Dr Amit Kumar Sharma

लेखक -डा० अमित कुमार शर्मा
समाजशास्त्र विभाग, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली - 110067

भारत में परिवार

भारत में परिवार

 

परिवार

   मानव समाज में परिवार एक बुनियादी तथा सार्वभौमिक इकाई है। यह सामाजिक जीवन की निरंतरता, एकता एवं विकास के लिए आवश्यक प्रकार्य करता है। अधिकांश पारंपरिक समाजों में परिवार सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक, आर्थिक एवं राजनैतिक गतिविधियों एवं संगठनों की इकाई रही है। आधुनिक औद्योगिक समाज में परिवार प्राथमिक रूप से संतानोंत्पत्ति, सामाजीकरण एवं भावनात्मक संतोष की व्यवस्था से संबंधित प्रकार्य करता है।  

     समाजशास्त्री दो अर्थों में परिवार की चर्चा करते हैं - (क) एक खास प्रकार के वस्तुगत तथ्य (सामाजिक यथार्थ) के रूप में तथा (ख) एक विश्लेषणात्मक अवधारणा के रूप में। वस्तुगत तथ्य के रूप में अलग-अलग समुदायों तथा अलग-अलग क्षेत्रों में परिवार की संरचना बदलती रहती है। विश्लेषणात्मक अवधारणा के रूप में परिवार एक सार्वभौमिक संस्था है। यह माता-पिता एवं उनके बच्चों के समूह का प्रतीक है। यदि माता-पिता अपने अव्यस्क (आर्थिक एवं भावनात्मक रूप से परतंत्रा, सामान्यत: अविवाहित) बच्चों के साथ रहते हैं तो इसे नाभिकीय या प्राथमिक परिवार कहते हैं। यदि माता-पिता अपने व्यस्क बच्चों और उनके जीवन-साथियों के साथ रहते हैं तो उसे  संयुक्त परिवार कहते हैं। एक विश्लेषणात्मक अवधारणा के रूप में परिवार प्राथमिक रूप से सभी मानव समुदायों में वैध यौन संबंध तथा स्वीकृत तरीके से संतनोत्पत्ति से संबंधित होता है। आधुनिक औद्योगिक तथा नगरीय समाजों में परिवार नातेदारी-समूह के निर्माण का प्रमुख सिध्दांत तय करता है परन्तु पारंपरिक समाजों में परिवार नातेदारी संगठन के सिध्दांतों एवं रक्त तथा पुत्रत्व (फिलिएशन) के सिध्दांतों द्वारा अनुशासित होता है।  

     वैवाहिक संबंध को केन्द्र में रखकर विकसित समूह में दंपत्ति और उनके ऊपर निर्भर बच्चों की सदस्यता होती है। इसे नाभिकीय या दंपत्ति परिवार कहा जाता है। इस प्राथमिक परिवार के संगठन का आधार दाम्पत्य संबंध होता है। जबकि संयुक्त परिवार के संगठन का आधार प्राथमिक रूप से परिवार में संबंधों के आपसी विश्वास पर निर्भर करता  है।

    समाजशास्त्री पितृवंशीय एवं मातृवंशीय परिवारों की भी चर्चा करते हैं। एक पितृवंशीय परिवार पिता और उसके बच्चों से मिलकर बनता है तथा बच्चे पिता के नाम से जाने जाते हैं। विवाह के बाद बेटी अपने पति के साथ रहने जाती है तथा बेटे की पत्नी सास-ससुर और पति के साथ रहने आती है। पारिवारिक संपत्ति का हस्तांतरण पिता से पुत्रों के हाथ में होता है। दूसरी और, मातृवंशीय परिवार की संरचना 'माँ' और उसके बच्चों के मिलने से होती है और बच्चे अपनी मां के नाम से जाने जाते हैं। विवाह के बाद पति या तो अपनी पत्नी और उसके परिवार के साथ रहने जाता है या कुछ समाजों में अपनी बहन के साथ रहता है। पारिवारिक संपत्ति का हस्तांतरण् मां से बेटी के हाथ में होता है पर सामान्यत: यह मामा की देख-रेख (प्रंबंध) में होता है। प्रबंधन का अधिकार मामा से भांजे को हस्तांतरित होता है। पितृवंशीय परिवार नाभिकीय या संयुक्त दोनों में से कोई भी हो सकता है, परन्तु मातृवंशीय परिवार अधिकांशत: संयुक्त होता है।

 

भारत में परिवार

      आई.पी. देसाई के अनुसार नाभिकीय परिवार के रूप में परिवार की अवधारणा अब भी भारतीय अवधारणा नहीं है। एक आम भारतीय के लिए परिवार का मतलब वही है जो अंग्रजी भाषा में संयुक्त परिवार का होता है। इसी तरह, ए.एम शाह जैसे समाजशास्त्रियों ने एक सांस्कृतिक मूल्य के रूप में संयुक्त परिवार एवं एक निवास स्थान या घराना के रूप में संयुक्त परिवार की अवधारणा में अंतर स्पष्ट किया है। पारंपरिक भारत में नाभिकीय घरों का अस्तित्व तो रहा है परंतु नाभिकीय परिवार कभी भी एक सांस्कृतिक मूल्य नहीं रहा। अधिकांश भारतीयों के लिए संयुक्त परिवार ही पारिवारिक जीवन का आदर्श प्रतिमान रहा है।

       भारत के विभिन्न क्षेत्रों में समकालीन समाजशास्त्रियों ने यह पाया है कि नाभिकीय परिवार या घर संयुक्त परिवार के चक्रिय विकास की एक अवस्था भर है। यह सब पुरानी पीढ़ी की मृत्यु एवं नई पीढ़ी के जन्म की स्वभाविक (प्राकृतिक) प्रक्रिया से जुड़ा हुआ है। यह चक्र करीब-करीब 30 वर्षों में पूरा हो जाता है   एवं उसके बाद एक नया चक्र शुरु होता है।

      इरावती कर्वे ने भारत में संयुक्त परिवार की परिभाषा देते हुए कहा है कि संयुक्त परिवार लोगों का ऐसा समूह है जो एक छत के नीचे रहते है, एक रसोई का बना हुआ खाना खाते हैं, एक तिजोरी में संपत्ति रखते हैं, पारिवारिक पूजा में सामूहिक रूप से भाग लेते हैं तथा एक-दूसरे से एक विशेष प्रकार के नातेदारी संबंध से जुड़े होते हैं।

   दूसरी ओर, आई.पी देसाई का कहना है कि संयुक्त परिवार के लिए संयुक्त निवास स्थान या संयुक्त रसोई का होना उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना की उनके अत: पारिवारिक संबंध। देसाई ने भारत में पारिवारिक जीवन के पांच प्रकारों की चर्चा की है :-

(क)  नाभिकीय परिवार - सबसे छोटा परिवार जिसमें पति, पत्नी एवं उनके अविवाहित बच्चे रहते हैं।

(ख)  प्रकार्यात्मक संयुक्त परिवार - जब रक्त संबंधों वाले दो परिवार अलग-अलग रहते हैं परंतु एक संयुक्त अञ्किारी र्(कत्ता) के तहत प्रकार्य करते हैं तो इसे प्रर्कायात्मक संयुक्त परिवार कहा जाता है।

(ग)  प्रकार्यात्मक एवं वास्तविक संयुक्त परिवार - जब एक प्रकार्यात्मक संयुक्त परिवार संपत्ति की दृष्टि से भी संयुक्त होता है, तो इसे प्रकार्यात्मक एवं वास्तविक संयुक्त परिवार कहा जाता है।

(घ)  सीमांत संयुक्त परिवार - जब दो पीढ़ियों के परिवारिक सदस्य प्रकार्यात्मक एवं वास्तविक रूप से साथ रहते हैं तो इसे सीमांत संयुक्त परिवार कहा जाता है।

(ङ)   पारंपरिक संयुक्त परिवार - जब तीन या अञ्कि पीढ़ियों के लोग एक निवास स्थान में रहते है, सम्मिलित रूप से संपत्ति के स्वामी होते हैं एवं पारिवारिक अनुष्ठानों में सामूहिक रूप से भाग लेते हैं तो इसे पारंपरिक संयुक्त परिवार कहते हैं।  

भारत वर्ष में संयुक्त और नाभिकीय घराना तथा संयुक्त  परिवार  के सांस्कृतिक प्रतिमान साथ-साथ स्थित रहें हैं, अब   परिवार की संरचना तथा संयुक्तता की भावना की मात्रा में परिवर्तन आ रहा है।

 

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