मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

दूसरा भाग

नेटाल इंडियन कांग्रेस

 

वकालत को धंधा मेरे लिए गौण वस्तु थी और सदा गौण ही रही । नेटाल मे अपने निवास को सार्थक करने के लिए तो मुझे सार्वजनिक काम मे तन्मय हो जाना था । भारतीय मताधिकार प्रतिबंधक कानून के विरुद्ध केवल प्रार्थना-पत्र भेजकर ही बैठा नहीं जा सकता था । उसके बारे मे आन्दोलन चलते रहने से ही अपनिवेश-मंत्री पर उसका असर पड सकता था । इसके लिए एक संस्था की स्थापना करना आवश्यक मालूम हुआ । इस सम्बन्ध में मैने अब्दुल्ला सेठ से सलाह की दूसरे साथियों से मिला , और हमने एक सार्वजनिक संस्था खड़ी करने का निश्चय किया ।

उसके नामकरण में थोड़ धर्म-संकट था । इस संस्था को किसी पक्ष के साथ पक्षपात नही करना था । मै जानता था कि कांग्रेस का नाम कंज्रवेटिव ( पुराणपंथी) पक्ष मे अप्रिय था । पर कांग्रेस हिन्दुस्तान का प्राण थी । उसकी शक्ति तो बढ़नी ही चाहिये । उस नाम को छिपाने मे अथवा अपनाते हुए संकोच करने में नामर्दी की गंध आती थी । अतएव मैने अपनी दलीले पेश करके संस्था का नाम 'कांग्रेस' ही रखने का सुझाव दिया , और सन् 1894 के मई महीने की 22 तारीख को नेटाल इंडियन कांग्रेस का जन्म हुआ ।

दादा अब्दुल्ला ऊपरवाला बड़ा कमरा भर गया था । लोगो ने इस संस्था का उत्साह पूर्वक स्वागत किया । उसका विधान सादा रखा था । चन्दा भारी था । हर महीने कम-से-कम पाँच शिलिंग देने वाला ही उसका सदस्य बन सकता था । धनी व्यापारियों के रिझा कर उनसे अधिक-से-अधिक जिनता लिया जा सके, लेने का निश्चय हुआ । अब्दुल्ला सेठ से महीने के दो पौंड लिखवाये । दूसरे भी सज्जनों से इतने ही लिखवाये । मैने सोचा कि मुझे तो संकोच करना ही नहीं चाहिये , इसलिए मैने महीने का एक पौंड लिखाया । मेरे लिए यह कुछ बड़ी रकम थी । पर मैने सोचा कि अगर मेरा खर्च चलने वाला हो , तो मेरे लिए हर महीने एक पौंड देना अधिक नहीं होगा । ईश्वर ने मेरी गाड़ी चला दी । एक पौंड देने वालो की संख्या काफी रही । दस शिलिंगवाले उनसे भी अधिक । इसके अलावा , सदस्य बने बिना कोई अपनी इच्छा से भेंट के रुप में जो कुछ भी दे सो स्वीकार करना था ।

अनुभव से पता चला कि बिना तकाजे के कोई चन्दा नही देता । डरबन से बाहर रहनेवालो के यहाँ बार-बार जाना असंभव था । आरम्भ-शूरता का दोष तुरन्त प्रकट हुआ । डरबन मे भी कई बार चक्कर लगाने पर पैसे मिलते थे ।

मै मंत्री था । पैसे उगाहने का बोझ मेरे सिर था । मेरे लिए अपने मुहर्रिर का लगभग सारा दिन उगाही के काम मे ही लगाये रखना जरुरी हो गया । मुहर्रिर भी दिक आ गया । मैने अनुभव किया कि चन्दा मासिक नहीं, वार्षिक होना चाहिये और वह सबको पेशगी ही देना चाहिये । सभा की गयी । सबने मेरी सूचना का स्वागत किया और कम-से-कम तीन पौंड वार्षिक चन्दा लेने का निश्चय हुआ । इससे वसूली का काम आसान बना ।

मैने आरम्भ मे ही सीख लिया था कि सार्वजनिक काम कभी कर्ज लेकर नही करना चाहिये । दूसरे कामो के बारे मे लोगो का विश्वास चाहे किया जाय, पर पैसे के वादे का विश्वास नही किया जा सकता । मैने देख लिया था कि लिखायी हुई रकम चुकाने का धर्म लोग कहीं भी नियमित रुप से नही पालते । इसमे नेटाल के भारतीय अपवादरुप नहीं थे । अतएव नेटाल इंडियन कांग्रेस ने कभी कर्ज लेकर काम किया ही नही ।

सदस्य बनाने मे साथियों ने असीम उत्साह का परिचय दिया था । इसमे उन्हे आनन्द आता था । अनमोल अनुभव प्राप्त होते थे । बहुतेरे लोग खुश होकर नाम लिखाते और तुरन्त पैसे दे देते थे । दूर-दूर के गाँवो मे थोड़ी कठिनाई होता थी । लोग सार्वजनिक काम का अर्थ नही समझते थे । बहुत-सी जगहो मे तो लोग अपने यहाँ आने का न्योता भेजते और प्रमुख व्यापारी के यहाँ ठहराने की व्यवस्था करते । पर इन यात्राओ मे एक जगह शुरु मे ही हमे मुश्किल का सामना करना पड़ा । वहाँ एक व्यापारी से छह पौंड मिलने चाहिये थे , पर वह तीन से आगे बढता ही न था । अगर इतनी रकम हम ले लेते, तो फिर दूसरो से अधिक न मिलती । पड़ाव उन्ही के घर था । हम सब भूखे थे । पर जब तक चंदा न मिले, भोजन कैसे करे? उन भाई को खूब समझाया-मनाया । पर वे टस से मस न होते थे । गाँव के दूसरे व्यापारियों मे भी उन्हे समझाया । सारी रात झक-झक मे बीत गयी । गुस्सा तो कई साथियों को आया , पर किसी ने विनय का त्याग न किया । ठेठ सबेरे वे भाई पिघले और उन्होने छह पौंड दिये । हमें भोजन कराया । यह घटना टोंगाट मे घटी थी । इसका प्रभाव उत्तरी किनारे पर ठेठ स्टेंगर तक और अन्दक की ओर ठेठ चार्ल्सटाउन तक पड़ा । इससे चंदा वस्ली का काम आसान हो गया ।

पर हमारा हेतु केवल पैसे इकट्ठे करने का न था । आवश्यकता से अधिक पैसा न रखने का तत्त्व भी मैं समझ चुका था ।

सभा हर हफ्ते या हर महीने आवश्यकता के अनुसार होती थी । उसमे पिछली सभा का विवरण पढ़ा जाता और अनेक प्रकार की चर्चाये होती । चर्चा करने की और थोड़े मे मुद्दे की बात कहने की आदत तो लोगो की थी ही नही । लोग खड़े होकर बोलने मे झिझकते थे । सभा के नियम समझाये गये ।

 

और लोगो ने उनकी कदर की । इससे होनेवाले अपने लाभ को वे देख सके और जिन्हें पहले कभी सार्वजनिक रुप से बोलने की आदत नही थी, वे सार्वजनिक कामो के विषय मे बोलने और विचारने लग गये ।

मैं यह भी जानता था कि सार्वजनिक काम करने मे छोटे-छोटे खर्च बहुत पैसा खा जाते हैं । शुरु मे तो मैने निश्चय कर लिया था कि रसीद बुक तक न छपायी जाय । मेरे दफ्तर में साइक्लोस्टाइल मशीन थी । उस पर रसीदे छपा ली । रिपोर्ट भी मैं इसी तरह छपा लेता था । जब तिजोरी मे काफी पैसा जमा हो गया । सदस्य बढ़े, काम बढ़ा , तभी रसीद आदि छपाना शुरु किया । ऐसी किफायत हर एक संस्था के लिए आवश्यक हैं । फिर भी मै जानता हूँ कि हमेशा यह मर्यादा रह नही पाती । इसीलिए इस छोटी-सी उगती हुई संस्था के आरम्भिक निर्माण काल का विवरण देना मैने उचित समझा हैं । लोग रसीद की परवाह नही करते थे । फिर भी उन्हे आग्रह पूर्वक रसीद दी जाती थी । इसके कारण आरम्भ से ही पाई-पाई का हिसाब साफ रहा , और मै मानता हूँ कि आज भी नेटाल कांग्रेस के दफ्तर मे सन् 1894 के पूरे-पूरे ब्योरेवाले बही-खाते मिलने चाहिये । किसी भी संस्था का बारीकी से रखा गया हिसाब उनकी नाक हैं । इसके अभाव मे वह संस्था आखिर गन्दी और प्रतिष्ठा-रहित हो जाती हैं । शुद्ध हिसाब के बिना शुद्ध सत्य की रक्षा असम्भव हैं ।

कांग्रेस का दूसरा अंग उपनिवेश मे जन्मे हुए पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानियो की सेवा करना था । इसके लिए 'कॉलोनियल बॉर्न इंडियन एज्युकेशनल ऐसोसियेशन' की स्थापना की गयी । नवयुवक ही मुख्यतः उसके सदस्य थे । उन्हें बहुत थोड़ा चंदा देना होता था । इस संस्था के द्वारा उनकी आवश्यकताओ का पता चलता था और उनकी विचार-शक्ति बढती थी । हिन्दुस्तानी व्यापारियों के साथ उनका सम्बन्ध कायम होता था और स्वयं उन्हे भी समाज सेवा करने के अवसर प्राप्त होते थे । यह संस्था वाद-विवाद मंडल जैसी थी । इसकी नियमित सभाये होती थी । उनमे वे लोग भिन्न-भिन्न विषयों पर अपने भाषण करते और निबन्ध पढ़ते थे । इसी निमित्त से एक छोटे से पुस्तकालय की भी स्थापना हुई थी ।

कांग्रेस का तीसरा अंग था बाहरी कार्य । इसमे दक्षिण अफ्रीका के अंग्रेजो मे और बाहर इंग्लैंड तथा हिन्दुस्तान में नेटाल की सच्ची स्थिति पर प्रकाश डालने का काम होता था । इस उद्देश्य से मैने दो पुस्तिकाये लिखी । पहली पुस्तिका नाम था 'दक्षिण अफ्रीका मे रहने वाले प्रत्येक अंग्रेज से बिनती' । उसमे नेटाल- निवासी भारतीयो की स्थिति का साधारण दिग्दर्शन प्रमाणों सहित कराया गया था । दूसरी पुस्तक का नाम था 'भारतीय मताधिकार - एक बिनती' उसमे भारतीय मताधिकार का इतिहास आंकड़ो और प्रमाणो-सहित दिया गया था । ये दोनो पुस्तिकाये काफी अध्ययन के बाद लिखी गयी थी । इनका व्यापक प्रचार किया गया था । इस कार्य के निमित्त से दक्षिण अफ्रीका मे हिन्दुस्तानियो के मित्र पैदा हो गये । इंग्लैंड में तथा हिन्दुस्तान में सब पक्षो की तरफ से मदद मिली , कार्य करने की दिशा प्राप्त हुई औऱ उसने निश्चित रुप धारण किया ।

 

 

 

 

top