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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

बालकाण्ड

बालकाण्ड पेज 78

निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही।।
चाप स्त्रुवा सर आहुति जानू। कोप मोर अति घोर कृसानु।।
समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई।।
मै एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे।।
मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें।।
भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा।।
राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी।।
छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं कहि हेतु करौं अभिमाना।।

दो0-जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।
तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ।।283।।

देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना।।
जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ।।
छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना।।
कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी।।
बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई।।
सुनु मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधर मति के।।
राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू।।
देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ।।

दो0-जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।
जोरि पानि बोले बचन ह्दयँ न प्रेमु अमात।।284।।


जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानु।।
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी।।
बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर।।
सेवक सुखद सुभग सब अंगा। जय सरीर छबि कोटि अनंगा।।
करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा।।
अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमामंदिर दोउ भ्राता।।
कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू।।
अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने।।

दो0-देवन्ह दीन्हीं दुंदुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल।
हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल।।285।।


अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे।।
जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनी।।
सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई।।
गत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी।।
जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा।।
मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाई।।
कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना।।            
टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहु।।

दो0-तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।
बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु।।286।।

 

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