मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

तीसरा भाग

तूफान की आगही

 

कुटुम्ब के साथ यह मेरी पहली समुंद्री यात्रा थी । मैंने कितनी बार ही लिखा हैं कि हिन्दू समाज में ब्याह बचपन में होने के कारण और मध्यम श्रेणी के लोगों में पति के प्रायः साक्षर होने और पत्नी के प्रायः निरक्षर होने के कारण पति-पत्ना के जीवन में अन्तर रहता हैं और पति को पत्नी का शिक्षक बनना पड़ता हैं । मुझे अपनी धर्मपत्नी और बालकों की वेश-भूषा की, खाने-पीने की और बोलचाल की संभाल रखनी होती थी । मुझे उन्हें रीति-रिवाज सिखाने होते थे । उन दिनों की कितनी बातों की याद मुझे आज भी हँसाती हैं । हिन्दू पत्नी पति-परायणता में अपने धर्म की पराकाष्ठा मानती हैं ; हिन्दू पति अपने को पत्नी का ईश्वर मानता हैं । इसलिए पत्नी को पति जैसा नचाये वैसा नाचना होता हैं ।

जिस समय की बात लिख रहा हूँ, उस समय मैं मानता था कि सभ्य माने जाने के लिए हमारा बाहरी आचार-व्यवहार यथासम्भव यूरोपियनों से मिलता जुलता होना चाहिये । ऐसा करने से ही लोगों पर प्रभाव पड़ता हैं और बिना प्रभाव पड़े देशसेवा नहीं हो सकती । इस कारण पत्नी की और बच्चों की वेश-भूषा मैंने ही पसन्द की । स्त्री-बच्चों का परिच काठियावाड़ी बनियों के बच्चों के रूप में कराना मुझे कैसे अच्छा लगता ? भारतीयों में पारसी अधिक से अधिक सुधरे हुए माने जाते थे । अतएव जहाँ यूरोपियन पोशाक का अनुकरण करना अनुचित प्रतीत हुआ, वहाँ पारसी पोशाक अपनायी । पत्नी के लिए साड़ियाँ पारसी बहनों के ढंग की खरीदी । बच्चो के लिए पारसी कोट-पतलून खरीदे । सबके लिए बूट और मोजे तो जरूर थे ही । पत्नी और बच्चों को दोनों चीजें कई महीने तक पसंद नहीं पड़ी । जूते काटते । मोजे बदबू करते । पैर सूज जाते । लेकिन इस सारी अड़चनों के जवाब मेरे पास तैयार थे । उत्तर की योग्यता की अपेक्षा आज्ञा का बल अधिक था ही । इसलिए पत्नी और बालकों मे पोशाक के फेरबदल को लाचारी से स्वीकार कि लिया । उतनी ही लाचारी और उससे भी अधिक अरुचि से खाने में उन्होंने छुरी-काँटे का उपयोग शुरू किया। बाद में जब मोह दूर हुआ तो फिर से बूट-मोजे, छुरी-काँटे इत्यादि का त्याग किया । शुरू में जिस तरह से ये परिवर्तन दुःखदायक थे, उसी तरह आदत पड़ने के बाद उनका त्या भी कष्टप्रद था । पर आज मैं देखता हूँ कि हम सब सुधारों की कैंचुल उतारकर हलके हो गये हैं ।

इसी स्टीमर मे दूसरे कुछ रिश्तेदार और जान-पहजान वाले भी थे । मैं उनसे और डेक के दूसरे यात्रियों से भी खूब मिलता-जुलता रहता था । क्योंकि स्टीमर मेरे मुवक्किल और मित्र का था, इसलिए घर का सा लगता था । और मैं हर जगह आजादी से घूम-फिर सकता था ।

स्टीमर दूसरे बन्दरगाह पर ठहरे बिना सीधा नटाल पहुँचनेवाला था । इसके लिए केवल अठारह दिन की यात्रा था । हमारे पहुँचने में तीन-चार दिन बाकी थे कि इतने में समुद्र में भारी तूफान उठा मानो वह हमारे पहुँचते ही उठने वाले तूफान की हमें चेतावनी दे रहा हो ! इस दक्षिणी प्रदेश में दिसम्बर का महीना गरमी और वर्षा का महीना होता हैं, इसलिए दक्षिणी समुद्र में इन दिनों छोटे-मोटे तूफान तो उठते ही रहते हैं । लेकिन यह तूफान जोर का था और इतनी देर तक रहा कि यात्री घबरा उठे ।

यह दृश्य भव्य था । दुःख में सब एक हो गये । सारे भेद-भाव मिट गये । ईश्वर को हृदय पूर्वक याद करने लगे । हिन्दू-मुसलमान सब साथ मिलकर भगवान का स्मरण करने लगे । कुछ लोगों ने मनौतियाँ मानी । कप्तान भी यात्रियों से मिला-जुला और सबको आश्वासन देते हुए बोला , "यद्यपि यह तूफान बहुत जोर का माना जा सकता हैं, तो भी इससे कहीं ज्यादा जोर के तूफानों का मैने स्वयं अनुभव किया हैं । स्टीमर मजबूत हो तो वह अचानक डूबता नहीं। " इस प्रकार उसने यात्रियों को बहुत-कुछ समझाया , पर इससे उन्हें तसल्ली न हूई । स्टीमर में से आवाजें ऐसी होती थी , मानो अभी कहीं से टूट जायेगा, अभी कहीं छेद हो जाय़ेगा । जब वह हचकोले खाता तो ऐसा लगता मानो अभी उलट जायेगा । डेक पर तो कोई रह ही कैसे सकता था ? सबके मुँह से एक ही बात सुनायी पड़ती थी : 'भगवान जैसा रखे वैसा रहना होगा ।'

जहाँ तक मुझे याद हैं, इस चिन्ता में चौबीस घंटे बीते होंगे । आखिर बादल बिखरे । सूर्यनारायण ने दर्शन दिये । कप्तान ने कहा, "तूफान चला गया हैं।"

लोगों के चहेरों पर से चिन्ता दूर हुई और उसी के साथ ईश्वर भी लुप्त हो गया ! लोग मौत का डर भूल गये और तत्काल ही गाना-बजाना तथा खाना-पीना शुरू हो गया । माया का आवरण फिर छा गाय । लोग नमाज पढ़ते और भजन भी गाते, पर तूफान के समय उनमें जो गंभीरता धीख पड़ी वह चली गयी थी !

पर इस तूफान मे मुझे यात्रियों के साथ ओतप्रोत कर दिया था । कहा जा सकता हैं कि मुझे तूफान का डर न था अथवा कम से कम था । लभगभ ऐसे ही तूफान का अनुभव मैं पहले कर चुका था । मुझे न समुद्र लगता था , न चक्कर आते थे । इसलिए मैं निर्भय हो कर घूम रहा था, उन्हें हिम्मत बँधा रहा था और कप्तान की भविष्यवाणियाँ उन्हें सुनाता रहता था । यह स्नेहगाँठ मेरे लिए बहुत उपयोगी सिद्द हुई ।

हमने अठारह या उन्नीस दिसम्बर को डरबन में लंगर डाला । 'नादरी' भी उसी दि पहुँचा । पर वास्तविक तूफान का अनुभव तो अभी होना बाकी था ।

 

 

 

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