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गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस

रामचरित मानस

बालकाण्ड

बालकाण्ड पेज 4

आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी।। 
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी।।
जानि कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू।।
निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाही।।
करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा।।
सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन मति रंक मनोरथ राऊ।। 
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी।।
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई।।
जौ बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता।।
हँसिहहि कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी।।
निज कवित केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका।।
जे पर भनिति सुनत हरषाही। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं।।
जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई।।
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई।।

दो0-भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करहहिं उपहास।।8।।

 

खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा।।
हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही।।
कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू।।
भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी।।
प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागहि फीकी।।
हरि हर पद रति मति न कुतरकी। तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुवर की।।
राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी।।
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू।।
आखर अरथ अलंकृति नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना।।
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा।।
कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे।।

दो0-भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
   सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिवेक।।9।।

एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा।।
मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी।।
भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ।।
बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोन न बसन बिना बर नारी।।
सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी।।
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुनग्राही।।
जदपि कबित रस एकउ नाही। राम प्रताप प्रकट एहि माहीं।।
सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसंग बडप्पनु पावा।।
धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई।।
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल करनी।।
छं0-मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।।
   गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की।।
   प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी।।
   भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी।। 
 
दो0-प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।
   दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग।।10(क)।।
   स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
   गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान।।10(ख)।।

 

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