मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

चौथा भाग

आत्मिक शिक्षा

 

विद्यार्थियो के शरीर और मन को शिक्षित करने की अपेक्षा आत्मा को शिक्षित करने मे मुझे बहुत परिश्रम करना पड़ा । आत्मा के विकास के लिए मैने धर्मग्रंथो पर कम आधार रखा था । मै मानता था कि विद्यार्थियो को अपने अपने धर्म के मूल तत्त्व जानने चाहिये , अपने अपने धर्मग्रंथो का साधारण ज्ञान होना चाहिये। इसलिए मैने यथाशक्ति इस बात की व्यवस्था की थी कि उन्हे यह ज्ञान मिल सके । किन्तु उसे मै बुद्धि की शिक्षा का अंग मानता हूँ । आत्मा की शिक्षा एक बिल्कुल भिन्न विभाग है । इसे मै टॉल्सटॉय आश्रम के बालको को सिखाने लगा उसके पहले ही जान चुका था । आत्मा का विकास करने का अर्थ है चरित्र का निर्माण करना , ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करना । इस ज्ञान को प्राप्त करने मे बालको को बहुत ज्यादा मदद की जरूरत होती है और इसके बिना दूसरा ज्ञान व्यर्थ है, हानिकारक भी हो सकता है , ऐसा मेरा विश्वास था ।

मैने सुना हैं कि लोगो मे यह भ्रम फैला हुआ है कि आत्मज्ञान चौथे आश्रम मे प्राप्त होता है । लेकिन जो लोग इस अमूल्य वस्तु को चौथे आश्रम तक मुलतवी रखते है, वे आत्मज्ञान प्राप्त नही करते , बल्कि बुढ़ापा और दूसरी परन्तु दयाजनक बचपन पाकर पृथ्वी पर भाररूप बनकर जीते है । इस प्रकार का सार्वत्रिक अनुभव पाया जाता है । संभव है कि सन् 1911-12 मे मै इन विचारो को इस भाषा मे न रखता , पर मुझे यह अच्छी तरह याद है कि उस समय मेरे विचार इसी प्रकार के थे ।

आत्मिक शिक्षा किस प्रकार दी जाय ? मै बालको से भजन गवाता , उन्हें नीति की पुस्तकें पढकर सुनाता , किन्तु इससे मुझे संतोष न होता था । जैसे-जैसे मै उनके संपर्क मे आता गया, मैने यह अनुभव किया कि यह ज्ञान पुस्तको द्वारा तो दिया ही नही जा सकता । शरीर की शिक्षा जिस प्रकार शरीरिक कसरत द्वारा दी जाती है और बुद्धि को बौद्धिक कसरत द्वारा , उसी प्रकार आत्मा की शिक्षा आत्मिक कसरत द्वारा ही दी जा सकती है । आत्मा की कसरत शिक्षक के आचरण द्वारा ही प्राप्त की जा सकती है । अतएव युवक हाजिर हो चाहे न हो , शिक्षक तो सावधान रहना चाहिये । लंका मे बैठा हुआ शिक्षक भी अपने आचरण द्वारा अपने शिष्यो की आत्मा को हिला सकता है । मैं स्वयं झूठ बोलूँ और अपने शिष्यो को सच्चा बनने का प्रयत्न करूँ, तो वह व्यर्थ ही होगा । डरपोक शिक्षक शिष्यो को वीरता नही सिखा सकता। व्यभिचारी शिक्षक शिष्यो को संयम किस प्रकार सिखायेगा ? मैने देखा कि मुझे अपने पास रहने वाले युवको और युवतियो के सम्मुख पदार्थपाठ-सा बन कर रहना चाहिये । इस कारण मेरे शिष्य मेरे शिक्षक बने । मै यह समझा कि मुझे अपने लिए नही , बल्कि उनके लिए अच्छा बनना और रहना चाहिये । अतएव कहा जा सकता है कि टॉल्सटॉय आश्रम का मेरा अधिकतर संयम इन युवको और युवतियों की बदौलत था ।

आश्रम मे एक युवक बहुत ऊधम मचाता था , झूठ बोलता था, किसी से दबता नही था और दूसरो के साथ लड़ता-झगड़ता था । एक दिन उसने बहुत ही ऊधम मचाया । मै घबरा उठा । मै विद्यार्थियो को कभी सजा न देता था । इस बार मुझे बहुत क्रोध हो आया । मै उसके पास पहुँचा । समझाने पर वह किसी प्रकार समझता ही न था । उसने मुझे धोखा देने का भी प्रयत्न किया । मैने अपने पास पड़ा हुआ रूल उठा कर उसकी बाँह पर दे मारा । मारते समय मै काँप रहा था । इसे उसने देख लिया होगा । मेरी ओर से ऐसा अनुभव किसी विद्यार्थी को इससे पहले नही हुआ था । विद्यार्थी रो पड़ा । उसने मुझसे माफी माँगी । उसे डंड़ा लगा और चोट पहुँची, इससे वह नही रोया । अगर वह मेरा मुकाबला करना चाहता , तो मुझ से निबट लेने की शक्ति उसमे थी । उसकी उमर कोई सतरह साल की रही होगी । उसकी शरीर सुगठित था । पर मेरे रूल मे उसे मेरे दुःख का दर्शन हो गया । इस घटना के बाद उसने फिर कभी मेरी सामना नही किया । लेकिन उसे रूल मारने का पछतावा मेरे दिल मे आज तर बना हुआ है । मुझे भय है कि मारकर मैने अपनी आत्मा का नही, बल्कि अपनी पशुता का ही दर्शन कराया था ।

बालको को मारपीट कर पढाने का मै हमेशा विरोधी रहा हूँ । मुझे ऐसी एक ही घटना याद है कि जब मैने अपने लड़को मे से एक को पीटा था । रूल से पीटने मे मैने उचित कार्य किया या नही , इसका निर्णय मै आज तक कर नही सका हूँ । इस दंड के औचित्य के विषय मे मुझे शंका है , क्योकि इसमे क्रोध भरा था और दंड देने की भावना था। यदि उसमे केवल मेरे दुःख का ही प्रदर्शन होता, तो मै उस दंड को उचित समझता । पर उसमे विद्यमान भावना मिश्र थी । इस घटना के बाद तो मै विद्यार्थियो को सुधारने की अच्छी रीति सीखा । यदि इस कला का उपयोग मैने उक्त अवसर पर किया होता, तो उसका कैसा परिणाम होतो यह मै कर नही सकता । वह युवक तो इस घटना को तुरन्त भूल गया । मै यह नही कर सकता कि उसमे बहुत सुधार हो गया , पर इस घटना ने मुझे इस बात को अधिक सोचने के लिए विवश किया कि विद्यार्थी के प्रति शिक्षक को धर्म क्या है । उसके बाद युवको द्वारा ऐसे ही दोष हुए, लेकिन मैने फिर कभी दंडनीति का उपयोग नही किया । इस प्रकार आत्मिक ज्ञान देने के प्रयत्न मे मै स्वयं आत्मा के गुण अधिक समझने लगा ।

 

 

 

 

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