Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

विश्व अर्थव्यवस्था, आवारा पूंजी और यूरोपीय समाज

विश्व अर्थव्यवस्था, आवारा पूंजी और यूरोपीय समाज

 

विश्व अर्थव्यवस्था अब भी 2007 - 08 में अमेरिका में सब -प्राइम संकट के कारण पैदा हुए वैश्विक वित्तीय संकट और मंदी के दौरन हुए भारी आर्थिक नुकसान से उबर नहीं पाया है। इससे यूरोप में विष्फोटक स्थिति हो रही है। यूरोप एक बार फिर वामपंथी एवं समाजवादी आंदोलन के मुहाने पर बैठा हुआ है। इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि अमेरिका और यूरोप के विकसित देशों में अत्यधिक उदार मौद्रिक नीति के कारण बाजार सस्ती मौद्रिक तरलता से लबालब है। अमेरिका आदि देशों में लगभग शून्य प्रतिशत की ब्याज दर पर कर्ज उपलब्ध है। इन देशों की छोटी बड़ी वित्तीय संस्थाएं इस नीति का फायदा उठाते हुए बैंकों से भारी मात्रा में कर्ज उठा कर उसे भारत जैसे अन्य उभरते हुए बाजारों में निवेश कर रही हैं। इससे उन्हें ज्यादा मुनाफा मिल रहा है। फलस्वरूप पिछले एक साल में भारत, ब्राजील, रूस, चीन और दक्षिण पूर्व ऐशियाई देशों में भारी मात्रा में एफ. आई. आई. निवेश आया है। इससे इन सभी देशों में शेयर बाजार के अलावा जिंस बाजार में भी खासा उछाल आया है। एफ. आई. आई. निवेशक शेयर बाजार में जमकर सट्टेबाजी कर रहे हैं। वे जल्दी से जल्दी और अधिक से अधिक मुनाफा बनाने आते है। जैसे ही किसी और देश के बाजार में उन्हें अधिक मुनाफा दिखेगा वे उसी देश में पैसा लगाने के लिए पहले वाले देश से पैसा निकाल लेंगे। इसी कारण इसे आवारा पूंजी कहा जाता है। इस पूंजी से वास्तविक अर्थव्यवस्था को कोई खास फायदा नहीं होता है लेकिन जोखिम जरूर बढ़ जाता है। अगर किसी भी कारण से यह अवारा पूंजी अचानक एक देश को छोड़कर दूसरे देश में जाती है तो उससे उस देश की पूरी अर्थव्यवस्था अस्थिर हो जाती है। इसी को ध्यान में रखकर ब्राजील ने इस आवारा पूंजी के अत्यधिक प्रवाह और सट्टेबाजी पर अंकुश लगाने के लिए कुछ महीने पहले दो प्रतिशत की दर से टैक्स लगा दिया था, जिसे इसी महीने बढ़ाकर चार प्रतिशत कर दिया गया। ब्राजील के उदाहरण से सीख लेते हुए थाईलैंड ने भी इसी महीने दो प्रतिशत का टैक्स लगा दिया है। इस साल एफ. आई. आई. निवेश का लगभग 40 प्रतिशत अकेले भारतीय बाजारों में आया है। भारत का शेयर बाजार अब भी न तो बहुत गहरा है और न ही व्यापक। फिर भी भारत सरकार भारत में आवारा पूंजी निवेश पर काई टैक्स नहीं लगाकर भारी जोखिम मोल ले रही है।
दूसरी ओर यूरोपीय देशों से अवारा पूंजी के पलायन के कारण यूरोपीय समाज भारी कष्ट से गुजर रहा है। यूरोपीय संघ के वित्त मंत्रियों की बैठक में यूरो जोन के 16 देशों में बजट घाटे को कम करने संबंधी नियमों पर सहमति बनी है। मित व्ययता उपायों के तौर पर आयरलैंड की सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियों में बीस प्रतिशत कटौती, करों में वृध्दि और बाल विकास में कटौती का प्रस्ताव किया है। स्पेन भी लोक सेवकों के वेतन, पेंशन, बाल विकास एवं लोककल्याण के लिए निवेश में कटौती करके अपने वित्तीय घाटे को 4 प्रतिशत तक कम कर लेने के लिए कटिबध्द है। जर्मनी 2014 तक आठ सौ करोड़ यूरो की बजट कटौतियों को लागू करने के सवाल पर पिछले जून में हड़ताल झेल चुका है। फ्रांस में भी स्थिति विस्फोटक हो रही है। पिछली हड़ताल के समय 213 स्थानों पर हुए प्रदर्शनों में लगभग पैंतीस लाख लोगों ने हिस्सा लिया। फ्रांस सरकार का दावा है कि यदि पेंशन सुधारों को लागू नहीं किया जाता है तो देश को 2030 तक 700 करोड़ यूरो का घाटा उठाना पड़ेगा।
इसी तरह पूर्वी यूरोप के देश लातविया ने बजट कटौती के नाम पर कई स्कूलों और अस्पतालों को बंद कर दिया है। ब्रिटेन द्वितीय विश्व युध्द के बाद सबसे बड़े बजट घाटा का सामना कर रहा है। ब्रिटेन का लक्ष्य 950 करोड़ यूरो की कटौती करने का है। ब्रिटेन में प्रस्तावित कटौतियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन और हड़तालों का सिलसिला शुरू हो चुका है। मार्च 2011 में एक देश व्यापी आंदोलन एवं प्रदर्शन की ब्रिटेन में तैयारी चल रही है। मितव्ययता और लोक कल्याणकारी सुविधाओं में कटौती के खिलाफ यूरोप के अधिकांश देशों में विरोध, प्रदर्शन, हड़ताल हो रहे हैं। यूनान, इटली, पुर्तगाल, मकदोनिया, रोमानिया, हंगरी, बुल्गारिया जैसे देशों की सरकारें जहां अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की कटौती एवं मितव्ययता के प्रस्तावों पर अमल कर रही हैं और इन देशों की जनता लगातार उद्वेलित और आंदोलित होकर दफ्तरों करखानों, विद्यालयों और विश्वविद्यालयाँ से बाहर आकर विरोध, प्रदर्शन एवं हड़ताल कर रही हैं।

    जहां यूरोपीय यूनियन और आई. एम. एफ. द्वारा निर्देशित नीतियों के अनुसार राजकोषीय घाटा कम करने के उपाय के रूप में मध्यवर्गीय एवं गरीब वर्गों के हितों को नुकसान पहुंचाया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ सरकार बड़े निगमों को मंदी से बचाने के लिए भारी भरकम बेल आउट पैकेज दे रही है। यह सारा आर्थिक व्यायाम बाजार की मुश्किलों को दूर करने के लिए है ताकि बाजार निर्बाध एवं बेझिझक अर्थव्यवस्थाओं को नियंत्रित कर सके। यह वित्तीय पूंजीवाद के दूरगामी लक्ष्यों के अनुरूप ही है। इसके माध्यम से वह विश्व पूंजी नियंत्रण की एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करने की ओर अग्रसर है, जिसका नियंत्रण पूरी तरह से निजी हाथों में होगा और यह नियंत्रण सभी देशों की राजनीतिक व्यवस्था को काबू करते हुए विश्व अर्थव्यवस्था को अपने नियंत्रण में कर लेगा। यह व्यवस्था बड़े एकाधिकारियों और भूस्वामियों की तर्ज पर पूर्ण प्रभुत्व के साथ बड़े केंद्रीय बैंकों द्वारा संचालित होगी। इसके खतरों से अगर बचना है तो दो विकल्प हैं- पहला श्रीकृष्ण का सनातन धर्म, भगवान बुद्ध की विश्लेषण पद्धति एवं महात्मा गांधी की रणनीतिके आधार पर एक नयी सभ्यता का निर्माण एवं दूसरा पैगंबर मुहम्मद, कार्ल मार्क्स एवं महात्मा गांधी के अनुयायियों के महागठजोड़ के आधार पर आधुनिक सभ्यता का नियमन। पहला विकल्प ज्यादा मंगलकारी एवं ज्यादा टिकाऊ साबित होगी जबकि दूसरा विकल्प समकालीन परिस्थिति में ज्यादा संभावनापूर्ण साबित होगी। किसी भी परिस्थिति में समकालीन विश्वव्यवस्था को न्यायसंगत एवं मंगलकारी नहीं माना जा सकता। इसे प्रकृति एवं संस्कृति के पारंपरिक मूल्यों के अनुकूल भी नहीं माना जा सकता।

 

पैगम्बर मुहम्मद, कार्ल मार्क्स एवं महात्मा गांधी

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