Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

सत्ता का भारतीय खेल

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सत्ता का भारतीय खेल

 

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जवाहरलाल नेहरू 15 अगस्त 1947 से 27 मई 1964 तक भारत के प्रधान मंत्री थे। गुलजारी लाल नन्दा 27 मई 1964 से 9 जून 1964 तक भारत के कार्यवाहक प्रधान मंत्री थे। 9 जून 1964 से 11 जनवरी 1966 तक लालबहादुर शास्त्री भारत के प्रधान मंत्री थे। 11 जनवरी 1966 से 24 जनवरी 1966 तक गुलजारी लाल नन्दा एक बार फिर कार्यवाहक प्रधान मंत्री बने। 24 जनवरी 1966 से 24 मार्च 1977 तक इंदिरा गांधी इस देश की प्रधान मंत्री थीं। 24 मार्च 1977 से 28 जुलाई 1979 तक मोरारजी देसाई इस देश के प्रधान मंत्री थे। 28 जुलाई 1979 से 14 जनवरी 1980 तक चौधरी चरण सिंह अल्पमत सरकार के प्रधान मंत्री थे। 24 जनवरी 1980 से 31 अक्टुबर 1984 तक इंदिरा गांधी दुबारा प्रधान मंत्री बनीं। 31 अक्टुबर 1984 से 2 दिसंबर 1989 तक राजीव गांधी प्रधान मंत्री थे। 2 दिसंबर 1989 से 10 नवंबर 1990 तक विश्वनाथ प्रताप सिंह इस देश के प्रधान मंत्री थे। 10 नवंबर 1990 से 21 जून 1991 तक चन्द्र शेखर अल्पमत सरकार के प्रधान मंत्री थे। 21 जून 1991 से 16 मई 1996 तक पी. वी. नरसिंम्हा राव इस देश के प्रधान मंत्री थे जिन्होंने इस देश में उदारीकरण की आर्थिक नीति लागू कर नेहरूवादी नीतियों को बदल दिया। 16 मई 1996 से 1जून 1996 तक अटल बिहारी वाजपेयी इस देश के अल्पमत सरकार के प्रधान मंत्री थे। 1 जून 1996 से 21 अप्रैल 1997 तक एच. डी. देवगौड़ा इस देश के प्रधान मंत्री थे। 21 अप्रैल 1997 से 19 मार्च 1998 तक इंदर कुमार गुजराल इस देश के प्रधान मंत्री थे। 19 मार्च 1998 से 22 मई 2004 तक अटल बिहारी वाजपेयी इस देश के प्रधान मंत्री बने। 22 मई 2004 से डा. मनमोहन सिंह इस देश के प्रधान मंत्री हैं।
पहली पंचवर्षीय योजना (1952 से 1957) के. एन. राज ने लिखी थी। वे केरल मॉडेल के विकास के मंत्र दाता भी थे। पहली योजना कृषि केन्द्रित थी। दूसरी पंचवर्षीय योजना (1957 से 1962) महानलोबीस ने लिखी थी। दूसरी योजना उद्योग केन्द्रित थी। इसके बाद की सभी योजनायें उद्योग केन्द्रित रही हैं।1991 से उदारीकरण की नीति के कारण उद्योग एवं बाजार का बोल बाला है।
भारतीय अर्थव्यवस्था मूलत: कृषि केन्द्रित है। लेकिन अमेरिकी मॉडेल के प्रभाव में कृषि की लगातार 1957 से उपेक्षा हो रही है। इससे कृषि केन्द्रित संस्कृति और किसान दोनों सांसत में हैं। देश के 33 जिलों में नक्सलवाद की समस्या बेहद गंभीर है। अन्य 80 जिलों में यह सिर उठा रही है। सवाल है कि नक्सलियों को साधन कहां से आ रहे हैं। इसका फायदा पड़ोसी दुश्मन देशों को मिल रहा है। अगर यह असंतोष अपनी जमीन तक सीमित रहे तो इनसे बातचीत होनी चाहिए। जनता सचेत हो रही है। समाज में सजगता आ रही है, लेकिन दूसरी तरफ समाज के ज्यादातर लोग पीड़ित एवं परेशान हैं। पूंजी और सत्ता आज काफी ताकतवर हो गई है। स्त्री और दलित विमर्श बढ़ रहा है। ये हासिए की आवाजें है। इन विषयों पर लिखने वाले को अनुभव और विषय के स्तर पर प्रभावित करना चाहिए।
भक्ति आंदोलन समाज में पहले आया, साहित्य में बाद में, दरबारी संस्कृति समाज में पहले आई, रीति साहित्य बाद में, नवजागरण भी समाज में पहले आया और साहित्य में बाद में। साहित्य पहले एक वैकल्पिक सुझाव देता था और एक वैकल्पिक व्यवस्था सुझाता था। स्वप्न देखना साहित्यकार का धर्म है। आज का नाटककार आज नाटक से बहुत दूर है। नाटक की परिभाषा से, नाटक के व्याकरण से दूर है। समय के साथ व्याकरण भी बदलेगा। हिंदुस्तान की खूबसूरती और विभिन्नता ही इसकी ताकत है। एक धागा है जो सबको बांधे रखता है। हजारों सालों से इस धागे ने हमारी संस्कृति को बांधा हुआ है। जिसकी एक झलक हमें नाटय उत्सवों में भी दिखाई देती है। हिंदुस्तान में साहित्य 19 वीं सदी के उत्तरार्ध्द से पहले कभी व्यक्तिगत संपत्ति नहीं रहा। कॉपी राइट एक्ट 1849 ईस्वी में आया। इससे पहले मूल लेखक और रचना की मौलिकता पर खास जोर देने की खासियत नहीं रही। 1991 के बाद से भारतीय राजनीति आगे नहीं बढ़ रही है। उसमें न कोई नई बहस पैदा हो रही है, न कहीं आत्म - परिष्कार की चेष्टा है। एक ठहरा हुआ सा गुमसुम माहौल है। ऐसा माहौल कांग्रेस के पनपने के लिए बहुत मुफीद होता है। इसलिए अजब नहीं कि बहुत से लोगों को इस समय कांग्रेस ही सबसे बेहतर विकल्प प्रतीत हो रहा हो।
भाजपा के पुनर्जीवन की संभावना खारिज होती जा रही है। यह वर्तमान दक्षिणपंथ की विफलता है। भारत का दक्षिणपंथ अब बुरी तरह थक चुका है। इसलिए भाजपा का नया नेतृत्व भी उसे पुनर्जीवित नहीं कर पा रहा है। देश प्रेम की उसकी घोषणाएं खोखली नजर आ रही हैं। भाजपा जब भी कोई मुद्दा उठाती है तो वह उसे अंत तक नहीं ले जाती। कई बार बीच में ही छोड़ देती है और कई बार अवसरवाद के चलते उसके साथ समझौता कर लेती है। भाजपा विपक्षी दल नहीं है, क्योंकि वह कांग्रेस की नीतियों का पूरा विकल्प पेश नहीं करती। 1991 के बाद आर्थिक मुद्दे पर भाजपा - कांग्रेस साथ - साथ हैं केवल धर्म और सांस्कृतिक पहचान के मुद्दे पर दोनों में कुछ मतभेद है। अत: वह धीरे - धीरे समाप्त हो रही है। जब वह पूरी तरह अप्रासंगिक हो जाएगी, तभी देश का मध्यवर्ग कांग्रेस के बेहतर विकल्प के बारे में सोचना शुरु कर सकेगा।
यह विकल्प वामपंथी भी नहीं हो सकता। जिस सी. पी. एम. को असली वामपंथी समझा जा रहा था, वह अब अपने ढलान पर आ गया है। पश्चिम बंगाल में उसकी लोकप्रियता लगभग समाप्त हो चुकी है और राज्य की जनता वैकल्पिक सरकार गठित करने के लिए तैयार है। केरल में भी वामपंथ की हालत अच्छी नहीं है। वह अपने ही अंतर्विरोध से त्रस्त हो रही है और किसी निश्चित दिशा में जा नहीं पा रही है। इस तरह, अगर भारत का दक्षिणपंथ अपना नवीकरण नहीं कर पा रहा है, तो वामपंथ तो और भी जीवनहीन नजर आ रहा है। वामपंथ के सामने इस समय एक तरह से अस्तित्व का संकट है। उसे अप्रासंगिक मानने की प्रवृत्ति तेज हो रही है। उसके संगठन में घुन लग चुका है। 10 लाख कार्यकर्त्ताओं ने अपनी सदस्यता का केवल बंगाल में पुनर्नवीनीकरण नहीं कराया है। सी. पी. आई. और भी बेजान हो चुकी है।
कांग्रेस सिर्फ मध्यवर्ग का ही प्रतिनिधित्व करती है। भारत की तीन चौथाई जनता के लिए वर्तमान व्यवस्था में कुछ भी नहीं है। कोई भी दल राष्ट्रीय स्तर या विचारधारा के स्तर पर तीन चौथाई जनता को प्रतिनिधित्व नहीं करती। फलस्वरूप इनकी हितचिंता के नाम पर स्थानीय एवं क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ है। परन्तु इन दलों के पास न तो विचारधारा है, न संगठन कौशल। ये केवल पहचान की राजनीति करने वाली परिवार केन्द्रित या व्यक्ति केन्द्रित तदर्थवादी पार्टियां है। ये सत्ता लोलुप राजनीति से नियंत्रित व्यवस्था का अंग बन चुकी हैं या बनना चाहती हैं। फलस्वरूप महंगाई, भ्रष्टाचार और अक्षमता के बावजूद कांग्रेस नियंत्रित यू. पी. ए. की सरकार मई 2004 से लगातार चल रही है।
समाज के स्तर पर मध्यवर्ग का एक धड़ा यह मानता है कि भारत और पाकिस्तान की जनता एक ही जैसे लोग हैं। दोनों का एक इतिहास और संस्कृति है। ऐसे लोग पाकिस्तान की ठोस स्थितियों की अनदेखी करते हैं। पाकिस्तानी समाज एक इकाई नहीं है। वहां के सत्ता ढ़ांचे में पिछले दशकों के दौरान उभरे अंतर्विरोध और समाज में मौजूद विभिन्न रूझानों को समझने को लेकर पूरी तरह लापरवाही बनी रहती है। इस लापरवाह और रूमानी दृष्टिकोंण से प्रभावित राजनीति ने हमारी विदेश नीति को तो प्रभावित किया ही है इसने देसी मुसलमानों को एक वोट बैंक मानकर इनका समर्थन पाने के लिए अनैतिक राजनीतिक अभियानों को भी जन्म दिया है।
इस देश के मुसलमानों को पाकिस्तान एवं बांगलादेश से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए। अपने उद्गम में देश का बंटवारा चाहे जिताना गलत हो आज अखंड भारत का स्वप्न देखना एक गैरजिम्मेदाराना राजनीति का हिस्सा है। पाकिस्तान आज आतंकवाद का केन्द्र है और भारत विरोध उसकी सरकार, सेना और आई. एस. आई. की आस्था का विषय है। देश को बांटनें की राजनीति और उदारीकरण की आर्थिक नीति 1991 से इस देश में अनवरत चल रहा है। हमाम में सभी राजनीतिक दल नंगे हैं। यही कारण है कि भारतीय राजनीति में एक ठहरा हुआ गुम - सुम माहौल है। इस माहौल की यथास्थिति को तोड़ने का वैचारिक माद्दा केवल गांधीवाद में है। इसे समकालीन परिस्थिति में एक नये जोश के साथ प्रस्तुत करने की जरूरत है।
गांधीवाद मूलत: सर्वोदय की विचारधारा है। हिन्द स्वराज इसका घोषणा पत्र या मेनिफेस्टो है। यह इतिहास में पीछे लौटने की विचारधारा नहीं है। यह भविष्य में नयी सभ्यता  के पुनरोदय के लिए वर्तमान को संवारने की विचारधारा है। इसकी रचना महात्मा गांधी ने 1909 में की थी। तब से भारत का समाज काफी बदला है। इस बदली हुई परिस्थिति को वर्तमान मानकर सर्वोदय की विचारधारा के द्वारा भविष्य में एक नयी सभ्यतामूलक समाज की रचना करने में हिन्द स्वराज से प्रेरणा मिल सकती है। इसके लिए विकेन्द्रित राजनीति और गठबंधन की रणनीति ज्यादा स्वाभाविक अभियान है।

देश की साठ फीसदी से ज्यादा आबादी कृषि पर आश्रित है। बीते एक दशक में एक लाख छियासी हजार से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की। 1991 से 2000 के दौरान 80 लाख लोगों ने खेती किसानी से तौबा कर ली। आज भारत का अधिकांश किसान खेती के जरिये अपनी आजीविका नहीं जुटा पा रहा है। रोजाना लाखों की संख्या में लोग अपना घर बार छोड़कर महानगरों में पैसा कमाने आते हैं। महानगरों में इन लोगों के लिए दिहाड़ी मजदूरी भी रोजाना नहीं मिलती। हमारी बढ़ती हुई जीडीपी दर में किसानों की भागीदारी कम हो रही है। चार - पांच दशक पहले तक देश में खेती परंपरागत तौर पर होती थी। किसान बीज और खाद खुद तैयार करते थे। इससे उनकी लागत कम होती थी।

 

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