मोहनदास करमचंद गाँधी की आत्मकथा

सत्य के प्रयोग

पाँचवा भाग

चरखा मिला!

 

गुजरात मे अच्छी तरह भटक चुकने के बाद गायकवाड़ के बीजापुर गाँव मे गंगाबहन को चरखा मिला । वहाँ बहुत से कुटुम्बो के पास चरखा था , जिसे उठाकर उन्होने छत पर चढा दिया था । पर यदि कोई उनका सूत खरीद ले और उन्हे कोई पूनी मुहैया कर दे , तो वे कातने को तैयार थे । गंगाबहन ने मुझे खबर भेजी । मेरे हर्ष का कोई पार न रहा । पूनी मुहैया कराने का का मुश्किल मालूम हुआ । स्व. भाई उमर सोबानी से चर्चा करने पर उन्होने अपनी मिल से पुनी की गुछियाँ भेजने का जिम्मा लिया । मैने वे गुच्छियाँ गंगाबहन के पास भेजी और सूत इतनी तेजी से कतने लगा कि मै हार गया ।

भाई उमर सोबानी की उदारता विशाल थी, फिर भी उसकी हद थी। दाम देकर पुनियाँ लेने का निश्चय करने मे मुझे संकोच हुआ । इसके सिवा , मिल की पूनियों से सूत करवाना मुझे बहुत दोष पूर्ण मालूम हुआ । अगर मिल की पूनियाँ हम लेते है, तो फिर मिल का सूत लेने मे क्या दोष है ? हमारे पूर्वजो के पास मिल की पुनियाँ कहाँ थी? वे किस तरह पूनियाँ तैयार करते होगे ?मैने गंगाबहन को लिखा कि वे पूनी बनाने वाले की खोज करे । उन्होने इसका जिम्मा लिया और एक पिंजारे को खोज निकाला । उसे 35 रुपये या इससे अधिक वेतन पर रखा गया । बालको को पूनी बनाना सिखाया गया । मैने रुई की भिक्षा माँगी । भाई यशवंतप्रसाद देसाई ने रुई की गाँठे देने का जिम्मा लिया । गंगाबहन ने काम एकदम बढा दिया । बुनकरो को लाकर बसाया और कता हुआ सूत बुनवाना शुरू किया । बीजापुर की खादी मशहूर हो गयी ।

दूसरी तरफ आश्रम मे अब चरखे का प्रवेश होने मे देर न लगी । मगनालाल गाँघी की शोधक शक्ति ने चरखे मे सुधार किये और चरखे तथा तकुए आश्रम मे बने । आश्रम की खादी पहले थान की लागत फी गज सतरह आने आयी । मैने मित्रो से मोटी और कच्चे सूत की खादी के दाम सतरह आना फी गज के हिसाब से लिये, जो उन्होने खुशी-शुशी दिये ।

मै बम्बई मे रोगशय्या पर पड़ा हुआ था , पर सबसे पूछता रहता था । मै खादीशास्त्र मे अभी निपट अनाड़ी था । मुझे हाथकते सूत की जरूरत थी । कत्तिनो की जरूरत थी । गंगाबहन जो भाव देती थी , उससे तुलना करने पर मालूम हुआ कि मै ठगा रहा हूँ । लेकिन वे बहने कम लेने को तैयार न थी । अतएव उन्हें छोड़ देना पड़ा । पर उन्होने अपना काम किया । उन्होने श्री अवन्तिकाबाई, श्री रमीबाई कामदार , श्री शंकरलाल बैकर की माताजी और वसुमतीबहन को कातना सिखा दिया और मेरे कमरे मे चरखा गूंजने लगा । यह कहने मे अतिशयोक्ति न होगी कि इस यंत्र मे मुझ बीमार को चंगा करने मे मदद की । बेशक यह एक मानसिक असर था । पर मनुष्य को स्वस्थ या अस्वस्थ करने में मन का हिस्सा कौन कम होता है? चरखे पर मैने भी हाथ आजमाया । किन्तु इससे आगे मै इस समय जा नही सका ।

बम्बई मे हाथ की पूनियाँ कैसे प्राप्त की जाय? श्री रेवाशंकर झेवरी के बंगले के पास से रोज एक घुनिया तांत बजाता हुआ निकला करता था । मैने उसे बुलाया । वह गद्दो के लिए रुई धूना करता था । उसने पूनियाँ तैयार करके देना स्वीकार किया । भाव ऊँचा माँगा , जो मैने दिया । इस तरह तैयार हुआ सूत मैने बैष्णवो के हाथ ठाकुरजी की माला के लिए दाम लेकर बेचा । भाई शिवजी ने बम्बई मे चरखा सिकाने का वर्ग शुरू किया । इन प्रयोगो मे पैसा काफी खर्च हुआ । श्रद्धालु देशभक्तो ने पैसे दिये और मैने खर्च किये । मेरे नम्र विचार मे यह खर्च व्यर्थ नही गया । उससे बहुत-कुछ सीखने को मिला । चरखे की मर्यादा का माप मिल गया ।

अब मै केवल खादीमय बनने के लिए अधीर हो उठा। मेरी धोती देशी मिल के कपड़े की थी । बीजापुर मे और आश्रम मे जो खादी बनती थी, वह बहुत मोटी और 30 इंच अर्ज की होती थी । मैने गंगाबहन को चेतावनी दी कि अगर वे एक महीने के अन्दर 45 इंच अर्जवाली खादी की धोती तैयार करके न देगी, तो मुझे मोटी खादी की घटनो तक की धोती पहनकर अपना काम चलाना पड़ेगा । गंगाबहन अकुलायी । मुद्दत कम मालूम हुई , पर वे हारी नही । उन्होने एक महीने के अन्दर मेरे लिए 50 इंच अर्ज का धोतीजोडा मुहैया कर दिया औऱ मेरा दारिद्रय मिटाया ।

इसी बीच भाई लक्ष्मीदास लाठी गाँव से एक अन्त्यज भाई राजजी और उसकी पत्नी गंगाबहन को आश्रम मे लाये और उनके द्वारा बड़े अर्ज की खादी बुनवाई । खादी प्रचार मे इस दम्पती का हिस्सा ऐसा-वैसा नही कहा जा सकता । उन्होने गुजरात मे और गुजरात के बाहर हाथ का सूत बनने की कला दूसरो को सिखायी है । निरक्षर परन्तु संस्कारशील गगाबहन जब करधा चलाती है , तब उसमे इतनी लीन हो जाती है कि इधर उधर देखने या किसी के साथ बातचीत करने की फुरसत भी अपने लिए नही रखती ।

 

 

 

 

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