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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

बालकाण्ड

बालकाण्ड पेज 67

सीय स्वयंबरु देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बड़ाई।।
लखन  कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई।।
हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी।।
पुनि मुनिबृंद समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला।।
रंगभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई।।
चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी।।
देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी।।
तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहू सब काहू।।

दो0-कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।
उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि।।240।।


राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए।।
गुन सागर नागर बर बीरा। सुंदर स्यामल गौर सरीरा।।
राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे।।
जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी।।
देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा।।
डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी।।   
रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा।।
पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई।।

दो0-नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप।
जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप।।241।।  
  

बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा।।
जनक जाति अवलोकहिं कैसैं। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें।।
सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी।।
जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा।।
हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता।।
रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया।।
उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ।।
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ।।

दो0-राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।     
सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर।।242।।


सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ।।
सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के।।
चितवत चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहीं बरनी।।
कल कपोल श्रुति कुंडल लोला। चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला।।
कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा।।
भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं।।
पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाई। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं।।
रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ।।

दो0-कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल।।243।।

 

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