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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

बालकाण्ड

बालकाण्ड पेज 52

कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया।।          
दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा।।
सुत समूह जन परिजन नाती। गे को पार निसाचर जाती।।
सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी।।
सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा।।
ते सनमुख नहिं करही लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई।।
तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई।।
द्विजभोजन मख होम सराधा।।सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा।।

दो0-छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।
तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ।।181।।

मेघनाद कहुँ पुनि हँकरावा। दीन्ही सिख बलु बयरु बढ़ावा।।
जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना।।
तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँधी।।
एहि बिधि सबही अग्या दीन्ही। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही।।
चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्त्रवहिं सुर रवनी।।
रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा।।
दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए।।
पुनि पुनि सिंघनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी।।
रन मद मत्त फिरइ जग धावा। प्रतिभट खौजत कतहुँ न पावा।।
रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी।।
किंनर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पंथहिं लागा।।
ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी।।
आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता।।

दो0-भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतंत्र।
मंडलीक मनि रावन राज करइ निज मंत्र।।182(ख)।।
देव जच्छ गंधर्व नर किंनर नाग कुमारि।
जीति बरीं निज बाहुबल बहु सुंदर बर नारि।।182ख।।

इंद्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ।।
प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा।।
देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी।।
करहि उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया।।
जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला।।
जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं।।
सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरू मान न कोई।।
नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहुँ सुनिअ न बेद पुराना।।

छं0-जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।
आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा।।
अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहि काना।
तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना।।
सो0-बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं।
हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति।।183।।


मासपारायण, छठा विश्राम

 

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