Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

वंचित समूहों के दृष्टिकोण का भारतीय समाज विज्ञान में विकास

वंचित समूहों के दृष्टिकोण का भारतीय समाज विज्ञान में विकास

 

मजदूर, शिल्पी, बेरोजगार, निम्न जाति के लोग, जनजातीयों के लोग या स्त्रियाँ सभी आ जाते हैं। आम आदमी के विचारों के अंतर्गत केवल आर्थिक या राजनैतिक विचारों का अध्ययन नहीं किया जाता बल्कि वह हर विचार आ जाता है जो शासक वर्ग द्वारा उपयोग में लाये गए शास्त्रों की परिधि या सरोकार से बाहर माना जाता है और जिसको सामान्यत: पारंपरिक इतिहासकार नजरअंदाज करते है। रणजीत गुहा द्वारा सबल्टर्न स्टडीज के पहले भाग का प्रकाशन ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटीज प्रेस से 1982 में हुआ था।

            1980 के दशक में दलितों, जनजातीयों, स्त्रियों, किसानों, पिछड़ी जातियों, पर्यावरणवादियों के साथ-साथ लोक संस्कृति, लोक कला, लोक साहित्य, लोक नाटय, वैकल्पिक विकास, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति, वैकल्पिक शिक्षा एवं विकेन्द्रित राजनीति के समर्थन में लगातार आंदोलन चल रहे थे। 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था को उदारीकरण एवं वैश्वीकरण की विश्वव्यापी राजनीति-अर्थशास्त्र से जोड़ा गया। तब तक सोवियत संध का साम्यवादी महासंघ के रूप में बिखराव हो चुका था। पूर्वी यूरोप के अधिकांश देश पूंजीवादी विश्वव्यवस्था के अंग बनने की प्रक्रिया में प्रसव-पीड़ा में गुजर रहे थे। साम्यवादी चीन बाजारोन्मुखी पूंजीवादी औद्योगिकीकरण के रास्ते औद्योगिक विकास का नया मॉडल बन चुका था। 1967 के आम चुनाव में पहली बार उत्तर भारत के अधिकांश राज्यों में कांग्रेस पार्टी विधान-सभा का चुनाव हार चुकी थी। 1964 में नेहरू की मृत्यु के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने थे। जवाहर लाल नेहरू महात्मा गांधी के उत्तराञ्किारी होने के बावजुद पश्चिमी औद्योगिक आधुनिकता में समाजवादी रूझान के राजनेता थे। चाहे अनचाहे उनके राज में गांवों की पारंपरिक व्यवस्था और कृषि के व्यापक हितों की अनदेखी की गई और नगरीकरण तथा औद्योगीकरण की प्रक्रिया को पंचवर्षीय योजनाओं के तहत तेज किया गया। गांवों से व्यक्तियों एवं कच्चे माल का शहरों की ओर लाने की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति पैदा की गई थी। इस से उस प्रक्रिया को बल मिला जिसे एम. एन. श्रीनिवास पश्चिमीकरण कहते हैं। लेकिन नेहरू युग में पंचायती राज और भी प्रजातांत्रिक विकेन्द्रीकरण के साथ-साथ अनुसूचित जातियों और जनजातीयों के लिए शिक्षण संस्थानों में पढ़ने के लिए, नौकरियों में तथा विधानसभा एवं लोकसभा में आरक्षण की व्यवस्था भी की गई थी। इससे अनुसूचित जातियों, जनजातीयों के बीच एक प्रकार का मध्यवर्ग या अभिजन समूह विकसित हुआ। पंचायती राज और पंचवर्षीय योजनाओं का मुख्य लाभ स्थानीय स्तर पर तथा प्रादेशिक स्तर पर प्रभु जातियों को मिला। इन प्रभु जातियों में कुछ दबंग पिछड़ी जातियों ने राजनीतिक रूप से अपना राजनीतिक संगठन या गठबंधन बनाना शुरू किया। ऊँची जातियों के अधिकांश संपन्न लोग नेहरू युग में शहरी नौकरी या व्यवसाय करने के लोभ में गांवों को छोड़कर शहरों एवं कस्बों में बसने लगे। इसके परिणामस्वरूप, दबंग पिछड़ी जातियों को संस्कृतिकरण का स्थानीय या क्षेत्रीय मॉडल बनाने का भी मौका मिला। 1967 के चुनाव में पिछड़े वर्ग की दबंग जातियों ने उत्तर भारत में कांग्रेस को हराने में मुख्य भूमिका निभाई। 1965 के भारत पाक युध्द के समय भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने जय जवान, जय किसान का नारा दिया था। शास्त्रीजी केवल 1964 से 1966 के बीच प्रधानमंत्री रहे। उनकी आकस्मिक मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी। प्रधानमंत्री बनने के तुरंत बाद 1967 का चुनाव आ गया। 1967 के चुनाव के बाद 1969 में कांग्रेस पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर टूट गई। इंदिरा गांधी अपने पिता की तरह साम्यवादी रूझान की व्यक्ति तो नहीं थीं लेकिन कांग्रेस पार्टी के टूटने और उत्तर भारत में चुनाव हारने के बाद उन्होंने भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ राजनैतिक गठजोड़ किया। इस गठजोड़ के बाद एक तो भारत और सोवियत संघ के रिश्ते में गुणात्मक सुधार आया दूसरे कम्युनिस्ट विचारधारा के  व्यक्तियों को सरकारी अनुदान एवं संरक्षण मिलने लगा। 1969 में ही जवाहरलाल नेहरू के नाम पर पहला साम्यवादी रूझानवाला विश्वविद्यालय बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। पूरे देश से कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े विद्वानों को खोज-खोज कर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में सीधे प्रो. के पद पर आमंत्रित करके मनचाहा विभाग बनाने की स्वतंत्रता दी गई। इस विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों के नामाकंन में भी विशेष रणनीति अपनायी गई। जिससे पूरे देश के हर क्षेत्र एवं हर समुदाय के विद्याथियों को प्रतिनिञ्त्वि दिया जा सके। जे. एन. यू. के शिक्षकों एवं इसमें प्रशिक्षित विद्यार्थियों ने वंचित समूहों के दृष्टिकोण को समाजविज्ञान के भीतर लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1971 में बंगलादेश के पक्ष में इंदिरा गांधी ने भारत-पाक युध्द जीता। फिर वे तानाशाह हो गईं। 1974 तक इंदिरा गांधी का शासन काल भ्रष्टाचार, तानाशाही और लाइसेंस-परमिट राज की लाल फीताशाही के कारण पूरे देश में बदनाम हो गईं। गुजरात और बिहार में उनके शासन के खिलाफ आंदोलन शुरू हुआ जिसे नेतृत्व के लिए जयप्रकाश नारायन सामने आए। उन्होंने सम्पूर्ण क्रांति का नारा दिया। इसी बीच इलाहाबाद हाईकोर्ट ने रायबरेली से इंदिरा गांधी के चुनावी जीत को अवैध धोषित कर दिया। गद्दी छोड़ने की बजाय इंदिरा गांधी ने संजय गांधी और अपने कम्युनिस्ट सलाहकारों की राय को मानते हुए जून 1975 से मई 1977 तक इमरजेंसी लगा दिया। राष्ट्रीय स्तर पर इस इमरजेंसी का मूक विरोध 1977 के चुनाव में सामने आया। 1947 से 1977 तक देश की राजनीति पर कांग्रेस पार्टी का एकछत्र राज रहा। कांग्रेस पार्टी पर जवाहरलाल नेहरू के परिवार का शासन रहा। वे काश्मीरी मूल के इलाहाबादी ब्राह्मण थे। उनका परिवार काश्मीरी शैव आगम से प्रभावित था। लेकिन खुद जवाहरलाल नेहरू पश्चिमी समाजवादी आधुनिकता से प्रभावित थे। महात्मा गांधी की मृत्यु (30 जनवरी 1948) के बाद से 1977 तक नेहरूवादी दृष्टिकोण इस देश की शासकीय विचारधारा बनी रही। नेहरूवादी समाजवाद को चुनौती देने की तीन महत्त्वपूर्ण कोशिश हुई। श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कांग्रेस पार्टी से अलग होकर हिन्दू महासभा, आर्य समाज और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के अनुयायियों को भारतीय जनसंघ नामक नये राजनीतिक दल में संगठित करने का प्रयास किया। राममनोहर लोहिया और आचार्य नरेन्द्र देव कांग्रेस पार्टी से अलग होकर समाजवादी आंदोलन के लिए राजनैतिक ध्रुवीकरण में लगे रहे। 1967 के चुनाव में गैर-कांग्रेसवाद के बैनर तले भारतीय जनसंघ और समाजवादी पार्टियों ने मिलकर एक गठबंधन बनाया जिसमें प्रादेशिक स्तर पर इंदिरा विरोधी कांग्रेसी नेताओं को जोड़ा गया। 1967 में उत्तर भारत में इंदिरा गांधी के नेतृत्व को राजनैतिक चुनौती तो दी गई लेकिन वैचारिक चुनौती नहीं दी जा सकी। 1977 तक सार्वजनिक जीवन में नेहरूवादी समाजवाद और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के बुध्दिजीवियों का वर्चस्व इतना ज्यादा था कि जल्द ही इंदिरा विरोधी गठबंधन को अवसरवादी गठबंधन धोषित करके इससे जुड़े नेताओं को सत्ता लोलुप गिरोह कह कर बदनाम कर दिया गया था। फलस्वरूप, नेहरूवादी समाजवाद के विकल्प में केवल तीसरा प्रयास ही धीरे-धीरे फलता-फूलता रहा। इस विचारधारा के प्र्रवत्तक बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर थे।

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