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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

बालकाण्ड

बालकाण्ड पेज 57

काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा।।
अरुन चरन पकंज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती।।
रेख कुलिस धवज अंकुर सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे।।
कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहि देखा।।
भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी।।
उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा।।
कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई।।
दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे।।
सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला।।
चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे।।
पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई।।
रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहि देखा।।

दो0-सुख संदोह मोहपर ग्यान गिरा गोतीत।
दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत।।199।।


एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता।।
जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी।।
रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी।।
जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे।।
भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही।।
मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई।।
एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा।।
लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालनें घालि झुलावै।।

दो0-प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।200।।


एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिंगार पलनाँ पौढ़ाए।।
निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना।।
करि पूजा नैबेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा।।
बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई।।
गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता।।
बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कंप मन धीर न होई।।
इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा।।
देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी।।

दो0-देखरावा मातहि निज अदभुत रुप अखंड।
रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड।। 201।।


अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिंधु महि कानन।।
काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ।।
देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी।।
देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही।।
तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा।।
बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी।।
अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना।।
हरि जननि बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई।।

दो0-बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि।।
अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि।। 202।।

 

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