मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

तीसरा भाग

लार्ड कर्जन का दरबार

 

कांग्रेस-अधिवेशन समाप्त हुआ, पर मुझे तो दक्षिण अफ्रीका के लिए कलकत्ते मे रहकर चेम्बर ऑफ कॉमर्स इत्यादि मंड़लो से मिलना था । इसलिए मैं कलकत्ते में एक महीना ठहरा । इस बार मैने होटल में ठहरने के बदले परिचय प्राप्त करके 'इंडिया क्लब' में ठहरने की व्यवस्था की । इस क्लब में अग्रगण्य भारतीय उतरा करते थे । इससे मेरे मन मे यह लोभ था कि उनसे मेल-जोल बढ़ाकर मैं उनमें दक्षिण अफ्रीका के काम के लिए दिलचस्पी पैदा कर सकूँगा । इस क्लब में गोखले हमेशा तो नही, पर कभी-कभी बिलियर्ड खेलने आया करते थे । जैसे ही उन्हें पता चला कि मैं कलकत्ते मे ठहरने वाला हूँ , उन्होंने मुझे अपने साथ रहने के लिए निमंत्रित किया । मैने उनका निमंत्रण साभार स्वीकार किया, पर मुझे अपने-आप वहाँ जाना ठीक न लगा । एक-दो दिन बाट जोहता रहा । इतने में गोखले खुद आकर मुझे अपने साथ ले गये । मेरा संकोच देखकर उन्होंने कहा, 'गाँधी, तुम्हे इस देश मे रहना है। अतएव ऐसी शरम से काम नहीं चलेगा । जितने अधिक लोगो के साथ मेल-जोल बढ़ा सको तुम्हें बढ़ाना चाहिये । मुझे तुमसे कांग्रेस का काम लेना हैं ।'

गोखले के स्थान पर जाने से पहले 'इंडिया क्लब' का एक अनुभव यहाँ देता हूँ ।

उन्हीं दिनो लार्ड कर्जन का दरबार हुआ । उसमे जानेवाले कोई राजामहाराजा इस क्लब मे ठहरे हुए थे । क्लब मे तो मैं हमेशा सुन्दर बंगाली धोती, कुर्ता और चादर की पोशाक मे देखता था । आज उन्होंने पतलून, चोगा और चमकीले बूट पहने थे । यह देखकर मुझे दुःख हुआ और मैने इस परिवर्तन का कारण पूछा ।

जवाब मिला, 'हमारा दुःख हम ही जानते हैं । अपनी सम्पति और अपनी उपाधियों को सुरक्षित रखने के लिए हमें जो अपमान सहने पड़ते हैं , उन्हें आप कैसे जान सकते हैं ?'

'पर यह खानसाने-जैसी पगड़ी और ये बूट किसलिए?'

'हममें और खानसामो मे आपने क्या फर्क देखा ? वे हमारे खानसामा है, तो हम लार्ड कर्जन के खानसामा हैं । यदि मैं दरबार में अनुपस्थित रहूँ, तो मुझको उसका दण्ड भुगतना पड़े । अपनी साधारण पोशाक पहनकर जाऊँ तो वह अपराध माना जायेगा । और वहाँ जाकर भी क्या मुझे लार्ड कर्जन से बाते करने का अवसर मिलेगा? कदापि नहीं ।'

मुझे इस स्पष्टवक्ता भाई पर दया आयी ।

ऐसे ही प्रसंगवाला एक और दरबार मुझे याद आ रहा हैं । जब काशी के हिन्दू विश्वविद्यालय की नींव लार्ड़ हार्डिग के हाथों रखी गयी , तब उनका दरबार हुआ था । उसमें राजा-महाराजा तो आये ही थे । भारत-भूषण मालवीयजी मे मुझसे भी उसमे उपस्थित रहने का विशेष आग्रह किया था । मैं वहाँ गया था । केवल स्त्रियों को ही शोभा देनेवाली राजा-महाराजाओं की पोशाकें देखकर मुझे दुःख हुआ । रेशमी पाजामे, रेशमी अंगरखे और गले मे हीरे-मोती की मालाये, हाथ पर बाजूबन्द और पगड़ी पर हीरे-मोती की झालरें ! इन सबके साथ कमर में सोने की मूठवाली तलवार लटकती थी । किसी ने बताया कि ये चीजे उनके राज्याधिकार की नहीं, बल्कि उनकी गुलामी की निशानियाँ थीं । मै मानता था कि ऐसे नामर्दी-सूजक आभूषण वे स्वेच्छा से पहनते होगे । पर मुझे पता चला कि ऐसे सम्मेलनों मे अपने सब मूल्यावन आभूषण पहनकर जाना राजाओं के लिए अनिवार्य था । मुझे यह भी मालूम हुआ कि कईयों को ऐसे आभूषण पहनने से धृणा थी और ऐसे दरबार के अवसर को छोड़कर अन्य किसी अवसर पर वे इन गहनों को पहनते भी न थे । इस बात मे कितनी सच्चाई थी, सो मैं जानता नही । वे दूसरे अवसरों पर पहनते हों, क्या वाइसरॉय के दरबार मे और क्या दूसरी जगह, औरतों को ही शोभा देने वाले आभूषण पहनेकर जाना पड़े, यही पर्याप्त दुःख की बात हैं । धन, सत्ता और मान मनुष्य से कितने पाप और अनर्थ कराते है !

 

 

 

 

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