मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

दूसरा भाग

धर्म निरीक्षण

 

इस प्रकार मैं हिन्दुस्तानी समाज की सेवा में ओतप्रोत हो गया , उसका कारण आत्म-दर्शन की अभिलाषा थी । ईश्वर की पहचान सेवा से ही होगी, यह मानकर मैने सेवा-धर्म स्वीकार किया था । मै हिन्दुस्तान की सेवा करता था , क्योकि वह सेवा मुझे अनायस प्राप्त हुई थी । मुझे उसे खोजने नही जाना पड़ा था । मै तो यात्रा करने, काठियावाड़ के पडयंत्रो से बचने और आजीविका खोजने के लिए दक्षिण अफ्रीका गया था । पर पड़ गया ईश्वर की खोज में - आत्म-दर्शन के प्रयत्न में । ईसाई भाइयों ने मेरी जिज्ञासा को बहुत तीव्र कर दिया था । वह किसी भी तरह शान्त होनेवाली न थी । मै शान्त होना चाहता तो भी ईसाई भाई-बहन मुझे शान्त होने न देते । क्योकि डरबन मे मि. स्पेन्सर वॉल्टन ने , जो दक्षिण अफ्रीका के मिशन के मुखिया थे, मुझे खोज निकाला । उनके घर में मैं कुटुम्बी-जैसा हो गया । इस सम्बन्ध का मूल प्रिटोरिया मे हुआ समागम था । मि. वॉल्टन की रीति-नीति कुछ दूसरे प्रकार की थी । उन्होने मुझे ईसाई बनने को कहा हो , सो याद नही । पर अपना जीवन उन्होने मेरे सामने रख दिया और अपनी प्रवृतियाँ - कार्यकलाप मुझे देखने दी । उनकी धर्मपत्नी बहुत नम्र परन्तु तेजस्वी महिला थी ।

मुझे इस दम्पती की पद्धति अच्छी लगती थी । अपने बीच के मूलभूत मतभेदो को हम दोनो जानते थे । ये मतभेद आपसी चर्चा द्वारा मिटने वाले नही थे । जहाँ उदारता , सहिष्णुता और सत्य होता है, वहाँ मतभेद भी लाभदायक सिद्ध होते है । मुझे इस युगल की नम्रता, उद्यमशीलता और कार्यपरायणता प्रिय थी । इसलिए समय-समय पर मिलते रहते थे ।

इस सम्बन्ध ने मुझे जाग्रत रखा । धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन के लिए जो फुरसत थी, अब असम्भव थी । पर जो थोड़ा समय बचता , उसका उपयोग मैं वैसे अध्ययन मे करता था । मेरा पत्र-व्यवहार जारी था । रायचन्दभाई मेरा मार्गदर्शन कर रहे थे । किसी मित्र ने मुझे नर्मदाशंकर की 'धर्म विचार' पुस्तक भेजी । उसकी प्रस्तावना मेरे लिए सहायक सिद्ध हुई । मैने नर्मदाशंकर के विलासी जीवन की बाते सुनी थी । प्रस्तावना मे उनके जीवन मे हुए परिवर्तनो का वर्णन था । उसने मुझे आकर्षित किया और इस कारण उस पुस्तक के प्रति मेरे मन मे आदर उत्पन्न हुआ । मै उसे ध्यानपूर्वक पढ गया ।

मैक्समूलर की 'हिन्दुस्तान क्या सिखाता हैं?' पुस्तक मैने बड़ी दिलचस्पी के साथ पढ़ी । थियॉसॉफिकल सोसायटी द्वारा प्रकाशित उपनिषदो का भाषान्तर पढ़ा । इससे हिन्दू धर्म के प्रति आदर बढ़ा । उसकी खूबियाँ मैं समझने लगा । पर दूसरे धर्मो के प्रति मेरे मन मे अनादर उत्पन्न नही हुआ । वाशिंग्टन अरविंग कृत मुहम्मद का चरित्र और कार्लाइल की मुहम्मद-स्तुति पढ़ी । मुहम्मद पैगम्बर के प्रति मेरा सम्मान बढ़ा । 'जरथुस्त के वचन' नामक पुस्तक भी मैने पढ़ी ।

इस प्रकार मैने भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों का थोड़ा-बहुत ज्ञान प्राप्त किया । मेरा आत्म-निरीक्षण बढ़ा । जो पढ़ा औऱ पसंद किया , उसे आचरण मे लाने की आदत पक्की हुई । अतएव हिन्दू धर्म से सूचित प्राणायाम-सम्बन्धी कुछ क्रियायें, जितनी पुस्तक की मदद से समझ सका उतनी मैने शुरु की । पर वे मुझे संधी नही । मै उनमे आगे न बढ़ सका । सोचा था कि वापस हिन्दुस्तान जाने पर उनका अभ्यास किसी शिक्षक की देखरेख में करुँगा । पर वह विचार कभी पूरा नही हो सका ।

टॉल्सटॉय की पुस्तकों का अध्ययन मैने बढ़ा लिया । उनकी 'गॉस्पेल्स इन ब्रीफ' ( नये करार का सार) , 'व्हॉट टु डू' (तब क्या करें? ) आदि पुस्तको ने मेरे मन मे गहरी छाप डाली । विश्व-प्रेम मनुष्य को कहाँ तक ले जा सकता हैं , इसे मै अधिकाधिक समझने लगा ।

इसी समय एक दूसरे ईसाई कुटुम्ब के साथ मेरा सम्बन्ध जुडा । उसकी इच्छा से मैं हर रविवार को वेरिलयन गिरजे मे जाया करता था । अक्सर हर रविवार की शाम को मुझे उनके घर भोजन भी करना पड़ता था । वेरिलयन गिरजे का मुझ पर अच्छा असर नहीं पड़ा । वहाँ जो प्रवचन होते थे, वे मुझे शुष्क जान पड़े । प्रेक्षकों मे भक्तिभाव के दर्शन नहीं हुए । यह ग्यारह बजे का समाज मुझे भक्तो का नही , बल्कि दिल बहलाने और कुछ रिवाज पालने के लिए आये हुए संसारी जीवो का समाज जान पड़ा । कभी कभी तो इस सभा में मुझे बरबस नींद के झोंके आ जाते । इससे मैं शरमाता । पर अपने आसपास भी किसी को ऊँधते देखता , तो मेरी शरम कुछ कम हो जाती । अपनी यह स्थिति मुझे अच्छी नही लगी । आखिर मैने इस गिरजे मे जाना छोड दिया ।

मैं जिस परिवार मे हर रविवार को जाता था, कहना होगा कि वहाँ से तो मुझे छुट्टी ही मिल गयी । घर की मालकिन भोली , परन्तु संकुचित मन की मालूम हुई । हर बार उनके साथ कुछ न कुछ धर्मचर्चा तो होती ही रहती थी । उन दिनों मैं घर पर 'लाइट ऑफ एशिया' पढ़ रहा था । एक दिन हम ईसा और बुद्ध के जीवन की तुलना करने लगे । मैने कहा , 'गौतम की दया देखिये। वह मनुष्य-जाति को लाँधकर दुसरे प्राणियों तक पहुँच गयी थी । उनके कंधे पर खेलते हुए मेमने का चित्र आँखो के सामने आते ही क्या आपका हृदय प्रेम से उमड़ नही पड़ता ? प्राणीमात्र के प्रति ऐसा प्रेम मैं ईसा के चरित्र मे नहीं देख सका ।'

उस बहन का दिल दुखा । मैं समझ गया । मैने अपनी बात आगे न बढ़ायी । हम भोजनालय मे पहुँचे । कोई पाँच वर्ष का उनका हंसमुख बालक भी हमारे साथ था । मुझे बच्चे मिल जाये तो फिर और क्या चाहिये ? उसके साथ मैने दोस्ती तो कर ही ली थी । मैने उसकी थाली मे पड़े माँस के टुकडे का मजाक किया और उपनी रबाकी मे सजे हुए सेव की स्तुति की । निर्दोष बालक पिघल गया और सेव की स्तुति मे सम्मिलित हो गया ।

पर माता ? वह बेचारी दुखी हुई । मै चता । चुप्पी साध गया । मैने चर्चा का विषय बदल दिया ।

दूसरे हफ्ते सावधान रहकर मै उनके यहाँ गया तो सही , पर मेरे पाँव भारी हो गये थे । मुझे यह न सूझा कि मै खुद ही वहाँ जाना बन्द कर दूँ और न ऐसा करना उचित जान पड़ा । पर उस भली बहन ने मेरी कठिनाई दूर कर दी । वे बोली, 'मि. गाँधी, आप बुरा न मानियेगा, पर मुझे आप से कहना चाहिये कि मेरे बालक पर आपकी सोहब्बत का बुरा असर होने लगा हैं। अब रोज माँस खाने में आनाकानी करता हैं । और आपकी उस चर्चा का याद दिलाकर फल माँगता हैं । मुझसे यह न निभ सकेगा । मेरा बच्चा माँसाहार छोडने से बीमार चाहे न पड़े, पर कमजोर तो हो ही जायेगा । इसे मैं कैसे सह सकती हूँ ? आप जो चर्चा करते हैं , वह हम सयानो के बीच शोभा दे सकती हैं । लेकिन बालको पर तो उसका बुरा ही असर हो सकता हैं ।'

'मिसेज... मुझे दुःख है । माता के नाते मैं आपकी भावना को समझ सकता हूँ । मेरे भी बच्चे हैं । इस आपत्ति का अन्त सरलता से हो सकता हैं । मेरे बोलने का जो असर होगा, उसकी अपेक्षा मैं जो खाता हूँ या नही खाता हूँ, उसे देखने का असर बालक पर बहुत अधिक होगा । इसलिए अच्छा रास्ता तो यह है कि अब से आगे मैं रविवार को आपके यहाँ न आऊँ । इससे हमारी मित्रता में कोई बाधा न पहुँचेगी ।'

बहन ने प्रसन्न होकर उत्तर दिया , 'मै आपका आभार मानती हूँ ।

 

 

 

top