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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

बालकाण्ड

बालकाण्ड पेज 40

कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी।।
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ।।
माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा।।
गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई।।
निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा।।
मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बारिहि न भोरें।। 
मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना।।
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा।।
दो0-रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ।।133।।

जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई।।
तहँ बैठ महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ।।
करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई।।
रीझहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी।।
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ।।
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी।।
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा।।
मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही।।
दो0-सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल।।134।।

जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि देहि न बिलोकी भूली।।
पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसकाहीं।।
धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला।।
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा।।
मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी।।
तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई।।
अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी।।
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा।।
दो0-होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ।।135।।

पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा।।
फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदी चले कमलापति पाहीं।।
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोर उपहास कराई।।
बीचहिं पंथ मिले दनुजारी। संग रमा सोइ राजकुमारी।।
बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं।।
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा।।
पर संपदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी।।
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु।।
दो0-असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु।
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु।।136।। 

 

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