मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

तीसरा भाग

गोखले के साथ एक महीना -3

 

कालीमाता के निमित्त से होनेवाला विकराल यज्ञ देखकर बंगाली जीवन को जानने की मेरी इच्छा बढ़ गयी । ब्रह्मसामाज के बारे में तो मैं काफी पढ़-सुन चुका था । मैं प्रतापचन्द्र मजूमदार का जीवनवृतान्त थोड़ा जानता था । उनके व्याख्यान मै सुनने गया था । उनका लिखा केशवचन्द्र सेन का जीवनवृत्तान्त मैने प्राप्त किया और उसे अत्यन्त रस पूर्वक पढ़ गया । मैने साधारण ब्रह्मसमाज और आदि ब्रह्मसमाज का भेद जाना । पंडित विश्वनाथ शास्त्री के दर्शन किये । महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के दर्शनों के लिए मैं प्रो. काथवटे के साथ गया । पर वे उन दिनों किसी से मिलते न थे , इससे उनके दर्शन न हो सके । उनके यहाँ ब्रह्मसमाज का उत्सव था । उसमें सम्मिलित होने का निमंत्रण पाकर हम लोग वहाँ गये थे और वहाँ उच्च कोटि का बंगाली संगीत सुन पाये थे । तभी से बंगाली संगीत के प्रति मेरा अनुराग बढ़ गया ।

ब्रह्मसमाज का यथासंभव निरीक्षण करने के बाद यह तो हो ही कैसे सकता था कि मैं स्वामी विवेकानन्द के दर्शन न करुँ ? मैं अत्यन्त उत्साह के साथ बेलूर मठ तक लगभग पैदल पहुँचा । मुझे इस समय ठीक से याद नही हैं कि मैं पूरा चला था या आधा । मठ का एकान्त स्थान मुझे अच्छा लगा था । यह समाचार सुनकर मै निराश हुआ कि स्वामीजी बीमार हैं , उनसे मिला नही जा सकता औऱ वे अपने कलकत्ते वाले घर में है । मैने भगिनी निवेदिता के निवासस्थान का पता लगाया । चौरंगी के एक महल मे उनके दर्शन किये । उनकी तड़क-भड़क से मैं चकरा गया। बातचीत मे भी हमारा मेल नही बैठा ।

गोखले से इसकी चर्चा की । उन्होंने कहा, 'वह बड़ी तेज महिला हैं । अतएव उससे तुम्हारा मेल न बैठे , इसे मै समझ सकता हूँ ।'

फिर एक बार उनसे मेरी भेट पेस्तनजी पादशाह के घर हुई थी । वे पेस्तनजी की वृद्धा माता को उपदेश दे रही थी , इतने मे मैं उनके घर जा पहुँचा था। अतएव मैने उनके बीच दुभाषिये का काम किया था । हमारे बीच मेल न बैठते हुए भी इतना तो मैं देख सकता था कि हिन्दू धर्म के प्रति भगिनी का प्रेम छलका पड़ता था । उनकी पुस्तकों का परिचय मैने बाद मे किया ।

 

मैंने दिन के दो भाग कर दिये थे । एक भाग मैं दक्षिण अफ्रीका के काम के सिलेसिले मे कलकत्ते मे रहनेवाले नेताओ से मिलने मे बिताता था , और दूसरा भाग कलकत्ते की धार्मिक संस्थाये और दूसरी सार्वजनिक संस्थाये देखने मे बिताता था ।

एक दिन बोअर-युद्ध मे हिन्दुस्तानी शुश्रषा-दल मे जो काम किया था , उस पर डॉ. मलिक के सभापतित्व मे मैने भाषण किया । 'इंलिश मैन' के साथ मेरी पहचान इस समय भी बहुत सहायक सिद्ध हुई । मि. सॉंडर्स उन दिनो बीमार थे , पर उनकी मदद तो सन् 1896 मे जितनी मिली थी, उतनी ही इस समय भी मिली । यह भाषण गोखले को पसन्द आया था और जब डॉ. राय ने मेरे भाषण की प्रशंसा की तो वे बहुत खुश हुए थे ।

यों, गोखले की छाया मे रहने से बंगाल में मेरा काम बहुत सरल हो गया था । बगाल के अग्रगण्य कुटुंबो की जानकारी मुझे सहज ही मिल गयी और बंगाल के साथ मेरा निकट संबंध जुड़ गया । इस चिरस्मरणीय महीने के बहुत से संस्मरण मुझे छोड़ देने पड़ेगे । उस महीने मे मैं ब्रह्मदेश का भी एक चक्कर लगा आया था । वहाँ के फुंगियो से मिला था । उनका आलस्य देखकर मै दुःखी हुआ था । मैने स्वर्ण-पैगोड़ा के दर्शन किये । मंदिर मे असंख्य छोटी-छोटी मोमबत्तियाँ जल रही थी । वे मुझे अच्छी नही लगी । मन्दिर के गर्भगृह में चूहों को दौड़ते देखकर मुझे स्वामी दयानन्द के अनुभव का स्मरण हो आया । ब्रह्मदेश की महिलाओ की स्वतंत्रता , उनका उत्साह और वहाँ के पुरुषों की सुस्ती देखकर मैने महिलाओ के लिए अनुराग और पुरुषो के लिए दुःख अनुभव किया। उसी समय मैने यह भी अनुभव किया कि जिस तरह बम्बई हिन्दुस्तान नही हैं , उसी तरह रंगून ब्रह्मदेश नही हैं , और जिस प्रकार हम हिन्दुस्तान मे अंग्रेज व्यापारियों के कमीशन एजेंट या दलाल बने हुए हैं , उसी प्रकार ब्रह्मदेश में हमने अंग्रेजो के साथ मिलकर ब्रह्मदेशवासियो को कमीशन एजेंट बनाया है ।

ब्रह्मदेश से लौटने के बाद मैने गोखले से बिदा ली । उनका वियोग मुझे अखरा , पर बंगाल - अथवा सच कहा जाय तो कलकत्ते का -- मेरा काम पूरा हो चुका था ।

मैने सोचा था कि धन्धे मे लगने से पहले हिन्दुस्तान की एक छोटी-सी यात्रा रेलगाड़ी के तीसरे दर्जे मे करुँगा और तीसरे दर्जें मे यात्रियों का परिचय प्राप्त करके उनका कष्ट जान लूँगा । मैने गोखले के सामने अपना यह विचार रखा । उन्होंने पहले तो उसे हँस कर उड़ा दिया । पर जब मैने इस यात्रा के विषय मे अपनी आशाओं का वर्णन किया, तो उन्होंने प्रसन्नता-पूर्वक मेरी योजना को स्वीकृति दे दी । मुझे पहले तो काशी जाना था और वहाँ पहुँचकर विदुषी एनी बेसेंट के दर्शन करने थे । वे उस समय बीमार थी ।

इस यात्रा के लिए मुझे नया सामान जुटाना था । पीतल का एक डिब्बा गोखले ने ही दिया और उसमे मेरे लिए बेसन के लड्डू और पूरियाँ रखवा दी । बारह आने मे किरमिच का एक थैला लिया । छाया (पोरबन्दर के पास के एक गाँव) की ऊन का एक ओवरकोट बनवाया । थैले मे यह ओवरकोट , तौलिया, कुर्ता और धोती थी । ओढने को एक कम्बल था। इसके अलावा एक लोटा भी साथ मे रख लिया था । इतना सामान लेकर मै निकला ।

गोखले और डॉ. राय मुझे स्टेशन तक पहुँचाने आये । मैने दोनों से न आने की बिनती की । पर दोनों ने आने का अपना आग्रह न छोड़ा । गोखले बोले , 'तुम पहले दर्जे मे जाते तो शायद मै न चलता, पर अब तो मुझे चलना ही पड़ेगा ।'

प्लेटफार्म पर जाते समय गोखले को किसी ने नही रोका। उन्होने अपनी रेशमी पगड़ी बाँधी और धोती तथा कोट पहना था । डॉ. राय ने बंगाली पोशाक पहनी थी, इसलिए टिकट-बाबू मे पहले तो उन्हें अन्दर जाने से रोका, पर जब गोखने ने कहा, 'मेरे मित्र हैं ।' तो डॉ. राय भी दाखिल हुए । इस तरह दोनों ने मुझे बिदा किया ।

 

 

 

 

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