह दलील भाई के गले न उतरी । उन्होंने कहा, 'तुम काठियावाड़ के नहीं जानते । दुनियादारी अभी तुम्हें सीखनी हैं । यहां तो वसीले से सारे काम चलते हैं । तुम्हारे समान भाई अपने परिचित अधिकारी के दो शब्द कहने का मौका आने पर दूर हट जाये तो यह उचित नहीं कहा जायगा ।'

मैं भाई की इच्छा टाल नहीं सका । अपनी मर्जी के खिलाफ मै गया । अफसर के पास जाने का मुझे कोई अधिकार न था । मुझे इसका ख्याल था कि जाने से मेरी स्वाभिमान नष्ट होगा । फिर भी मैंने उससे मिलने का समय मिला और मैं मिलने गया । पुराने परिचय का स्मरण कराया, पर मैने तुरन्त ही देखा कि विलायत और काठियावाड़ में फर्क हैं । अपनी कुर्सी पर बैठे हुए अफसर और छुट्टी पर गये हुए अफसर में फर्क होता हैं । अधिकारी ने परिचय की बात मान ली पर इसके साथ ही वह अधिक अकड़ गया । मैने उसकी आँखों में देखा और आँखों मे पढ़ा, मानो कह रहीं हो कि 'उस परिचय का लाभ उठाने के लिए तो तुम नहीं आये हो न? ' यह बात समझते हुई भी मैने अपनी बात शुरु की । साहब अधीर हो गये । बोले, 'तुम्हारे भाई प्रपंची हैं । मैं तुमसे ज्यादा बाते नहीं सुनना चाहता । मुझे समय नहीं हैं । तुम्हारे भाई को कुछ कहना हो तो वे विधिवत् प्रार्थना-पत्र दे।' यह उत्तर पर्याप्त था । पर गरज तो बावली होती हैं न ? मैं अपनी बात कहे जा रहा था । साहब उठे, 'अब तुम्हे जाना चाहिये ।'

मैने कहा, 'पर मेरी बात तो पूरी सुन लीजिये ।'

साहब खूब चिढ़ गये । बोले, 'चपरासी, इसे दरवाजा दिखाओ ।'

'हजूर' कहता हुआ तपरासी दौड़ा आया । मैं तो अब भी कुछ बड़बड़ा ही रहा था । चपरासी ने मुझे हाथ से धक्का देकर दरवाजे के बाहर कर दिया ।

साहब गये । चपरासी गया । मैं चला, अकुलाया, खीझा । मैनें तुरन्त एक पत्र घसीटा : 'आपने मेरा अपमान किया हैं । चपरासी के जरीये मुझ पर हमला किया हैं । आप माफी नहीं मागेगे तो मैं आप पर मानहानि का विधिवत् दावा करुँगा ।' मैने यह चिट्ठी भेजी । थोड़ी देर में साहब का सवार जवाब दे गया । उसका सा यह था :

'तुमने मेरे साथ असभ्यता का व्यवहार किया । जाने के लिए कहने पर भी तुम नहीं गये , इससे मैने जरुर चपरासी को तुम्हें दरवाजा दिखाने के लिए कहा । चपरासी के कहने पर भी तुम दफ्तर से बाहर नहीं गये, तब उसने तुम्हें दफ्फर से बाहर कर देने के लिए बल का उपयोग किया । तुम्हें जो करना हो सो करने के लिए तुम स्वतन्त्र हो ।'

यह जवाब जेब में ड़ालकर मैं मुँह लटकाये घर लौटा । भाई को सारा हाल सुनाया । वे दुःखी हुए । पर वे मुझे क्या तसल्ली देते ? मैने वकील मित्रों से चर्चा की । मैं कौन से दावा दायर करना जानता था? उन दिनों सर फिरोजशाह मेहता अपने किसी मुकदमे के सिलसिले में राजकोट आये हुए थे । मेरे जैसा नया बारिस्टर उनसे कैसे मिल सकता था ? उन्हें बुलाने वाले वकील के द्वारा पत्र भेजकर मैने उनकी सलाह बुछवायी । उनका उत्तर था : 'गाँधी से कहिये, ऐसे अनुभव तो सब वकील-बारिस्टरों को हुए होंगे । तुम अभी नये ही हो । विलायत खुमारी अभी तुम पर सवार हैं । तुम अंग्रेज अधिकारियों को पहचानते नहीं हो। अगर तुम्हें सुख से रहना हो और दो पैसे कमाने हो, तो मिली हुई चिट्ठी फाड़ डालो और जो अपमान हुआ है उसे पी जाओ । मामला चलाने से तुम्हे एक पाई का भी लाभ न होगा । उलटे , तुम बर्बाद हो जाओगे । तुम्हें अभी जीवन का अनुभव प्राप्त करना हैं ।'

मुझे यह सिखावन जहर की तरह कड़वी लगी, पर उस कड़वी घूंट को पी जाने के सिवा और कोई उपाय न था । मैं अपमान को भूल न सका, पर मैने उसका सदुपयोग किया । मैने नियम बना लिया : 'मैं फिर कभी अपने को ऐसी स्थिति में नहीं पड़ने दूँगा, इस तरह किसी की सिफारिश न करूँगा ।' इस नियम का मैने कभी उल्लंघन नहीं किया । इस आघात ने मेरे जीवन की दिशा बदल दी ।

 

 

 

 

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