Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

एकादशी व्रत, तीर्थयात्रा तथा देसी खेती

एकादशी व्रत, तीर्थयात्रा तथा देसी खेती

पेज 1 पेज 2 पेज 3

पेज 1

पर्व एवं पर्वोत्सव

पर्व प्रवाही काल का साक्षात्कार है। ऋतु को बदलते देखना, उसकी रंगत पहचानना, उस रंगत का असर अपने भीतर अनुभव करना, खुले आकाश के नीचे समय की गति को अयान्त्रिक और आनुभाविक पैमाने से नापना हिन्दू जीवन के अन्यास में विहित है।

पूरा वर्ष चक्र जीवन चक्र है। संवरसर का अर्थ है वत्सल, वर्ष का अर्थ है बरसने वाला, वर्ष-पर-वर्ष मंगल की पूर्ति है, वृष्टि है। पर्व का अर्थ होता है गांठ या पोर। पर्व वृध्दि का परिमापक है, साथ ही वह सन्धि है जो एक अंश और दूसरे अंश के बीच में दोनों को जोड़ने के लिए स्थित है। पर्व का व्युत्पत्तिजन्य अर्थ भरने वाला है। हिन्दू धर्म में काल की अखण्ड धारणा है। लोक में अखण्ड काल के खण्डों को पर्व की गांठ से बांधा जाता है। हिन्दू लोग अपने प्रत्येक संकल्प में निरवधि काल और सावधि काल दोनों का स्मरण करता है। इसलिए पर्व का एक निश्चित समय है और साथ ही उसकी पुनरावृत्ति भी। बांस और गन्ने के पर्व भी ऐसे ही हैं।

हिन्दू पर्व प्राय: उत्सव है। उत्सव 'सवन' से उत्पन्न शब्द है। सोम या रस निकालना ही सवन है। वह रस जब ऊपर छलक आये तो उत्सवन या उत्सव है। हिन्दू पर्व में रस का आपूरण और उच्छलन दोनों होते हैं। जैसे कार्तिक की पूर्णिमा के चन्द्रमा में रस भर जाता है और उसमें बंधा नहीं रह सकता अत: कार्तिक पूर्णिमा एक महत्वपूर्ण पर्व है।

कई पर्व व्रत के पर्व हैं। व्रत का तात्पर्य यही है कि शरीर और मन को दूसरे भोगों से विरत करो, स्वयं को भोग्य बनाओ और तब अमृत के भोक्ता बनो, अमृत से उस रिक्त स्थान को भरो।

अमावस्या और पूर्णिमा की तरह शुक्ल पक्ष की एकादशी का भी अपना महत्व है। अमावस्या में चन्द्रमा सूर्य की छाया से पूर्णत: निगीर्ण हो जाता है। पूण्यजनक उपवास या व्रत के द्वारा सभी प्रकार के दूषित विचारों को नियंत्रित करने का प्रयास किया जाता है।

 

एकादशी व्रत

शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को चन्द्रमा की ग्यारह कलाओं का प्रभाव जीवों पर पड़ता है। फलत: शरीर की अस्वस्था और मन की चंचलता स्वाभाविक रूप से बढ़ जाती है। इसी कारण उपवास द्वारा शरीर को संभालना और इष्टपूजन द्वारा मन को नियंत्रण में रखना एकादशी व्रत विधान का मुख्य रहस्य है।

मुख्यत: अगहन मास की एकादशी से व्रत आरंभ होता है, लेकिन देवशयनी एकादशी आषाद शुक्ल से वगर्तिक पर्यंत की एकादशी देव प्रबोधगी तक अर्थात चातुर्मास आरंभ एकादशी की संज्ञा से विभूषित की गई है। इस दिन से हरि शयन करते हैं। सतत कर्म में रत किसान को चार मास तक विश्राम अवकाश का लाभ ज्ञान प्राप्ति व आध्यात्म बल की प्राप्ति के लिए दिया गया है। वर्षा ऋतु में कृषकों के पास अधिक काम भी नहीं होता है तथा वर्षा एवं बाढ़ के कारण आवा गमन भी अवसध्द को प्रेरित करने की व्यवस्था की गई।

प्रत्येक देवालय में धर्मचर्चा की जाती है। कृषक को विष्णु के समकक्ष सम्मान प्रदान किया गया है। विष्णु की तरह किसान भी पालक है। चौमासा के दिनों में परिश्रम न करने के कारण स्वास्थ्य बना रहे व शारीरिक क्रियायें संतुलित रहें यह व्यवस्था उपवास के द्वारा की जाती है।

 

  डा० अमित कुमार शर्मा के अन्य लेख अगला पेज

 

 

top