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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

बालकाण्ड

बालकाण्ड पेज 62

मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता।।
बालक बृंदि देखि अति सोभा। लगे संग लोचन मनु लोभा।।
पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा।।
तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी।।
केहरि कंधर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला।।
सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन।।
कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं।।
चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेखा सोभा जनु चाँकी।।

दो0-रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस।
नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस।।219।। 


देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए।।
धाए धाम काम सब त्यागी। मनहु रंक निधि लूटन लागी।।
निरखि सहज सुंदर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई।।
जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं।।
कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती।।
सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं।।
बिष्नु चारि भुज बिघि मुख चारी। बिकट बेष मुख पंच पुरारी।।
अपर देउ अस कोउ न आही। यह छबि सखि पटतरिअ जाही।।

दो0-बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख घाम ।     
अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम।।220।।


कहहु सखी अस को तनुधारी। जो न मोह यह रूप निहारी।।
कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी।।
ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा।।
मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे।।
स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन।।
कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी।।
गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें।।
लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता।।

दो0-बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि।
आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि।।221।।


देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई।।
जौ सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू।। 
कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने।।
सखि परंतु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई।।
कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता।।
तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू।।
जौ बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू।।
सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें।।

दो0-नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।
यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि।।222।।

 

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